बड़ा होने के कारण, कानपुर में राज्य सरकार के स्तर पर दो ज़िले थे - कानपुर शहर और कानपुर देहात। दोनों को मिला कर उनमें देशी शराब के ठेके का अच्छा कारोबार था। हर साल नीलामी होती थी। अलग-अलग हिस्सों के लिए दस-पंद्रह लोगों को ठेका मिलता। किन्तु हर साल ऐसा होता कि नीलामी जीतने वाले ठेकेदार ज़्यादातर बदल जाते। साल ख़त्म होने पर ये लोग अक्सर ग़ायब हो जाते थे। जो पकड़में आते या आयकर रिटर्न भरते, वे कहते कि उनके पास कोई खाता-बही आदि नहीं होते थे। वे नो-एकाउन्ट्स केस बता कर, राज्य के एक्साइज़ डिपार्टमेन्ट द्वारा बताई बिक्री का एक छोटा अंश आय के रूप में दिखा देते थे। सबको पता था कि शराब के ठेकों में बड़ी कमाई है। किन्तु, ठेकेदार लोग अक्सर इतने छोटे लोग होते थे कि उन्हें पकड़ कर बड़ी कमाई का कोई सबूत निकाल पाना संभव न था। इसलिए आयकर विभाग में अधिकारी मन मसोस कर रह जाते थे।
बात बदल गई जब हमें एक अच्छा इन्फ़ॉर्मेन्ट हाथ लगा। उसने इस व्यापार के बारे में कुछ गुप्त सूचनाएँ दी। इनके अनुसार कानपुर शहर और देहात में शराब के ठेके का काम मध्यप्रदेश के कुछ बड़े व्यापारियों का एक शक्तिशाली सिन्डिकेट चला रहा था। कानपुर शहर और देहात के सारे ठेके, चाहे वे जिस किसी के भी नाम से उठे हों, इस सिन्डिकेट के ही होते। सारा कारोबार एक विश्वस्त मैनेजर की निगरानी में होता था। हमारे भेदिये ने सिन्डिकेट द्वारा किराये पर लिया गया एक बंगला भी दिखाया जो ऑफिस की तरह इस्तेमाल होता था और जहाँ सभी इलाक़ों की दूकानों से रोज़ाना बिक्री का कैश लेकर कारिन्दे आते थे। हमारे ख़बरी का सुझाव था कि इस बंगले पर सोमवार को सुबह दस - साढे दस बजे छापा डाला जाना चाहिए। उसका अनुमान था कि उस समय वह विश्वस्त मैनेजर वहाँ तो होगा ही, साथ में सात से आठ लाख रूपए भी मिलेंगे जो पिछले दो दिनों में वहाँ इकट्ठा हुए होंगे और अभी बैंक न गये होंगे। उन दिनों यह रक़म बड़ी थी। हमें ख़बरी की बात जँच गई। प्रस्तावित एक्शन के लिए पाण्डेय जी की मंज़ूरी भी मिल गई।
नियत दिन, मैं कुछ अधिकारियों व कर्मचारियों को ले कर एक सोमवार की सुबह साढ़े दस बजे उस बंगले में घुस गया। खुली हुई बड़ी ज़मीन के बीच एक पुरानी ईमारत थी जो खंडहर में तब्दील हो रही थी। जो कमरे इस्तेमाल के लायक़ थे, वे भी रंग-ओ-रोग़न के मुहताज थे। कहीं-कहीं कुछ मूँज की खाटें पड़ी थीं। उस समय वहाँ पर वह मैनेजर न था। बस, दो-तीन अनपढ़-गँवार क़िस्म के कारिन्दे थे, जिन्होंने हमारा कोई नोटिस न लिया। मैनेजर के बारे में पूछने पर पता चला कि वह थोड़ी देर में आजाएगा। बंगले में एक तरफ़ बड़ा सा रसोईघर था जिसमें बड़े-बड़े हंडों में ढेरों खाना बन रहा था। बात साफ़ थी कि यह उन लोगों को खिलाने-पिलाने का इंतज़ाम था जो ज़िले भर की दूकानों से रोज़ाना बिक्री की रक़म ले कर वहाँ आते थे। सर्च शुरू हुई। एक कमरे में, कैश-बॉक्स था जिसमें थोड़ा बहुत कैश था। अंदाज़न यह महज़ एक लाख के आस-पास होता। कुछ मिला कर जो भी था वह हमारी आशा से बहुत कम था। मैंने टीम को कैश गिनने में लगा दिया।
बंगला तो सिर्फ़ ग्राउण्ड फ़्लोर का ही था। ऊपर, बहुत बड़ी छत थी। मैं दो-एक कर्मचारियों के साथ ऊपर गया। वहाँ पर एक छोटा कमरा बनाया गया था, जिसमें अभी दरवाज़े आदि लगने थे। दरवाज़े की जगह को बाहर से चटाई का परदा लगा कर ढंक दिया गया था। कुतूहल वश हम परदा हटा कर अंदर गए। पता चला यह ऑफिस था। बड़ी-बड़ी आल्मारियों में बही खाते और बहुत सारे रजिस्टर सिलसिलेवार रखे थे। उन्हें निकाल कर देखने शुरू किया तो पता चला कि हमारी ख़बर सच थी। कानपुर शहर और देहात में शराब का व्यापार चलाने वाले तथाकथित ठेकेदार व्यक्तियों का मालिकाना महज़ कागज़ पर ही था। सारा बिज़नेस एक सिण्डिकेट, जिसने उनके नाम पर ठेके हथियाए थे, चला रहा था।
व्यापार के असली मालिक दूसरे प्रान्त में बैठे थे। सबकुछ विश्वस्त कर्मचारी देखते थे। इसलिए आवश्यक था कि हर लेन देन का पूरा रिकॉर्ड रहे, जो कोई भी देख सके। इस कारण से खातों में हर बात पूरे डिटेल के साथ लिखी थी। मसलन्, ठीके मिलने के सिलसिले में किसे कितनी घूस दे कर पटाया गया। राज्य शासन व पुलिस के सब आदमियों के नाम व पद के साथ एक-एक को दी गई राशि लिखी थी। एक रजिस्टर में एक सौ से ऊपर थानों का अलग से लेजर था। उसमें समय-समय पर बंटने वाली माहवारी का उल्लेख था। अधिकारियों के उपयोग के लिए कानपुर में ड्राइवरों के साथ छः कारें थी। हर कार की अलग-अलग लॉगबुक थी जिसमें किलोमीटर की एन्ट्री के साथ साफ़-साफ़ लिखा था कि किसने किस दिन से किस दिन तक कार इस्तेमाल की और कहाँ से कहाँ गया।
खातों को देखने से पता चला कि चालू वर्ष में नौ महीनों में ही, वाजिब-ग़ैरवाजिब सब खर्चे निकाल दिए जाएँ तो भी बारह लाख का शुद्ध लाभ बनता था। इस तरह पूरे साल में कम से कम सोलह लाख का लाभ होता जिस पर एडवान्स टैक्स दिया जाना चाहिए था। उन दिनों यह एक बड़ा मामला बनता था। खाते व रजिस्टर मिलने से हमारी निराशा हर्ष में बदल गई। मैनेजर, जो बाहर था, छापे के बारे में सुन कर बिल्कुल ही ग़ायब हो गया। उसकी अनुपस्थिति में वहाँ कोई दूसरा ज़िम्मेदार व्यक्ति न था जिसका बयान आदि हम ले सकते। इसलिए हम वह सब खाते और रजिस्टर ज़ब्त करके ले आए।
बाद में वह मैनेजर तो हमारे पास आया। पर वह कोई न कोई बहाना बना कर लिखित में कुछ भी देने से बचता रहा। हमारे सामने वह असली मालिकों को पेश करने का दावा करता। पर, ऐसा होने वाला न था। हमारे ऐक्शन को लगभग दो महीने होने को आए, पर बात कुछ आगे न बढ़ती दिखती। मैनेजर का प्रयास था कि किसी तरह वह ज़ब्त खाता-बहियों पर हम लोगों के समक्ष बयान देने से बच जाए और सभी ज़ब्त बहियों को ऐसेही असेसिंग ऑफ़िसर को भेज दिया जाए। वहाँ तो उसका केस दो साल बाद ही आता और बहुतेरे मसलों के आपो-आप नज़रअंदाज़ हो जाने का पूरा चान्स था।
लगता है, पाण्डेय जी के पास भी इस संबंध में कोई सिफ़ारिश आई थी। उन्हों ने एक दिन इस केस में हुई प्रगति के बारे में पूछा। हमने अपनी दिक़्कत बताई। सब कुछ सुन कर, उन्होंने कहा कि वह मैनेजर जब भी मिले उसे उनके पास लाया जाए। इत्तफ़ाक़ से दो-एक दिन बाद ही वह हमारे पास कुछ ज़ब्त खातों की प्रतिलिपि लेने के लिए आया। उसे पाण्डेय जी के समक्ष पेश किया गया। पाण्डेय जी ने बहुत सख़्ती से उससे पूछा कि खातों में उल्लिखित आदमनी पर टैक्स देने में क्यों आनाकानी हो रही थी। उनके सामने भी वह मैनेजर हीला हवाली करने लगा और बोला कि खातों में जो भी लिखा था मालिकान उसे सच नहीं मानते थे। अचानक, बड़े क्रोध में पाण्डेय जी ने उससे कहा, “देखो यह सब झाँसा तुम किसी और को देना। मैं तुमको बस दो दिन का समय और देता हूँ। इसी में तुम्हारे खातों में जो इन्कम निकलती है उसे स्वीकार करते हुए टैक्स पेमेन्ट की व्यवस्था करो। दो दिन में ऐसा न हुआ तो बहुत बुरा होगा।” मैनेजर चुप खड़ा था। कुछ क्षण बाद पाण्डेय जी ने अपने अगले क़दम का खुलासा किया, “हम लोग तुम्हारे यहाँ से मिले खातों में लिखी घूस की सब डिटेल्स उत्तर प्रदेश सरकार के ऐन्टी करप्शन विभाग को जाँच के लिए दे देंगे। सब अधिकारियों के ख़िलाफ़ जाँच होने लगेगी। तुम सब ब्लैक लिस्ट हो जाओगे। अब तुम्हारे व्यवसाय का क्या होगा यह तुम सोच लो।”
इस धमकी से मैनेजर सकते में आ गया और घिघिया कर रहम की दुहाई माँगने लगा। पर उस दिन पाण्डेय जी रहम के मूड में न थे। उन्होंने एक और ब्रह्मास्त्र चलाया, “घूस के भरोसे मध्य प्रदेश में बैठे तुम्हारे आक़ा लोग रिमोट कण्ट्रोल से यहाँ इतना बड़ा सिण्डिकेट चला रहे हैं। मैं मध्य प्रदेश की सरकार को भी यह सूचना पूर्णरूपेण भेज दूँगा और कहूँगा कि इस अपराध के चलते इन सभीको मध्य प्रदेश राज्य में भी ब्लैक लिस्ट कर दिया जाए और भविष्य में कोई ठेके न दिए जाएँ।” यह सुन कर मैनेजर की तो बोलती ही बंद हो गई और पाँव काँपने लगे। किसी तरह, थोड़े और समय की याचना कर लड़खड़ाते पैरों वह पाण्डेय जी के सामने से भाग खड़ा हुआ।
पाण्डेय जी की सख़्ती तुरंत रंग लाई। दूसरे दिन ही सिण्डिकेट ने एसोसियेशन ऑफ़ पर्सन्स (व्यक्ति समूह) के रूप में एक पत्र दे यह स्वीकार कर लिया कि ज़ब्त बही खातों में दिखाया गया व्यापार उसका ही है। साथ ही उसने बीस लाख की सालाना आमदनी के अनुमान के हिसाब से दिसम्बर महीने तक का एडवान्स टैक्स भी भर दिया। हमारी दुविधा पाण्डेय जी की एक डाँट से फटाफट दूर हो गई। यह कानपुर के इन्वेस्टिगेशन विंग की एक महत्वपूर्ण उपलब्द्धि थी।
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पाण्डेय जी के संदर्भ में एक और सर्च का ज़िक्र करना आवश्यक है। एक डालमिया ग्रुप था। ये नौरईस थे। बड़े भाई कानपुर में थे और दूसरे भाई दिल्ली, मुम्बई और इन्दौर में थे। कानपुर में उनके एक मामाजी थे। उनका व्यापार अलग था और सर-नेम डालमिया भी न था। पर, मामाजी के बारे में हमारी सूचना यह थी कि पूरे ग्रुप की उनसे बड़ी घनिष्ठता है। छापा सब जगह डाला जा रहा था। इसलिए मामाजी का घर भी कवर किया गया।
सभी डालमियाँ बन्धुओं के यहाँ से ढेरों बही खाते ज़ब्त किए गए थे। वे सब देखे गए। इन्दौर के व्यापार का असेसमेन्ट कानपुर में होता था। वहाँ की किताबें मैं स्वयं कानपुर लेआया। पर कहीं भी खातों या सीज़्ड मैटीरियल में कुछ भी गड़बड़ी न मिली। लग रहा था कि हमारी सर्च तो बिल्कुल ही फ़ेल हो गई है।
कानपुर में जो सर्च पार्टी मामाजी के घर गई उसने सर्च के समय ही उनके बारे में बताया था कि वह बहुत छोटे आदमी हैं, रहन-सहन निम्न मध्यम वर्गीय है, उनका बिज़नेस अलग है और डेढ़ कमरे का घर इतना तंग और गंदा है कि वहाँ कुछ देर खड़ा रहना भी दूभर है। मामाजी के घर से सर्च पार्टी ने कुछ डायरियाँ और काग़ज़ ज़ब्त किए थे जो एक लिफ़ाफ़े में भर कर मुझे दिए गए थे। वे ऑफिस में मेरी अल्मारी में ही पड़े थे। हमारे लिए, मामाजी महत्वपूर्ण न थे। इसलिए, मुझे उनके यहाँ से लाए गए सीज़्ड मैटीरियल का ध्यान बिल्कुल न था।
किन्तु, एक दिन एक परिचित के माध्यम से ऐसा आभास हुआ कि मामाजी के यहाँ से निकली एक डायरी को ले कर डालमिया ग्रुप डरा हुआ है और उसमें कुछ फेर-बदल करवाने की फ़िराक में है। मामाजी के यहाँ से मिले डायरी-कागज़ात तुरंत देखे गए। एक डायरी वास्तव में महत्वपूर्ण निकली। इसमें कोड वर्ड्स में पिछले छ-सात वर्षों में ग्रुप के परिवारों में होने वाली शादियों में हुए अट्ठारह से बीस लाख के कैश ख़र्च का हिसाब था। निःसंदेह पूरा ख़र्च किताबों के बाहर था। ग्रुप को भय था कि यह बात पकड़ी जाएगी। इस भय ने ही उसकी पोल खोल दी थी।
अब क्या था। मामाजी को सम्मन दे कर बयान के लिए बुलाया गया। सम्मन मिलते ही मामाजी हाई ब्लड प्रेशर और हाइपर टेन्शन ले कर हॉस्पिटल में भरती हो गए। दस-पंद्रह दिन ऐसे ही निकल गए। डायरी मामाजी के पास से निकली थी। अतः आयकर क़ानून के अनुसार डायरी से पता चलने वाली आमदनी उनके हाथ में टैक्स हो सकती थी। पर, हमें पता था कि आर्थिक हैसियत के मामले में मामाजी एकदम पैदल हैं और टैक्स का बोझ उठाना उनके लिए संभव नहीं। डायरी में लिखी ईबारतों का संबंध डालमिया ग्रुप से था। ग्रुप में टैक्स भरने की क्षमता भी थी। पर वे उस डायरी को अपना मानने से गुरेज़ कर रहे थे। उन्हें लगता था कि शायद हीला-हवाली करके ही वे बच जाएँ। वे कहते थे कि डायरी मामाजी से मिली है इसलिए पहले मामाजी से ही पूछताछ की जाए और देखा जाए कि वे क्या कहते हैं। तकनीकी तौर पर बात सही थी। किन्तु, हॉस्पिटल के आइ सी यू में बिस्तर-नशीन मामाजी तात्कालिक तौर पर हमारी पहुँच से परे थे।
अफ़वाह थी कि डालमिया ग्रुप किसी बड़ी सिफ़ारिश का दबाव बनाने की फ़िराक़ में है। एक दिन दोपहर में अचानक पाण्डेय जी ने मुझे पास बुलाया और पूछा कि क्या मैंने डालमिया ग्रुप की सर्च में अपनी ऐप्रेज़ल रिपोर्ट बना ली है। मैंने बताया कि ग्रुप मेम्बर्स से मिले सीज़्ड मैटीरियल में तो कुछ मिला नहीं था और जहाँ कुछ मिलने की उम्मीद थी वहाँ मामाजी के हॉस्पिटल में होने से मामला अटका हुआ था। इतना सुनते ही पाण्डेय जी गरम हो गए। मुझे डाँट कर कहा, तुम लोग बिल्कुल नाकारे हो, सर्च को दो महीने होने को आए और अभी कोई ऐप्रेज़ल रिपोर्ट नहीं बनी। मामाजी का बयान न होगा तो क्या रिपोर्ट ही नहीं बनेगी। नहीं बनाया तो फिर सब काम छोड़ रिपोर्ट अभी बनाओ। हर हालत में, कल सुबह सुबह मुझे रिपोर्ट चाहिए। उस दिन हमारे डी डी आई, बटब्याल साहब, छुट्टी पर थे। उनका सहारा भी न था कि मैं इस आदेश के पीछे का सच जान सकता।
उन दिनों कम्प्यूटर आदि का चलन न था। कोई रिपोर्ट या पत्राचार हो तो हम डिक्टेशन देते थे या फिर हाथ से लिखते थे। अब जल्दी-जल्दी में डिक्टेशन ही दिया जा सकता था। पर, स्टेनो टाइप कर ड्राफ़्ट सुबह ही दे पाता। वह ड्राफ़्ट कैसा होगा यह एक बड़ा प्रश्न था। ड्राफ़्ट में करेक्शन समय से हो सकेगा, यह भी संदेहास्पद था। इसलिए मैंने रात भर जग कर हाथ से पच्चीस-तीस पन्ने की रिपोर्ट लिखी। सुबह सवेरे से जग कर उसमें जगह-जगह तरतीब-तरमीम करता रहा। दस बजे ऑफ़िस खुला। वह रिपोर्ट अभी भी अधपकी अधकचरी थी। पर मैंने उसे ही एक फ़ाइल में लगाया और पाण्डेय जी के पास गया। पाण्डेय जी कुछ अन्य काम देख रहे थे। मुझे देख, उन्होंने ने पूछा, “रिपोर्ट हो गई?” मेंने स्वीकृति में सिर हिलाया और फ़ाइल उनके सामने रख दी। पाण्डेय जी ने तो फ़ाइल खोली भी नहीं। वे अपने काम में ही मशगूल थे। मैं खड़ा रहा। मेरे मन में सवाल उठा कि यदि रिपोर्ट देखनी भी नहीं थी तो फिर पाण्डेय जी ने कल इतनी डाँट-डपट क्यों की।
तभी कहीं से एक फ़ोन आया। फ़ोन कहाँ सं था और किसका था, यह उस समय पता न चला। पर शायद फ़ोन का संबंध डालमिया ग्रुप के केस से ही था। अब, पाण्डेय जी ने हाथ के इशारे से मुझे बैठने को कहा। उधर से किसने पाण्डेय जी को क्या कहा यह नहीं मालूम पर पाण्डेय जी ने कहा, “Sir! I have ascertained the present status of the case. The entries appearing in the diary, seized from a close relative of the Group, are explicit and cannot be ignored. These clearly show unaccounted expenditure incurred by the Group on various marriages. The ADI has already decoded the entries and has prepared a detailed appraisal report, which is before me and is being sent to the field Officer for necessary action.”
उधर से क्या जवाब आया, नहीं पता चला। पर पाण्डेय जी ने बड़ी दृढ़ता से कहा, “Sir! I know there are difficulties in pinning the income on the Dalmiya Group. Yet, the undisputed fact is that the income belongs to them. They also have the financial muscle to pay the tax. So, this Group must come forward and volutarily offer to tax the entire income. I will see how they can be given waiver for penalties etc.”
शायद अभी भी दूसरी ओर से कुछ और ही अपेक्षा थी। मेरे देखते-देखते पाण्डेय जी का चेहरा तमतमाने लगा। उनके तेवर चढ़ गए और उनकी आवाज़ में सख़्ती आ गई। अब उन्होंने कहा, “Sir! I have made myself clear. It is not possible for me to offer any other concessions. If you are not happy with me and still want something else to be done, please find another Commissioner of Income-tax for Kanpur. I will keep my bags packed.” यह कहने के साथ पाण्डेय जी ने धम से फ़ोन क्रेडिल पर पटक दिया।
मैं तो एक दम सन्नाटे में आ गया। पाण्डेय जी को अपने क्रोध पर क़ाबू पाने में कुछ क्षण लगे। पर, दिल की बात बेबाकी से बोल कर वे निश्चिन्त हो गए थे। कुछ समय में ही, उनके चेहरे पर उसकी स्वाभाविक सौम्यता लौट आई। अब उन्होंने मेरी तरफ़ बड़े प्रेम से देखा और मुस्कुराए। घंटी बजा कर अपने चपरासी, राजाराम, को बुलाया। मेरी ओर इंगित करके उससे कहा,“राजाराम! इस लड़के ने अच्छा काम किया है। इसके लिए जल्दी-जल्दी एक ग्लास दूध ले कर आओ।”
पिछले दिन पाण्डेय जी ने जो डाँट मुझे पिलाई थी उसका रहस्य अब खुल गया था। ज़ाहिर था कि ऊपर से किसी ने उनसे यह अनुरोध किया होगा कि मामाजी के यहाँ से मिली डायरी को अनदेखा कर दिया जाए। विभाग में यह चूक न हो सके इस लिए ही पाण्डेय जी ने आनन फानन मे मुझसे रिपोर्ट बनवाई थी। मैंने रिपोर्ट बना कर पाण्डेय जी को संबल दिया था इसीलिए खुश होकर उन्होंने उस दिन साधारणतया मिलने वाली चाय की जगह दूध का प्रसाद दिया।
दूध पीते पीते, उत्सुकतावश मैने पाण्डेय जी से पूछा कि यदि ऊपर वाले वास्तव में नाराज़ ही हो गए तो क्या होगा। उन्हों ने कहा, “मेरे जैसे से ऊपर वाले नाराज़ भी हो जाएँ, तो क्या कर लेंगे? बहुत करेंगे, तो किसी दूर-दराज़ जगह पर ट्रान्सफ़र कर देंगे। किन्तु, ट्रान्सफ़र के भय से किसी की उल्टी-सीधी सुनूँ, यह मेरे स्वभाव में नहीं। ट्रान्सफ़र हो तो हो।” कुछ अंतराल के बाद पाण्डेय जी बोले, “ट्रान्सफ़र नहीं जमेगा, तो नौकरी ही छोड़ दूँगा। ठीक रहेगा। गाँव में वृद्ध पिताजी हैं। वे तो मेरे पास आ कर रहने से रहे। नौकरी छोड़ दूँ तो उनके पास रहने का अवसर मिल जाएगा। अच्छा है, उनकी सेवा करूँगा।”
कर्तव्य में निष्ठावान होना एक बात है। सरकारी नौकरों में ऐसे लोग बहुतेरे मिलते हैं। पर, पाण्डेय जी जैसा कर्तव्य में पूर्ण निर्भीकता से निष्ठावान थे। और, अपनी निर्भीक निष्ठा के लिए कोई भी क़ीमत चुकाने को तैयार थे। ऐसा व्यक्ति निःसंदेह दुर्लभ है। उनका सान्निद्ध्य मिला, यही भगवत्-प्रसाद से कम नहीं। इसमें ही किसी को बहुत कुछ सिखा जाने की सामर्थ्य है।
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एक व्यापारी थे अग्निहोत्री जी। उनके यहाँ आयकर का छापा पड़ा था। काफ़ी कर अपवंचना प्रकाश में आई थी। कर निर्धारण हो गया था और ढेर सारा अतिरिक्त टैक्स वसूल हो चुका था। अब हम लोगों ने सुझाव दिया कि अग्निहोत्री के विरुद्ध कर अपवंचना का प्रयास करने के लिए मुक़दमा दायर किया जाए। पाण्डेय जी प्रथम दृष्टया सहमत थे। इसलिए, मुक़दमा दायर करने के पहले अग्निहोत्री जी को कारण बताओ नोटिस दे दिया गया। उनके पास कोई तर्क संगत जवाब तो था नहीं। उन्हें यही उचित लगा कि वे अपनी फ़रियाद ले पाण्डेय जी के पास जाएँ।
फ़रियाद करने के लिए अग्निहोत्री जी ने न जाने क्यों पाण्डेय जी के निवास पर आना उचित समझा। यहीं उनसे बहुत बड़ी चूक हो गई। पाण्डेय जी के निवास में गिने चुनों लोगों का ही प्रवेश संभव था। कानपुर के कुछ अति विशिष्ट एवं सम्मानित व्यक्ति ही होली-दीवाली उनके घर में उन्हें अपनी शुभकामनाएँ देने आ पाते थे। उनमें से भी किसी को एक डब्बा मिठाई भी साथ में लाने की इजाज़त न थी। ऐसे प्रोटेक्टेड घर में अग्निहोत्री जी भला किस प्रकार सेंध लगा पाते।
कॉलोनी में मेरे और पाण्डेय जी के फ्लैट्स ग्राउण्ड फ़्लोर पर एक दूसरे के पास पास थे। मेरे लॉन से उनके लॉन में सबकुछ दिखता था। सुबह के आठ बजे होंगे। अग्निहोत्री जी दबे पाँव नज़रें बचाते कॉलोनी में पैदल दाख़िल हुए। मैं अपने लॉन में था। मुझे लग गया कि वे पाण्डेय जी के यहाँ ही जा रहे होंगे। और, थोड़ी देर में बात साफ़ हो गई। उन्होंने उनके फ़्लैट का ही रुख़ किया। उत्सुकता वश मैं देखता रहा। अग्निहोत्री जी फ्लैट के बाहर लॉन का दरवाज़ा खोला, अंदर आए और फ्लैट की कॉल बेल बजाई। पाडेय जी की विवाहिता पुत्री उन दिनों वहाँ थी। उसने ही दरवाज़ा खोला और अग्निहोत्री जा से उनका नाम-गाँव आदि पूछा। अग्निहोत्री जी ने बता दिया। वे अंदर प्रवेश करने को उत्सुक थे, किन्तु पाण्डेय जी की पुत्री ने उनसे रुकने को कह दरवाज़ा बंद कर लिया। अग्निहोत्री जी को बाहर ही प्रतीक्षा करनी पड़ी।
कुछ क्षण बाद पाण्डेय जी बाहर आए। अग्निहोत्री जी ने कहा कि उन्हें कुछ निवेदन करना है। पाण्डेय जी को तो नाम से ही सब कुछ समझ में आगया होगा। पर वे अनजान बने रहे। अग्निहोत्री जी ने बताया कि ऑफ़िस से कुछ नोटिस मिला है। अब पाण्डेय जी ने कहा, “ऑफ़िस के काम की चर्चा मैं घर पर नहीं करता और यह उचित भी नहीं है। अतः आप ऑफ़िस में ही आएँ।” अनिहोत्री जी ने दो-तीन बार आग्रह किया कि उन की बात सुन ली जाए, पर पाण्डेय जी टस से मस न हुए। जल्दी ही, पाण्डेय जी ने अग्निहोत्री जी को हाथ के इशारे से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यही नहीं, वे स्वयं फ्लैट के दरवाज़े से निकल कर लॉन पार कर बाहर के दरवाज़े तक आगए। अग्निहोत्री जी के लिए कोई चारा न था। अनमने मन से वे भी लॉन क्रॉस कर बाहर के दरवाज़े तक आ गए। पाण्डेय जी इन्तज़ार में थे कि अग्निहोत्री जी बाहर निकलें तो वे दरवाज़े की साँकल लगाएँ। तभी अग्निहोत्री जी ने एक चान्स और लिया। बोले, “हुज़ूर, दया कर दीजिए। हमारा परिवार बड़ा है। मुझे कुछ हो गया तो ब्राह्मणों के बच्चे बेआसरा हो जाएँगे।”
इस दुहाई का पाण्डेय जी पर उल्टा ही असर हुआ। उन्होंने बहुत कड़ाई से कहा, “देखिए, अग्निहोत्री जी, कर्म से तो आप ब्राह्मण नहीं मात्र वणिक हैं। अब ऐसे खोखले ब्राह्मणत्व की दुहाई आप न दें तो ही अच्छा होगा। कृपा करके, आप यहाँ से चले जाएँ। जो कहना हो ऑफ़िस में आकर कहिएगा।” अग्निहोत्री जी ने वहाँ से भाग निकलने में ही अपनी भलाई समझी। मुझे याद नहीं कि इसके बाद वे ऑफ़िस में अपना कोई प्रतिवेदन ले कर आए थे। यह अवश्य याद है कि उनके विरुद्ध कर अपवंचना के प्रयास का केस अदालत में ज़रूर फ़ाइल किया गया। यह केस उन्हें काफ़ी शुल्क दे कर केस को कम्पाउन्ड कराना पड़ा।
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पाण्डेय जी को पढ़ने का बहुत शौक़ था। दिल्ली जैसे महानगर में तो अच्छे पुस्तकालय थे। पर, कानपुर मे ऐसी कोई सुविघा न थी। एक दिन मैंने देखा कि पाण्डेय जी के ऑफ़िस के कमरे में एक बड़ी आल्मारी में इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका की नई-नई चमकती हुई पुस्तकों का सेट बहुत क़रीने से सजा कर रखा है। इन्कम टैक्स में ऑफ़िस के कार्य में भी कभी कभी दीगर विषयों पर बहुत कुछ जानने की आवश्यकता पढ़ती है। इसलिए, मैंने यह क़यास लगाया कि ऑफ़िस की ज़रूरत और अपने शौक़ दोनों की पूर्ति के लिए पाण्डेय जी ने ये पुस्तकें मँगवाईँ होंगी। उन दिनों इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के सेट की क़ीमत लगभग नौ हज़ार रूपए थी और वह साधारण लोगों की पहुँच से बाहर थी।
लगभग एक साल बाद पाण्डेय जी का तबादला मुम्बई हो गया। वे चार्ज दे कर मुम्बई जा रहे थे और कानपुर ऑफ़िस में उनका अंतिम दिन था। मेरे सामने ही उन्होंने ऑफ़िस के केयरटेकर को बुलाया और इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका की ओर इशारा करके पूछा कि उनके पैकेजिंग वाले कार्डबोर्ड बॉक्सेज़ ठीक से रखे हैं अथवा नहीं। केयरटेकर ने सिर हिला कर हामी भर दी। अब पाण्डेय जी ने कहा, “सब किताबें ठीक से पैक करा देना। जब कॉलोनी में ट्रक पर मेरा सामान लदने लगे तब चुपचाप इन्हें उसमें रखवा देना।” केयरटेकर हाँ करके चला गया। मुझे अब पता चला कि ऑफ़िस में रखी इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका तो पाण्डेय जी की अपनी थी।
कुतूहल वश मैंने पूछ ही लिया, “सर, जब यह इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका आपकी है तो आपने इसे ऑफ़िस में क्यों रखा है।” पाण्डेय जी ने दबी ज़ुबान से कहा, “मैं घर ख़र्च के मामले में हद दरजे की कटौती कर देता हूँ। इससे पत्नी नाराज़ रहती हैं। उसके बावजूद, मैंने अपने शौक़ के लिए इतनी मँहगी किताब ख़रीद ली। जब भी पत्नी को यह पता चलेगा, उनको बहुत क्लेश होगा। यह क्लेश बचाने के लिए ही मैंने ये किताबें यहाँ ऑफ़िस में रख छोडी थीं। पर अब ट्रान्सफ़र हो गया है तो राज़ खुल कर ही रहेगा। अब कोई चारा नहीं।” ऋषि जैसे पाण्डेय जी की इस सहज अपराध स्वीकृति में पत्नी के प्रति जो संवेदना छुपी थी मैं उसका क़ायल हो गया।
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कालान्तर में, पाण्डेय जी दिल्ली से सेवा निवृत्त हुए। मैं तबादले पर मुम्बई आ गया था। 1987 या 1988 की बात होगी। मैं डायरेक्टर जनरल (इन्वेस्टिगेशन) मुम्बई के हेडक्वार्टर में था। एक दिन अचानक पाण्डेय जी मेरे ऑफ़िस में आ गए। उन्होंने बताया कि वे पत्नी समेत मुम्बई आए हैं और नेवी नगर में पुत्र, राकेश, के घर पर टिके हैं। वे बहुत प्रसन्न दिख रहे थे और उनके चेहरे पर एक अद्भुत प्रकाश था। मैंने यह बात उन्हें बताई। उन्होंने कहा, “देखो, नौकरी में किसी को कितना भी बड़ा पद क्यों न मिले, बंधन ही बंधन है। हर समय सर पर एक तलवार लटकी रहती है। कब क्या चूक हो जाए। इसलिए नौकरी में कभी कोई प्रसन्नता मुझे न दिखी। हाँ, अब मैं रिटायर हो गया तो अपना मनचाहा कर रहा हूँ और अपने आपको मुक्त महसूस कर रहा हूँ। तुम उसी मुक्ति का आनन्द मेरे चेहरे पर देख रहे हो।” उनकी यह अवस्था देख कर मन ही मन मैंने यह संकल्प किया कि रिटायर हो कर मैं भी पाण्डेय जी जैसा बनना चाहूँगा।
मैंने अपने डायरेक्टर जनरल (इन्वेस्टिगेशन), देशमुख साहब से पाण्डेय जी को मिलवाया। दोनों को एक दूसरे से मिल कर अच्छा लगा। बातों बातों में पता चला कि पाण्डेय जी अपने पुराने परिचित त्रिपाठी जी से मिलने सेटलमेन्ट कमीशन के महालक्ष्मी स्थित ऑफ़िस जाने वाले हैं। जब पाण्डेय जी बाहर निकलने को हुए, तो देशमुख साहब ने कहा कि उनकी स्टॉफ़ कार दिन भर उनके साथ रहेगी और उन्हें घर छोड़ कर चार पाँच बजे तक शाम को वापस आ जाएगी। पाण्डेय जी ने बहुत ना-नुकुर की। कहते रहे कि वे मुम्बई से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं और लोकल ट्रेन से सफ़र कर लेंगे। पर, देशमुख साहब ने उनकी एक न सुनी। मैं स्वयं उन्हें स्टाफ़ कार में बिठा कर आया। लेकिन, पाण्डेय जी ने कार का उपयोग महज़ महालक्ष्मी ऑफ़िस जाने के लिए ही किया। वहाँ उतरते ही ड्राइवर को कहा, “मुझे तुम्हारी ज़रूरत अब नहीं है। तुम तुरंत वापस चले जाओ। तुम्हारे साहब लोगों को ज़रूरी काम होगा।”
अपने मुम्बई प्रवास के दौरान मेरे आग्रह पर एक शाम पाण्डेय जी पत्नी समेत क़ासिम मीठा के मेरे सरकारी फ्लैट पर पधारे। हमने ज़िद कर रात्रि के भोजन के लिए रोक लिया। देर हो गई थी, इसलिए मेरे मन में था कि मैं ही अपनी कार में उन्हें नेवी नगर तक पुत्र के घर तक छोड़ कर आऊँ। पर, पान्डेय जी को यह क़तई स्वीकार न था। बमुश्किल तमाम वे मेरी कार में चले तो सही। पर, जैसे ही कार घर से निकल कर मलाबार हिल पर तीन बत्ती तक पहुँची, पाण्डेय जी ने कार रोकने को कहा। वे वहीं पर यह कर उतर गए कि वहाँ से सीधे नेवी नगर जाने वाली बस बहुत आसानी से मिल जाएगी।
ज़ाहिर है, नौकरी में रहे हों या फिर रिटायर्ड हों, पाण्डेय जी की वृत्तियों में कोई परिवर्तन न हुआ था।
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कानपुर के समय से ही मेरी पत्नी स्टेज पर अभिनय करती थीं। यह काम उन्हों ने मुम्बई आ कर भी कई वर्ष जारी रखा था और इप्टा के अनेक नाटकों में अभिनय किया। इनके चलते उनका संबंध अनु कपूर और आलोक नाथ जैसे प्रतिभाशाली अभिनेताओं द्वारा बनाए गए एक थिएटर ग्रुप से हुआ। इस ग्रुप ने पारसी थिएटर की तर्ज़ पर मुंशी दिल लखनवी द्वारा लिखे गए बहु-चर्चित पद्यात्मक नाटक “लैला-मजनू” का मंचन करने का निश्चय किया। नाटक में मेरी पत्नी ने लैला की भूमिका की और अनु कपूर ने मजनू की। यह नाटक दर्शकों में हिट हो गया और मुम्बई के पृथ्वी थिएटर में ही उसके लगभग 25-30 शोज़ हुए।
पाण्डेय जी के मुम्बई प्रवास के समय भी इस नाटक का एक शो पृथ्वी थिएटर में हुआ। हमारे अनुरोध पर उन्होंने थिएटर में यह नाटक देखा। नाटक उन्हें बहुत अच्छा लगा और उन्होंने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। पर सबसे अधिक आश्चर्य मुझे नाटक में एक विशिष्ट प्रसंग पर पाण्डेय जी की प्रतिक्रिया से हुआ। नाटक में एक जगह पर यह दर्शाया गया था कि इश्क़ की इंतिहा हो गई है और मजनू को सर्वत्र लैला ही दिखाई दे रही है। मजनू के डॉयलॉग बहुत हृदय-स्पर्शी थे। उन्हें सुन कर पाण्डेय जी भाव-विभोर हो गए। पराकाष्ठा तब हुई जब एक जगह मजनू के मुख से “अनल-हक़” निकला। वाह-वाह करते हुए अवरुद्ध कंठ से पाण्डेय जी ने मेरे कान में फुसफुसा कर कहा, “क्या बात है! जो बात इश्क़-ए-मजाज़ी से चली वह अब इश्क़-ए-हक़ीक़ी में तब्दील हो रही है।” उस समय उनकी बात का मतलब मुझे पूरी तरह से नहीं आया।
कुछ वर्ष बाद जीवन में गुरु कृपा से मेरी अपनी अंतरयात्रा शुरू हो गई। पता चला कि सूफ़ी संत शिरोमणि मंसूर मस्ताना ने साक्षात्कार के बाद भगवत्-प्रेम में उन्मत्त हो “अनल-हक़” का उद्-घोष किया था। “अनल-हक़” का तात्पर्य है – “मैं ही परम सत्य हूँ”। जहाँ अधिकतर लोगों में धारणा यह हो कि ईश्वर सातवें आसमान में है वहाँ इस वक्तव्य को स्वीकृति कहाँ मिलती। मंसूर को सिरफिरा क़रार कर सूली पर चढ़ा दिया गया था।
अब जीवन का उत्तरार्ध है। पाण्डेय जी के वक्तव्य का मर्म थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा है। हम किसी भी प्रिय व्यक्ति या वस्तु में पूर्ण प्रेम का आश्रय ढूँढ सकते हैं। इस अभ्यास से एकाग्रता बनती है। एकाग्रता दृढ़ होने लगे तो उस व्यक्ति या वस्तु पर ध्यान सिद्ध होने लगता है। तब वह हमारा प्रियतम, जो हमारे ध्यान का लक्ष्य है, इस जगत से अभिन्न हो जाता है। जगत की एक-एक लीला में वह ही दिखाई देता है। ध्यान और सघन हो सका तो ध्यान के ध्येय या लक्ष्य के पार विशुद्ध चैतन्य में प्रवेश की संभावना बनती है। ऐसा हो जाए तो अपने आप में ही निर्गुण-निराकार ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है। ईश्वर जगत से अभिन्न है, आवश्कता है अनुसंधान की। जगत के सतर्कतापूर्ण अनुसंधान से ही ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग मिलने वाला है।
निःसंदेह, पाण्डेय जी बहिर्जगत के ही नहीं अंतर्जगत के भी खोजी थे।
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अपने आप में पाण्डेय जी ईमानदारी व निष्ठापूर्ण जीवन की जीती जागती मिसाल थे। ऐसे लोगों में अपने श्रेष्ठ आचरण को ले कर अहं की निर्मिति हो जाना स्वाभाविक है। ऐसे लोग साधारणतया दूसरे लोगों को अपने चश्मे से देखते हैं और उनका रवैया बहुत आलोचना पूर्ण होता है। पाण्डेय जी की सबसे महान विशेषता यह थी कि वे ऐसे बिल्कुल न थे। जब तक कोई विपरीत साक्ष्य न हो, सबको अपने जैसा ही ईमानदार व निष्ठावान समझते थे। जिन दिनों पाण्डेय जी कानपुर में थे, एक अग्रवाल साहब वहीं पर कमिश्नर (अपील्स) के पद पर थे। एक दिन जब मैं उनके घर गया था, हम दोनों के बीच पाण्डेय जी की चर्चा होने लगी। अग्रवाल साहब ने कहा, “There is no dearth of absolutely honest fellows in our Department. In my long career, I have seen so many of them. These people suffer from a big problem. They have coloured vision and see every other person as corrupt. However, Pandeyji is unique. Here is a true saint, who not only maintains the highest standards of integrity in his personal life but is without judgment and considers everybody else to be as honest as he is.” इस घटना का ज़िक्र मैं इसलिए कर रहा हूँ कि पाठक गण यह जान लें कि पाण्डेय जी को आयकर विभाग के संत की उपाधि मैंने ही नहीं अपितु दूसरे लोगों ने भी दे रखी है।
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ए डी आई (इन्वेस्टिगेशन) के काम में हमारा साबक़ा इन्फ़ॉरमेन्ट्स से पड़ता था। अधिकतर ये लोग नकारात्मक और झगड़ालू क़िस्म के होते हैं और उनके साथ बड़ी दिक़्क़त पेश आती है। मेरा अनुभव उनके साथ अच्छा न था। ये लोग करदाताओं के विरुद्ध सूचना ले कर आते थे। अधिकतर सूचनाओं में तथ्यों का बाहुल्य कम कल्पना का ज़्यादा होता था। इसलिए अक्सर उन पर कोई फ़ौरी कार्रवाई न हो पाती थी। जैसे-जैसे समय बीतता, ये लोग धैर्य खो कर हमें धमकाने लगते या फिर हमारी झूठी शिकायतें करते। इसलिए हमारी कोशिश यही रहती कि हम पहली मुलाक़ात में ही सूचना की विश्वसनीयता परख लें और जहाँ कोई कार्रवाई न होने वाली हो वहाँ इन्फ़ॉरमेन्ट को तत्काल ना कर दें। पर तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसे मसले सामने आ जाते थे जहाँ पर उनकी बात में कुछ न कुछ तथ्य अवश्य नज़र आता था। ऐसे में इन्फ़ॉरमेन्ट को फिर आने के लिए कह दिया जाता। अब आगे चल कर हमें केस में दम न दिखाई देता तो हम उसमें कोई एक्शन न ले पाते थे। इन्फ़ॉरमेन्ट को लगता कि हम ही पीछे हट रहे हैं और वह नाराज़ हो जाता।
ऐसे ही एक इन्फ़ॉरमेन्ट मुझसे नाराज़ हो गया था। उसे लगता था कि मैं करदाता से मिल गया हूँ और इसीलिए एक वर्ष बीतने के बाद भी उसके द्वारा दी गई सूचना पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। एक दिन उसने मुझे धमकी दी कि वह मेरे ख़िलाफ़ एक लंबी-चौड़ी शिकायत पाण्डेय जी से करेगा।
दस-पंद्रह दिन बाद की बात होगी। उस दिन मैं देर तक ऑफ़िस में था। शाम के सात बजे होंगे। अचानक पाण्डेय जी का व्यक्तिगत सहायक मेरे कमरे में घुसा। उसके हाथ में उस दिन मिली डाक का फ़ोल्डर था। बड़े राज़दाराना अंदाज़ में उसने वह फ़ोल्डर मेरी मेज़ पर खोल दिया और कहा, “सर! यह देखिए।”। वहाँ, एक पत्र था। पत्र के शीर्षक से ही दिख गया कि किसी ने मेरी शिकायत की थी। मैंने शिकायत पढ़ी भी नहीं। पत्र को पलट कर देखा। शिकायत कर्ता ने अपना नाम न लिखा था। पर शिकायत पर उसके दस्तख़त अवश्य थे। उन्हें मैं पहचानता था। ये दस्तख़त उसी इन्फ़ार्मेन्ट के थे जिसने मुझे शिकायत की धमकी दी थी।
मैंने सहायक को कहा, “अब इसमें मैं क्या करूँगा? जो कुछ करना हो कमिश्नर साहब ही करेंगे।” उसने कहा, “यह कम्पलेन्ट छोड़िए। आप तो यह देखिए।” यह कहने के साथ ही उसने पन्ना पलट कर अपनी उँगली उस शिकायत पर की गई कमिश्नर की नोटिंग पर रख दी। मैंने कुतूहल वश वह नोटिंग पढ़ी। पाण्डेय जी ने अपनी साफ़ शफ़्फ़ाफ़ लिखावट में अंग्रेज़ी में लिखा था, “Seen. I know Gaur. He is my officer. The complaint is false and motivated. Filed.” नोटिंग पढ़ कर मैं अचम्भे में आ गया – पाण्डेय जी मुझ पर इतना विश्वास करते हैं! सहायक ने भी कहा, “सर, आप भाग्यशाली हैं जो कमिश्नर साहब आप पर इतना विश्वास करते हैं। मुझे आपको यही बताना था।” यह कह कर वह चला गया।
अपने कमरे के एकान्त में मैं बहुत देर चुपचाप अपने आप में कुछ गुनता रहा। पाण्डेय जी की नोटिंग उत्कृष्ट टीम लीडरशिप का नमूना थी। वे चाहते तो शिकायत को यह कह कर भी बंद कर देते कि शिकायत कर्ता का नाम-पता ठीक से न लिखा होने से आरोपों का सत्यापन संभव न था। पर उन्होंने गोल-मोल रास्ता न इख़्तियार कर सीधे-सीधे स्वयं उत्तरदायित्व लेते हुए निर्णय लिया था। उनका सहायक वह नोटिंग मुझे न दिखाता तो मुझे कभी पता भी न चलता। मेरे लिए यह एक बहुत बड़ी सीख थी।
कालान्तर में जब मैं कोल्हापुर में कमिश्नर था तो यह सीख काम आई। एक रिफ़न्ड फ़्रॉड पकड़ में आया था। ऐसे रिफ़न्ड जो करदाताओं को न मिले थे और पोस्ट से वापस आ गए थे, किसी ने धोखे से इश्यू करा लिए। बाद में फ़र्ज़ी बैन्क एकाउण्ट खोल कर ये रिफ़न्ड एन कैश करा लिए गए थे। जिस दफ़्तर में यह फ़्रॉड हुआ वहाँ का अफ़सर अच्छा था और अपना काम मनोयोग से करता था। फ़्रॉड का असली कारण था स्टाफ़ की कमी। उस अफसर के पास पास स्टाफ़ नाम मात्र को था। इस कारण रिफ़न्ड वाउचर इश्यू करने में जितनी सतर्कता बरतनी चाहिए थी, वह संभव ही न थी। एक शातिर व्यक्ति ने इसका लाभ उठा लिया था। उसके साथ कुछ अन्दर के लोग शामिल थे। पुलिस ने आवश्यक तहक़ीकात के बाद दोषियों को पकड़ भी लिया था। कहीं पर अफ़सर का नाम न आया था। मुझे भी विश्वास था कि फ़्रॉड में अफ़सर की कोई भूमिका न थी। पर, पुणे में आसीन मेरे चीफ़-कमिश्नर बार-बार तुलसीदास जी के “भय बिन प्रीत न होंहिं गुसाँई” का हवाला दे कर यह चाहते थे कि मैं रिफ़न्ड फ़्रॉड के बहाने अफ़सर को सस्पेन्ड कर दूँ। उन्होंने बहुत दबाव बनाया। मुझ पर सॉफ़्ट होने का इल्ज़ाम भी लगाते रहे। पर, मैंने उस अफ़सर पर आँच न आने दी।
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वृद्वावस्था में पाण्डेय जी के जीवन में अनेक कठिनाइयाँ आईं। उन्होंने स्थित-प्रज्ञ भाव से उनका यथोचित सामना किया। उनका देहान्त कैन्सर की व्याधि के कारण हुआ। किसी ने बताया कि अक्सर वे किसी न किसी को सस्वर भगवद्-गीता पाठ करने को कहते। गीता सुनते सुनते व्याधि जनित पीड़ा विस्मृत हो जाती। उनके कनिष्ठ सुपुत्र, राकेश, से कुछ समय पूर्व इस संस्मरणिका की चर्चा कर रहा था। पाण्डेय जी के अंतिम दिनों में राकेश ने दिन-रात पिताजी की सुश्रूषा की थी। उन्होंने बताया कि उस दौरान उन्होंने पाण्डेय जी से अपने जीवन के लिए कुछ अनुभव सिद्ध मंत्र माँगे थे। पाण्डेय जी ने उन्हें अनेक सिखावनियाँ दीं। उनमें से एक थी, “Choose your team carefully. Then, you must stand by it always.” मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब राकेश ने यह बताया कि इस सिखावनी के संदर्भ में पाण्डेय जी ने मेरा नाम ले कर कानपुर में मेरे विरुद्ध हुई उपरोक्त शिकायत पर अपने निर्णय का उल्लेख किया था।
पाण्डेय जी जैसे सत्पुरुष के महान व्यक्तित्व व कृतित्व का सही आकलन करने की शक्ति मुझ अकिंचन में कदापि नहीं। यह स्मरणिका पाठकों को उनकी बस एक झलक मात्र ही दे सकती है। पर, वह भी कल्याणकारी ही होगा। यह लिखते समय मेरे लिए पाण्डेय जी को याद करना ही पुण्य-प्रद रहा है।
श्री गुरु गीता में भगवान शिव देवी पार्वती को कहते हैं:
| स्वदेशिकस्यैव शरीर चिन्तनं भवेदनन्तस्य शिवस्य चिन्तनम् | । | |
| स्वदेशिकस्यैव च नामकीर्तनं भवेदनन्तस्य शिवस्य कीर्तनम् | ।। | |
सत्पुरुषों के शरीर का चिन्तन ही ईश्वर का चिन्तन है। सत्पुरुषों के नाम का कीर्तन ही भगवन्नाम का कीर्तन है। पाण्डेय जी जैसे सत्पुरुष के स्वरूप-चिन्तन की यह स्मरणिका लेखक व पाठक दोनों की अंतर-शुद्धि का हेतुक बने यही मेरी कामना है। सद्-गुरु शरणम्। इति।
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