Sunday, August 29, 2010

हसन साहब

बचपन से ही मैं बहुत खिलंदड़ा था। पढ़ने में मन बिल्कुल न लगता था। किसी तरह ठीक-ठाक नम्बरों से पास हो जाता था, बस। हक़ीक़त यही थी कि पढ़ाई लिखाई यूँ ही चलती थी जैसे कोई बोझा ढो रहा हूँ। लेकिन, पता नहीं क्यों, मेरे अध्यापकगण मुझ पर सदैव बहुत मेहरबान रहे। उन्होंने मुझमें जो व्यक्तिगत रुचि दिखाई, वह किसी कीमियागरी से कम न थी। उसके जादू से ही अट्ठारह-उन्नीस की वय पार करते करते मेरे भीतर अध्ययन को ले कर एक उत्साह या लगन पैदा हो गई। आगे का रास्ता अपने आप खुल गया। इन मेहरबान अध्यापकों में मेरे लिए “हसन साहब” अविस्मरणीय हैं।

इन्टरमीडिएट में मेरे विषय थे -- फ़िज़िक्स, मैथेमैटिक्स व केमिस्ट्री। पढ़ता था उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के शिब्ली नेशनल कॉलेज में। हसन अहमद ख़ान, जिन्हें हम सब “हसन साहब” कहते थे, इसी कॉलेज में इन-ऑरगैनिक केमिस्ट्री पढ़ाते थे। ओजस्वी आवाज़ के मालिक, हसन साहब एक आदर्श अध्यापक थे। इतनी तन्मयता से पढ़ाते कि पूरी क्लास मंत्र मुग्ध हो जाती। कोर्स पूरा करने के लिए अक्सर एक्सट्रा क्लास लेते। अपनी मौज में आ जाते तो सिलेबस की परवाह किये बिना, आगे का भी बहुत कुछ बता जाते। विद्यार्थी थक जाते पर वे न थकते। पढ़ाते समय उनका उत्साह देखते बनता था। उनका पूरा प्रयत्न यही रहता कि अपना सारा ज्ञान घोल कर विद्यार्थियों के कानों में उंडेल दें।

उनका यह उत्साह पढ़ाने में ही हो, ऐसा न था। हसन साहब जोश का चलता-फिरता पावरहाउस थे। वय होगी, तीस-बत्तीस की। क़द थोड़ा नाटा। गोरा-चिट्टा, सेहतमंद, गठा बदन। अंग अंग से सहज स्फ़ूर्ति टपकती थी। क्लीन-शेव्ड, स्वाभाविक मुस्कान से विभूषित दमकता चेहरा। तन पर हलके रंग के कपड़े -- अक्सर सफ़ेद या फिर क्रीम कलर की साफ़-शफ्फ़ाफ़ पतलून व शर्ट। पैरों में चमाचम चमकते जूते। चाल-ढाल में चीते जैसी चुस्ती। क्लास हो, या खेल का मैदान, या फिर कालेज का अन्य कोई कोना, हसन साहब सब जगह दिख जाते। उनका व्यक्तित्व चुम्बकीय था। लोग बरबस उनकी ओर खिंचे चले आते थे। भय किस चिड़िया का नाम है, यह तो हसन साहब जानते भी न थे। कहीं भी, किसी स्टूडेन्ट को या और किसी को भी कोई अनुचित व्यवहार करते देखते, तो तुरंत टोक देते। और, यदि वह व्यक्ति उद्दंड हुआ और बहस करने लगा, तो वह कितना भी बड़ा बदमाश क्यों न हो, उसकी शामत आ जाती। हसन साहब आव देखते न ताव, तुरंत उसकी धुनाई कर देते। हम सभी विद्यार्थियों के तो वह हीरो थे।

मैं कोई अपवाद न था। हसन साहब का व्यक्तित्व मुझे भी उतना ही आकर्षित करता था जितना और सबको। मैं कॉलेज की बैडमिन्टन टीम में था। डिबेट्स आदि में भी हिस्सा लेता था। इन गतिविधियों के चलते हसन साहब के साथ क्लास के बाहर भी काफ़ी मेल-जोल हुआ। धीरे-धीरे, न जाने कैसे और कब, हसन साहब के साथ एक गहरे नैकट्य का सूत्रपात हो गया। उसमें एक भीनी आत्मीयता थी, सभी औपचारिकताओं के परे। एक बार हसन साहब के पास हाई स्कूल की ढेरों उत्तरपुस्तिकाएँ जाँचने के लिए आईं। डाक में कुछ गड़बड़ हो गई। इससे वे देर से पहुँची थीं। अब, बहुत कम समय में ही उन्हें जाँच कर वापस करना था। हसन साहब ने मुझे विश्वास में लिया। पहले उन्होंने यह सिखाया कि हर उत्तर पर किस प्रकार नम्बर देने हैं। फिर, उन्होंने सौ पुस्तिकाएँ मुझे दे दीं और कहा कि मैं ही उनमें मार्किंग कर दूँ। मैंने पूरे मनोयोग से यह काम कर दिया। जंची-जंचाई पुस्तिकाएँ समय पर वापस हो गईं। तब से मुझे यह आभास हो गया कि हसन साहब मुझे अपना ख़ास समझते हैं।

हसन साहब मुझे बहुत अच्छे लगते। पर उनका विषय, केमिस्ट्री, मुझे बिल्कुल न भाता। मेरा बेन्ट ऑफ़ माइन्ड मैथेमेटिकल था। इसके चलते, गणित और फ़िज़िक्स में मेरी गति थी। कारण स्पष्ट था। ये विषय ऐसे थे कि इनका कोई भी पाठ एक बार अच्छी तरह पढ़ लिया, तो वह मन में अपने आप ही भली भाँति बैठ जाता था और परीक्षा में उत्तर देना सहज हो जाता था। इस मायने में, केमिस्ट्री का विषय नितान्त अलग था। यूँ तो यह विषय औरों के मुकाबले सरल था और पढ़ते समय सब कुछ समझ में आ जाता था। पर, सारा ज्ञान फ़ार्मूलों और केमिकल-रिऐक्शन्स के ईद-गिर्द था। सिर्फ़ समझ लेने से ही यह सब याद न रह पाते थे। आवश्यकता इस बात की थी कि समझ को ताक पर रख कर, सब कुछ रट लिया जाए। रटे-रटाये मसाले को हू ब हू कॉपी पर उतारा जाए तो ही सफलता गारंटीड थी।

पर, अफ़सोस ! रटन्त विद्या मेरे स्वभाव ही में न थी। इसलिए केमिस्ट्री में मैं पिछड़ जाता था। उसके परचों में मुझे अपेक्षित नम्बर न मिलते। इन-ऑरगैनिक केमिस्ट्री, जो हसन साहब पढ़ाते थे, उसमें किसी प्रकार रुचि बन गई थी। परीक्षा आने तक उसकी तैयारी तो रोते-गाते हो गई। पर, ऑरगैनिक केमिस्ट्री का वास्ता सिर्फ़ रट्टा लगाने से ही था। उसमें बात न बनी। उसके परचे में तो मुझे पास-मार्क्स से भी कम अंक मिले। नतीजतन, इन्टरमीडिएट की परीक्षा में जहाँ एक ओर फ़िज़िक्स व गणित में बहुत अच्छे नम्बर मिले, तो दूसरी ओर केमिस्ट्री में बमुश्किल-तमाम 45 अंक ही हासिल हो सके।

फ़िज़िक्स व गणित में मिले नम्बरों के चलते कुल मिला कर मैं इन्टरमीडिएट में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। अब आगे क्या पढ़ूँ ? यह एक ज्वलंत प्रश्न था। मेरा बस चलता तो विज्ञान छोड़ कर इतिहास जैसे विषय ले आर्ट्स में ग्रैजुएशन करता। पर, मेरे पिताजी का मत था कि ग्रैजुएशन तो मुझे विज्ञान में ही करना चाहिए। पिताजी की बात अंगद के पाँव से कम वज़नदार न थी। उसके आगे मेरी इच्छा की भला क्या बिसात........। आख़िरकार, तय यह हुआ कि मैं बी. एससी. ही करूँगा। यह पढ़ाई आगे शिब्ली नेशनल कॉलेज में ही होनी थी।

बी. एससी. के लिए दो विषयों -- फ़िज़िक्स और गणित -- को चुनने में कोई समस्या न थी। तीसरा विषय क्या हो ? यह चुनाव कठिन था। केमिस्ट्री ने इन्टरमीडिएट में मेरा जो हाल किया था, उसके चलते केमिस्ट्री के नाम से ही मुझे दहशत होती थी। आगे केमिस्ट्री पढ़ना ऐसा लगता जैसे कोई ख़ुद ही जाकर किसी बिगड़ैल साँड़ को यह दावत दे आए कि आ मुझे मार। मुझे पूर्ण विश्वास था, केमिस्ट्री लिया तो बी. एससी. कभी पास न हो सकूँगा।

मेरे आसपास इसके कई जीते-जागते उदाहरण भी थे। सायंस ले कर ही पढ़ेंगे और ग्रैजुएट बनेंगे, यह आग्रह लिए कितने लोग कॉलेज में आ गए थे। धैर्यवान भी थे। माँ-बाप के पैसे के बल पर कई के पास तो पंचवर्षीय योजनाएँ भी थीं। पर, उनकी बुद्धि और सायंस का मेल न बैठता था। नतीजा यह कि लाख कोशिशों के बावजूद ग्रैजुएट न बन सके थे। उनकी तमन्नाएँ, सरकारी दफ्तरों की रैक में उपेक्षित पड़ी धूल-धुलेटी बन गई फ़ाइल जैसी, बेरंग हो गई थीं। मन की मन में ही रह गई थी, डिग्री बन कर हाथ तक न पहुँच पाई थी। ऐसे लोगों को देख कर मेरा डरना स्वाभाविक था। समस्या विकट थी।

अंतत मुझे केमिस्ट्री से कन्नी काट लेने का एक रास्ता मिल ही गया। पता चला, शिब्ली नेशनल कॉलेज में बी. एससी. के विद्याथियों को मिलिटरी सायंस नाम का एक अन्य विषय भी उपलब्ध था। मैंने आव न देखा ताव केमिस्ट्री को तिलांजलि दे दी और बी. एससी. में अपना एडमिशन फ़िज़िक्स, मैथ्स व मिलिटरी सायंस के साथ वहीं शिब्ली नेशनल कॉलेज में करा लिया।

समय आने पर बी. एससी. प्रथम वर्ष की कक्षाएँ शुरू हो गईं और मैं नियमित कॉलेज जाने लगा। कॉलेज तो वही था जहाँ से मैंने इन्टरमीडिएट किया था। अतः अध्यापकगण भी वही थे। केमिस्ट्री में ख़राब नतीजा आने और केमिस्ट्री छोड़ देने के कारण मैं इस विषय के अध्यापकों से नज़रें चुराता था। पर हसन साहब से बचना मुमकिन न था। एक-आधा हफ़्ता बीता होगा कि एक दिन मैं उनके सामने पड़ ही गया। मैं बस दुआ सलाम कर बच निकलने की फ़िराक़ में था। तभी हसन साहब ने पूछा, “तुम किस सेक्शन में हो? मैंने हर सेक्शन में तुम्हें तलाश लिया, पर तुम कहीं भी दिखे नहीं?”

अब कुछ छिपाना संभव न था। मैंने केमिस्ट्री को अलविदा कहने और मिलिटरी सायंस को गले लगाने की दास्तान बिना लाग लपेट के सुना डाली। हसन साहब ने पूरी बात सुनी, पर कुछ प्रतिक्रिया न दिखाई। बोले, “तुम्हारी क्लासेज़ तो दोपहर में ढाई बजे ख़त्म हो जाती हैं। तुम चार बजे मेरे घर आना।” उस समय मुझे भी एक क्लास में जाना था। उसकी गड़बड़ में था। इसलिए, हसन साहब के सामने एक संक्षिप्त सी हामी भरी और आगे बढ़ गया।

शाम हुई। चार बजने को आए। मैं अपने घर से हसन साहब के यहाँ जाने को निकल रहा था। अचानक मन में बात उठी कि हसन साहब से मैंने यह तो पूछा ही न था कि उन्होंने मुझे अपने घर किसलिए बुलाया है। दिमाग़ दौड़ाया, तो कुछ ध्यान में आया। पंद्रह-बीस दिनों पहले हाई स्कूल आदि के लिए बोर्ड की सप्लीमेंट्री परीक्षाएँ हुई थीं। लगा कि फिर कुछ उत्तर पुस्तिकाएँ हसन साहब के पास इवैल्यूएशन के लिए आई होंगी। पुराने अनुभव की बिना पर मैंने यह भी मान लिया कि उनको फिर मेरी मदद की ज़रूरत होगी। अब मार्किंग के लिए एक अदद लाल पेंसिल तो लगने वाली ही थी। इसलिए, घर में पड़ी एक लाल पेंसिल को निकाला। ब्लेड से छील कर, उसकी नोक दुरुस्त की और उसे जेब के हवाले किया। इस तरह, अपनी समझ से, मैं ज़रूरी हरबा-हथियार से लैस हो गया था। फिर, पूरी निश्चिन्तता के साथ, मैं हसन साहब के घर की ओर बढ़ चला।

हसन साहब का घर आया। मैंने कॉल बेल दबाई। वे बाहर निकले। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर कुछ नाराज़गी का भाव उभरा। वे बोले, “शागिर्द क्या उस्ताद के पास ऐसे ही ख़ाली हाथ झाड़ते हुए जाता है?” मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरे असमंजस को भाँप कर, उन्होंने खुलासा किया, “इस तरह ख़ाली हाथ क्यों आए हो? हाथ में क़लम-कॉपी तो होनी ही चाहिए। वह कहाँ है?”

मैंने स्पष्ट किया कि मैं तो उनके पास यह समझ कर आया था कि उन्होंने मुझे उत्तर पुस्तिकाएँ जांचने के लिए बुलाया है। सबूत के तौर पर, मेरे पास जेब में पड़ी लाल पेंसिल थी ही। मैंने उसे बाहर निकाला और उन्हें दिखाया। इस पर हसन साहब हँसने लगे। हँसते हँसते बोले, “तुम्हें यहाँ कॉपी जाँचने के लिए नहीं बुलाया है। केमिस्ट्री का डर तुम्हारे दिलो-दिमाग़ पर भूत की तरह सवार है। इस भूत को भगाना है। इसलिए तुम्हें यहाँ बुलाया है।”

यह कह कर वे घर के अंदर चले गए। बाहर आए तो उनके एक हाथ में एक पुराना-धुराना सा रजिस्टर था। दूसरे हाथ में एक क़लम थी। बाहर बरामदे में एक चौकी रखी थी। हसन साहब उस पर ही बैठ गए और मुझे भी बिठा लिया। रजिस्टर का एक ब्लैंक पन्ना खोल लिया। केमिस्ट्री के मूलभूत सिद्धान्तों के विषय में धारा-प्रवाह बोलने लगे। कुछ-कुछ प्वाइंट्स उस रजिस्टर में नोट करते जाते। यह क्रम चार-पाँच घंटे चला। फिर मुझे छुट्टी मिली। साथ ही यह आदेश भी मिल गया कि अगले दिन भी उसी प्रकार उनके घर पर चार बजे फिर उपस्थित हो जाऊँ।

मैंने अपने जानते-बूझते केमिस्ट्री के साथ सभी नाते-रिश्ते काट लिए थे। इसलिए हसन साहब का केमिस्ट्री पढ़ाने का आग्रह मुझे दुराग्रह ही लग रहा था। हसन साहब के घर जाने का क्रम एक बार जो शुरू हुआ, तो चलता ही रहा। एक सप्ताह बीतने को आया...........। मैं संध्या समय घूमने-फिरने या खेलने का आदी था। शाम को हसन साहब के घर जाना हो तो मौज-मस्ती का चान्स ही न था। फिर, हसन साहब के घर पर केमिस्ट्री पढ़ना...। यह बेगार लगता था। कालेज में तो मैं मिलिटरी सायंस की क्लास में ही जाता था।

इसलिए, मुझे लगता था कि जबरन केमिस्ट्री पढ़ा कर हसन साहब बिला-वजह मेरे ऊपर ज़्यादती कर रहे हैं। उनके सामने मेरी ज़बान न खुलती। पर, घर आ कर रोज़ देर रात तक कुढ़ता और कुड़-कुड़ करता रहता। यह दुखड़ा पिताजी दो-तीन दिन चुप-चाप सुनते रहे। एक दिन बोले, “यहाँ आ कर बड़-बड़ करने से क्या होगा? तुम्हें नहीं पढ़ना है, तो बेहतर होगा कि तुम हसन साहब से साफ़-साफ़ अपने दिल की बात बता दो। कह दो कि किसी भी हाल में अब तुम्हें केमिस्ट्री नहीं पढ़नी, और छुट्टी पा लो।”

उस समय तो मैं आवेश में था। इसलिए मैंने भी ज़ोर-शोर से सहमति जताई और कहा कि बस दूसरे ही दिन हसन साहब को सब कुछ साफ़-साफ़ बोल कर मामला सलटा दूँगा। पर, जब मौक़ा आया तो चाहते हुए भी मैं यह सब न कर सका। भीतर झाँक कर देखा तो कारण स्पष्ट था। हसन साहब के लिए मेरे मन में आदर का सघन भाव था। ठीक है, उन्होंने मेरे ऊपर पढ़ाई थोपी थी, जो मुझे अनाधिकार चेष्टा सी लगती थी। पर, कहीं से यह भी पता था कि मुझमें कोई सुरख़ाब के पर नहीं जड़े हैं। हसन साहब मेरे पीछे लगे हैं क्यों कि उनके हृदय में मेरे लिए प्रेम व अपनापन है। वरना, उन्हें भला क्या ग़रज़, जो मेरे पीछे भागें और मुझ पर अपना बेशक़ीमती वक़्त ज़ाया करें। मुझे यह भी आभास था कि यदि मैं उन्हें साफ़-साफ़ ना बोल दूंगा, तो उनके इस अपनत्व को अवश्य ठेस पहुंचेगी। मैं ही ऐसा कुछ करूँ जिससे हसन साहब के दिल को चोट पहुंचे, यह ख़ुद मेरी ही निगाह में बहुत बड़ी हिमाक़त होता। इसलिए, मैंने अपने मन को ही समझा लिया। ठीक है, हसन साहब ही अपने दिल की मंशा पूरी कर लें ! सो, लगभग एक सप्ताह और यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा।

कुछ भी रटने के प्रति मेरी उदासीनता से हसन साहब भली भाँति परिचित थे। इसलिए उन्होंने ने बहुत से ऐसे नए कॉन्सेप्टस से मेरा परिचय कराया जिनमें बहुत कुछ मैथेमेटिकल था। उनको आत्मसात कर लेने पर विभिन्न तत्वों व रसायनों के गुण-धर्म आदि को समझना, उनका अंदाज़ लगा लेना, सहज होता जा रहा था। मेरे बेन्ट ऑफ़ माइन्ड के अनुरूप होने से, यह सब सीखने में मुझे रस आने लगा था। मेरी दृष्टि बदल रही थी। मैं हसन साहब की निगाह से केमिस्ट्री को देख रहा था। उसके आलोक में केमिस्ट्री की रंगत कुछ अलग ही दिखाई देने लगी थी।

आख़िरकार, हसन साहब की अनौपचारिक संध्या क्लास का अंतिम सत्र भी आ पहुंचा। उस रोज़, जब पढ़ाई ख़त्म हो गई, तब उन्होंने पूछा, “पिछले पंद्रह रोज़ से तुम्हें जो कुछ बताया है, वह कैसा लगा?” मैं कह उठा, “सर ! यह सब तो बहुत आसान है और समझने जैसा है।” उन्होंने कहा, “बरख़ुरदार ! बी. एससी. की केमिस्ट्री ऐसी ही है। तुम ख़ामख़्वाह ही डर गए थे। अब मिलिटरी सायंस छोड़ कर केमिस्ट्री ले लो। मैने तुम्हारे लिए हेड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट से बात कर रखी है। तुम कल से ही थ्योरी व प्रैक्टिकल दोनों की क्लासेज़ अटेन्ड कर सकते हो।” हसन साहब के इस स्नेहपूर्ण आमंत्रण को मैं अस्वीकार न कर सका। दूसरे दिन ही मिलिटरी सायंस छोड़ कर केमिस्ट्री में आ गया।

कहीं पर कुछ जादुई हो गया था। केमिस्ट्री में अभी भी बहुत कुछ रटन्त विद्या के भरोसे था। पर, मेरी जिज्ञासा कुछ इस प्रकार जागृत हो गई थी कि हर बात की तह में जाकर उसे आत्मसात करने की कोशिश करता। इसका जो असर हुआ, वह मेरी कल्पना से भी परे था। केमिस्ट्री में मैं अब फिसड्डी बिल्कुल न रहा, बल्कि क्लास के सबसे प्रबुद्ध क्षात्रों में से एक बन गया। रोज़ ब रोज़ केमिस्ट्री में मेरी जिज्ञासा व प्रतिभा दोनों ही निखरते गए।

बी. एससी. फ़ाइनल की परीक्षा का परिणाम एक सुखद आश्चर्य ले कर आया। दो वर्ष पूर्व, मैं केमिस्ट्री छोड़ कर भाग रहा था। अब मुझको केमिस्ट्री में फ़िज़िक्स और मैथेमैटिक्स के मुकाबले अधिक नम्बर मिले। सब विषयों के प्राप्तांक मिला कर कॉलेज में मेरा प्रथम स्थान था। हमारी युनिवर्सिटी का प्रभाव क्षेत्र बड़ा था। उससे अफ़िलिएटेड कॉलेजेज़ सात ज़िलों में थे। पूरी यूनिवर्सिटी और उससे जुड़े सभी कॉलेजों को मिला कर देखा जाता तो भी केमिस्ट्री में मुझे सर्वाधिक अंक मिले थे। इस उपलब्धि से प्रोत्साहित हो कर मैंने एम. एससी. भी केमिस्ट्री में करने का फ़ैसला लिया।

एम. एससी. के लिए गोरखपुर यूनिवर्सिटी में दाख़िला मिला। बाहर दूसरे शहर जाना था। जाने से पहले, हसन साहब को मिलने गया। वे मुझे पहली बार अपने घर के भीतर स्टडी में ले गए। वहाँ दो आल्मारियों में केमिस्ट्री की टेक्स्ट-बुक्स सिलसिलेवार लगी हुई थीं। उन्होंने उनकी ओर इशारा करते हुए कहा, “फ़र्स्ट ईयर में केमिस्ट्री की सभी ब्रान्चेज़ पढ़नी है -- फ़िज़िकल, इन-ऑरगैनिक व ऑरगैनिक। सबकी टेक्स्ट-बुक्स ख़रीदना संभव नहीं। इसलिए स्टूडेंट्स मजबूरन लाइब्रेरी का सहारा लेते हैं। इसमें दिक़्क़त यह है कि जब जो चाहो वह किताब नहीं मिलती। पर, सभी बेसिक टेक्स्ट-बुक्स मेरे पास यहाँ हैं। तुम सब ले जाओ। जैसे जैसे ज़रूरत न रहे लौटा देना।”

कहते हैं, गुरु जब देने पर आता है तो शिष्य लेते-लेते भले ही थक जाए, गुरु देते नहीं थकता। हसन साहब के माध्यम से उस दिन इस कथन की सत्यता की प्रतीति मुझे मिली। यह सर्व-विदित था कि किताबें जमा करने और पढ़ने का शौक़ हसन साहब को जुनून की हद तक है और वे अपनी किताबों के लिए बहुत पज़ेसिव हैं। पर, वे इतनी उदारता से मुझे सब कुछ दे देंगे, यह स्वप्नवत् था। मन कृतज्ञता भाव से ओत-प्रोत था। मुँह तो खुला, पर बोल न फूटे। मैंने मात्र सर हिला कर हामी भर दी। हसन साहब ने कहा, “ठीक है, जो किताब चाहे ले लो। बस एक ही शर्त है। इन्हें कवर लगा कर रखना, गंदी न होने देना। और कहीं पर पेन्सिल से भी कुछ न लिखना।”

जो मिल रहा था उसके लिए वह शर्त बहुत मामूली थी। दो बड़े-बड़े स्टील के बक्से भर कर हसन साहब की किताबें मैं अपने साथ गोरखपुर ले गया। वहाँ किताबों के मामले में, मैं अपने बैच का सबसे अमीर विद्यार्थी था। वे किताबें सामने होतीं तो लगता कि हसन साहब ही सामने हैं। कई बार उन किताबों में मैं कुछ पढ़ रहा होता तो कल्पना में हसन साहब होते। सोचता कि यदि हसन साहब ही वह सब कुछ पढ़ रहे होते तो उन्हें क्या और कैसा लग रहा होता। इस तरह, उन किताबों के माध्यम से, हसन साहब मेरे साथ एम. एससी. के दो सालों में सतत बने रहे। बाद में, पढ़ाई पूरी होने पर वे किताबें हसन साहब को वापस लौटा दीं। एम. एससी. में भी मेरा रिज़ल्ट अच्छा रहा। प्रथम श्रेणी में पास हुआ। अपने विभाग में युनीवर्सिटी में सिर्फ़ एक अंक से मेरा दूसरा स्थान आया। फिर, मुझे यूनिवर्सिटी में ही रिसर्च स्कॉलरशिप मिल गई। इस प्रकार केमिस्ट्री में ही दो साल शोध कार्य करने का अवसर मिला।

शोध कार्य पूरा न हो सका। उस के बीच में ही मैं 1974 की प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में सफल हो भारतीय राजस्व सेवा में आ गया। एक बात उल्लेखनीय है। रिसर्च में लगे होने से, मेरे पास समय का अभाव था। इस कारण प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी के लिए कुल पच्चीस-तीस दिन ही मिले थे। परीक्षा के लिए मैंने तीन विषय चुने थे – केमिस्ट्री, ब्रिटिश-हिस्ट्री व यूरोपियन-हिस्ट्री। केमिस्ट्री में एक साल पहले ही एम. एससी. किया था। पर ब्रिटिश हिस्ट्री व यूरोपियन हिस्ट्री की किसी पुस्तक को कभी हाथ भी न लगाया था। इसलिए, मेरा पूरा फ़ोकस यूरोपियन व ब्रिटिश हिस्ट्री पर था और तैयारी के सभी दिन पूरी तरह इन दोनों विषयों को ही दे दिये। केमिस्ट्री के पेपर के पहले तीन दिन का गैप था। उसमें ही कुछ-कुछ रिवीज़न कर परीक्षा दे दी। रिज़ल्ट आया तो पता चला कि हिस्ट्री के परचों में अधिक नम्बर नहीं मिले थे। हाँ, केमिस्ट्री के पेपर में, जहाँ कोई तैयारी न थी, मुझे 88% अंक मिले थे। उस वर्ष केमिस्ट्री में प्रशासनिक सेवा परीक्षा में पूरे भारत में यह सर्वाधिक अंक थे। इस प्रकार केमिस्ट्री के चलते ही मैं भारतीय राजस्व सेवा में आ सका।

कहाँ केमिस्ट्री से भागता एक भगोड़ा विद्यार्थी। कहाँ केमिस्ट्री की ही बदौलत भारतीय राजस्व सेवा में पदार्पण करने वाला एक सफल प्रतियोगी। इस रूपान्तरण के मूल में थीं हसन साहब द्वारा निःस्वार्थ रूप से मुझे दी गईं, प्रेमल ज्ञान से भरी, वे पंद्रह संध्याएँ। मेरे जीवन के सफ़र में ये संध्याएँ बहुत बड़ा मील का पत्थर हैं। केमिस्ट्री के भय की जड़ें मेरे मन में बहुत गहरी थीं। इन संध्याओं ने इस भय का निराकरण ही नहीं किया बल्कि मेरे अंदर केमिस्ट्री के लिए प्रेम व उत्साह जगाया। इस प्रकार आज जो भी हूँ उसमें प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूप से हसन साहब की कहीं न कहीं एक सशक्त उपस्थिति मेरे भीतर अवश्य है। उनसे जो मिला है, उसके लिए उनका कितना भी धन्यवाद करूँ कम ही होगा।

नौकरी में आने के बाद, हसन साहब के साथ संपर्क न रह सका। कई वर्ष बाद ही आज़मगढ़ जाना हो पाया। तभी कॉलेज जाने का भी अवसर बना। पता लगा कि केमिस्ट्री की लैब की नई ईमारत बन गई है और हसन साहब वहाँ पर हैं। लैब में जाकर देखा तो हसन साहब दूर एक कोने में कुर्सी पर बैठे किसी अन्य अध्यापक से बातें कर रहे थे। हसन साहब से रू-ब-रू हुए आठ-दस वर्ष बीत गए थे। पास पहुँचते पहुँचते, मैंने देखा कि हसन साहब कुछ-कुछ बदल गए थे। यूरोपियन स्टाइल के कपड़ों की जगह शेरवानी-पायजामे ने ले ली थी। क्लीन-शेव की जगह, मौलाना जैसी लहराती हुई दाढ़ी थी। पूरे व्यक्तित्व में वह पहले जैसी तेज़ी-तर्रारी न थी। उसकी जगह एक ठहराव सा था। हसन साहब के सामने से हर साल सैकड़ों स्टूडेन्ट्स निकल जाते होंगे। मुझे भरोसा न था कि इतने साल बाद वे मुझे पहचान सकेंगे भी कि नहीं। उनके निकट पहुंचा तो कुछ असमंजस में था - अपना परिचय देने को तैयार। अचानक उनकी नज़र मुझ पर पड़ी। मैं कुछ बोलूँ, इसके पहले वे ही उठ कर खड़े हो गए। बाहें पसार दीं और बोले, “आओ, भाई ब्रह्म प्रकाश।”

उन बाहों में समा जाने का सुख माँ की गोद में जाने के सुख से कम न था। सर्विस में आने के बाद मेरी पहचान औपचारिक हलक़ों में ‘सर’ या ‘मिस्टर गौड़’ तथा मित्रों में ‘गौड़’ या ‘बी पी’ आदि संबोधनों में सिमट कर रह गई थी। हसन साहब ने जिस प्रेम से पूरा नाम ले कर ‘ब्रह्म प्रकाश’ पुकारा उसकी बात ही कुछ और थी। बरबस मेरी आँखें नम हो आईं।

हसन साहब से बहुत ढेर सारी बातें हुईं। उन्होंने कहा कि जैसे माँ बच्चे को नहीं भूलती वैसे ही कोई टीचर अच्छे स्टूडेन्ट को कैसे भूल सकता है। मैंने उनके द्वारा लिए गए एक्सट्रा क्लासेज़ का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि तब बात और थी। क्लास में पैर रखते ही उन्हें पता चल जाता था कि कितने जोड़ी कान ज्ञान-रस पीने को उत्सुक हैं, और वे विकल हो उठते थे कि किस किस को क्या-क्या सिखा दें। उन्होने स्वीकार किया कि धीरे धीरे उनका उत्साह भी घटता जा रहा था और पढ़ाने की क्रिया में एक ख़ाना-पूर्ती का पुट आता जा रहा था। उन्होंने यह भी स्वीकारा कि समय बदल रहा था। पहले विद्यार्थियों में टीचर्स के लिए आदर का भाव होता था। वह धीरे-धीरे तिरोहित होता जा रहा था। हसन साहब से बातें करके हृदय तृप्त हो गया था। जब उनसे विदा ले कर लैब के बाहर आया तो मेरी चाल में कालेज के दिनों की सी मस्ती थी। लग रहा था कि अभी-अभी उनकी एक एक्सट्रा क्लास अटेन्ड कर बाहर आया हूँ।

थोड़े दिनों बाद मेरा तबादला मुम्बई हो गया। आठ-नौ वर्ष और निकल गए। हसन साहब से संपर्क टूट सा गया। 1989-90 में मन में अध्यात्म-साधना की ज्योति जगी और जीवन में श्री गुरु का पदार्पण हुआ। हसन साहब ने अपनी कीमियागरी से केमिस्ट्री संबंधी विषयगत ज्ञान की जोत मेरे अंदर जलाई थी। श्री गुरु ने अलग तरह की कीमियागरी की। अंतर में एक नई जोत, जो विषयों से पार ले जाने वाली थी, जला दी। अभी तक मेरी चेतना बहिर्गामी थी। बाहर के विषयों का अनुसंधान करती थी। अब उसके प्रवाह ने उलटा रास्ता पकड़ लिया। मेरी अंतरयात्रा आरंभ हो गई।

पर, यह समझ भी मिली कि विषय के परे जाने की पहली शर्त है, विषय को भली-भाँति जान लेना। जीव के जागरण की पहली सीढ़ी है -- विषयगत ज्ञान (विज्ञान); और, उसका अंतिम पड़ाव है -- निर्विषय हो शुद्ध चैतन्य में विश्रान्ति। इन दोनों स्थितियों के बीच की यात्रा ही साधना है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो मेरी साधना यात्रा के सूत्रपात में हसन साहब की एक विशिष्ट भूमिका है।

1992 की गर्मियों में हसन साहब किसी व्यक्तिगत काम से मुम्बई आए। उन्होंने मेरे एक क्लासमेट, कलाम साहब, को साथ लिया और मुझे ढूँढने निकले। मुश्किल भरी पूछ-गच्छ कर उन्होंने मेरा पता लगाया और वहाँ पहुँच गए। उन्हें देख कर मैं तो निहाल हो गया। वे दूर टिके थे। फिर भी दो-तीन दिन बार मुझसे मिलने आए। यह एक विलक्षण संयोग था। अध्यात्म के पथ पर मुझे कुछ ही वर्ष बीते थे और मैं बहुत कुछ बाँटने को आतुर था। चर्चा हुई, तो पता चला कि हसन साहब भी अपने विलक्षण ढंग से धर्म को समझने और अपनाने के प्रयास में थे। उन्होंने इस्लाम धर्म का ही नहीं, अपितु बौद्ध, ईसाई व सूफ़ी मतों का विशद अध्ययन एक वैज्ञानिक की नज़र से किया था। इसके चलते, धर्म और जीवन की एकात्मता और परस्पर उपादेयता का अनुभव उन पर स्वतः उजागर हो रहा था। यह सब जान कर उनके प्रति मेरा श्रद्धाभाव और भी घना हो गया।

मुम्बई छोड़ने की पूर्व संध्या को हसन साहब ने रात्रि का भोजन मेरे घर पर किया। यह बड़े आनन्द का अवसर था -- एक प्रीति-भोज, जिसमें हम सभी प्रेम मय हो उठे थे। जब चलने को हुए, तो हसन साहब ने मेरे बेटे को गोद में समेट कर प्यार किया। साथ ही चुपके से उसके हाथ में सौ रुपये का नोट पकड़ा दिया। बोले, “बेटा, इसकी मिठाई खा लेना।” उनके स्नेहिल स्पर्श में छिपी प्रेम की लहर बेटे के हृदय को भी छू गई। उसकी आँखें डबडबा आईं।

मैं चाह कर भी हसन साहब को यह न कह सका कि मेरे बेटे को पैसे न दें, बस उनका प्यार ही बहुत है। भीतर से मुझे यह भी लगा कि बेटे को पैसे देने के मूल में कहीं न कहीं हसन साहब का एक भाव यह भी रहा होगा कि मैं उनका स्टूडेन्ट रहा हूँ और मेरे यहाँ भोजन भी उन्हें मुफ़्त में नहीं लेना चाहिए। उनके इस भाव को चुनौती देने की सामर्थ्य मुझमें न थी।

हसन साहब को बाहर विदा कर लौटा तो घर में एक सूनापन था। जैसे कितने दिनों से रहने वाला कोई अपना चला गया हो। काफ़ी देर उनकी ही बातें होती रहीं। भाव-विह्वल बेटे की आंखें एक बार फिर भर आईं। उसकी आवाज़ में कंपन था। बाल सुलभ अंदाज़ में उसने मुझसे पूछा, “डैडी, ऐसे लोग आकर चले क्यों जाते हैं?” कोई शब्दगत उत्तर मेरे पास न था। बस, एक दीर्घ मौन था, जिसमें हसन साहब हमारे दिलों में और भी पैवस्त होते जा रहे थे।

उस पिछली मुलाक़ात को भी आज 10 वर्ष से ऊपर हो गए। अब तक हसन साहब या तो रिटायर हो गए होंगे या होने वाले होंगे। वे कहाँ हैं या कहाँ रहेंगे, यह पता नहीं। पर, कोई चिन्ता नहीं। शरीर से पास हों न हों, हसन साहब निश्चय ही मेरे बहुत क़रीब हैं। इस हृदय में जो स्थान उन्हें मिला है, वह समयातीत है। वहाँ से कभी कोई रिटायर नहीं होता।

पुनश्च:
उपरोक्त संस्मरण 2001 या 2002 में लिखा था। तब मैं बेलगाम में था। लिखते समय हसन साहब की याद बहुत शिद्दत से आई। फिर, मैंने आज़मगढ़ के आयकर कार्यालय की मदद से उनके बारे में पता किया। ज्ञात हुआ कि वे अभी भी अध्यापन कार्य कर रहे थे। उनसे मोबाइल पर बात हुई। वे बहुत प्रसन्न हुए। उनकी इजाज़त ले, मैंने उन्हें यह संस्मरण भी पोस्ट कर दिया। कुछ दिनों बाद अचानक उनका फ़ोन आया। बहुत शर्मीले अंदाज़ में उन्होंने कहा, “मियाँ! आपने मेरे बारे में क्या-क्या लिख दिया!!” मेरा उत्तर था, “सर! हीरे को अपनी क़ीमत का अंदाज़ नहीं होता।”

2004 में मेरा तबादला मुम्बई हो गया। 2005 में हसन साहब अपने बेटे के पास मुम्ब्रा आए थे। मैं उनके निवास पर गया। हसन साहब की प्रेम भरी बातों के साथ-साथ उनकी बहू के हाथ पके सुस्वादु पकवान का भोग भी मिला। दो-तीन घंटे बिता कर जब मैं वापस घर के लिए निकल रहा था तो हसन साहब ने गले लगा कर विदा दी। वह स्पर्श अभी भी मेरे इर्द- गिर्द जीवंत है।

5 comments:

  1. While reading the above, this morning, made my eyes full of tears. I have not met but I felt his presence in my subconscious mind. The God creates somebody very special and you are very fortunate to be associated with him for some time and maintain relationship even after. this is just great.. God bless everyone around....

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  2. हसन साहब निःस्वार्थ भाव से घर पर भी पढ़ाते थे, स्तुत्य।घ्राण शक्ति के अभाव के कारण केमिस्ट्री प्रैक्टिकल?जिसका ख़ामियाज़ा मुझे मिला।हाँ मैं अपने बड़े बेटे व दोस्तों को हसन साहब के यहाँ पढ़ने इण्टर में भेजा जिससे वह क्लास में हाइयेस्ट रहा। जिसके कारण आज डाक्टर है। शिक्षक दिवस की शुभकामना ।

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  3. यह लेख आपका आशीर्वाद है, जो कि शरीर को कंपित करते हुए, अश्रुओं को माध्यम बना कर, हृदय को आनंदित करता है। कोटि-कोटि नमन🙏🙏🙏

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    1. धन्यवाद, प्रिय मनोज।

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