Sunday, August 29, 2010

बाबूजी: कुछ जीवन प्रसंग

अपने पिताजी को मैं 'बाबूजी' कहता। मेरे लिए यह शब्द किसी मंत्र से कम नहीं। स्मरण मात्र से ही मन के पर्दे पर न जाने कितनी यादें जीवन्त हो उठती हैं। लगता है सब कुछ कल की ही बात है। बाबूजी से जुड़ा अतीत एक मानसरोवर है, जो अपने आपमें मोती-माणिक जैसे न जाने कितने संस्मरण संजोए हुए है। उन्हें याद करते ही अंतस में अनिर्वचनीय कृतज्ञता का समुद्र हिलोरें लेने लगता है।

मैं अपनी माँ का पेटपोंछना (अंतिम) बच्चा था। उन्होंने ने मुझे अपने गर्भ में रखा, अपनी मांस-मज्जा से मेरा शरीर गढ़ा, अपने प्राण से मुझे जीवन दिया। मैं सतवाँसा पैदा हुआ, वह भी एक जुड़वाँ बहन के साथ। बहन पैदा होते ही चल बसी। बचने की संभावना तो मेरी भी नगण्य थी। एक पड़ोसिन, जिन्हें मैं चाची कहता, बताती थीं कि मैं एकदम मरगिल्ला था, चूहे जैसा। मात्र उनकी हथेली पर ही पूरा का पूरा आ जाता। शरीर में जान न थी, न ही अंग-प्रत्यंग विकसित हो पाए थे। बदन पर चमड़ी भी नाम की ही थी। कपड़ा पहनाना भी संभव न था। बहुत दिनों तक सरसों के तेल में भिगोई रूई के फाहे में लपेट कर रखा गया।

मेरे जीवन की नाज़ुक बेल को मेरी माँ ने अपने स्तनों के दूध और प्रेम के उद्यम से सींचा। पैदाइश के बाद, दिन हफ़्ते में और हफ़्ते महीनों में बदले। तब कहीं जा कर सभी को यह विश्वास हुआ कि मैं जी जाऊँगा। काठी कमज़ोर रही। आरंभिक वर्षों में जल्दी जल्दी, और कभी अकारण ही, बीमार रहता। किन्तु, माँ की अनथक सेवा ने मुझे हर आफ़त से उबार लिया। जीवन दान के उनके इस ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता। हाँ, जब पंद्रह वर्ष का होने वाला था, तभी काल के क्रूर हाथों ने मेरी मां को मुझसे छीन लिया। तब से बाबूजी ही मेरी माँ भी बन गए। मेरी देख भाल के साथ मेरे मन-व्यक्तित्व को तराशने का कार्य बाबूजी ने किया। इस अर्थ में, उन्होंने जो कुछ दिया वह इस जन्म में ही नहीं जन्म-जन्मान्तर तक मेरे साथ रहेगा। उन्हें याद करना मेरे लिये किसी पुण्य तीर्थ में स्नान करने से कम नहीं। सधन्यवाद स्मरण की इस कड़ी में बाबूजी से जुड़े कुछ प्रसंग और व्यक्तित्व अपने आप सफेद स्याह जामा पहन इन पन्नों पर उतर आए हैं।

बाहर-बाहर से बाबूजी के व्यक्तित्व में कुछ भी असाधारण न दिखाई देता। मंझोला क़द, इकहरी काठी। गेहुंआ रंग। गंभीर व्यक्तित्व। बालों में तेज़ी से फैलती चाँदी। चमकता माथा, पैनी आँखें। गंभीरता में रुक्षता का पुट भरते थोड़ा उभरे जबड़े। जीवन की कठिनाइयों का हवाला देतीं माथे व चेहरे की लकीरें। बाबूजी का जीवन पूर्वी उत्तर प्रदेश के छोटे से अविकसित ज़िले, आज़मगढ़, के क़स्बे जैसे मुख्यालय में बीता। रहाइश, एक निम्न-मध्यमवर्गीय मुहल्ले, पाण्डेय-बाज़ार में। नौकरी, श्री कृष्ण पाठशाला इंटरमीडिएट कालेज में उप-प्रधानाचार्य की। न अधिकारों का बाहुल्य, न पैसों का। हमारे पड़ोस में कचहरी के कई पेशकार रहते थे। उन लोगों के ठाट-बाट व शान से भी बाबूजी की कोई तुलना न थी।

बाबूजी निःसंदेह सबसे अलग थे। चाल-ढाल में विश्वास भरी एक बेफ़िक्री। मूल नक्षत्र में पैदा हुए थे। शायद इसीलिए, आचरण में एक स्वाभाविक हठीलापन व उग्रता। किसी भी श्रोता को अनायास आकृष्ट कर ले, ऐसी ओज पूर्ण वाणी। यह सब उन्हें अपने आस-पास के लोगों की तुलना में अपने आप बड़ा बना देते। कितने उनसे सलाह लेते, और कितने मदद मांगते। जो संभव होता वह बाबूजी मुक्त-हस्त से दे देते। पैसों की, या और भी किसी चीज़ की, कमी उनका हाथ कभी न रोक सकी। पर इस विषय में आगे कभी।

मेरी पहली यादें बाबूजी के रोष की हैं। वे अनुशासन प्रिय, मैं चिलबिल्ला। घर में ज़्यादातर टूट फूट मेरे चलते होती। पड़ोस के हमउम्र बच्चों के हड़बोंग में भी मेरी साझेदारी निर्णायक होती। मुहल्ले के जिस चौहट्टे में पला-बढ़ा, वहाँ अपने साथियों में मैं थोड़ा बड़ा था -- एक स्वाभाविक रिंग-लीडर। यह निष्कर्ष सर्वसम्मत था। शैतानी कोई भी करे, ज़िम्मेदार गिना जाता मैं, चौहट्टे का अवांछनीय तत्व। नतीजतन, घर में कोई न कोई शिकायत बाहर से आती ही रहती। बिलानाग़ा डाँट मिलती। अक्सर एक-आधी चपत का प्रसाद गालों को मिल जाता। यह मैं सहज रूप से स्वीकार कर लेता। मुझे लगता कि मुझे मारना माँ-बाबूजी का नैसर्गिक अधिकार है, और उन्हें यह अच्छा भी लगता है। माँ की डाँट-मार का मैं आदी था। उसे कोई महत्व न देता था। हाँ, बाबूजी की बात और थी। वह कभी कभी ही मारते। ज़्यादातर उनकी वक्र होती भ्रिकुटी या ऊँची आवाज़ ही मेरे लिए काफ़ी होते।

एक दिन बात कुछ अधिक गंभीर हो गई। मेरी उम्र छः सात साल की रही होगी। छुट्टी का दिन था। सुबह का समय। घर के बाहर, किसी फेरीवाले से कुछ वादविवाद हो गया था। बाबूजी क्रोध में थे, उसका सौदा वापस करने को तत्पर। बार बार घर में अंदर-बाहर आ जा रहे थे। मैं और मेरे बड़े भाई आँगन के बीचो-बीच हैन्ड-पम्प के पास नहा रहे थे। मेरी रुचि नहाने में कम, चुहल में ज़्यादा थी। भाई अपने बदन पर साबुन लगाते कि मैं उछल कर लोटे से उन पर पानी उलीच देता। साबुन बह जाता। भाई चिड़चिड़ाते, मैं उद्दंडता से हँसता। काफ़ी देर उन्होंने मेरी शैतानी नज़र-अंदाज़ की। इससे मुझे और शह मिल गई।

अब भाई ने धमकी दी कि बाबूजी से शिकायत कर देंगे। किन्तु, मैं अपने खेल में मगन था, सुना अनसुना कर दिया। इस बार बाबूजी घर में दाख़िल हुए ही थे कि भाई ने मेरी शैतानी का ख़ुलासा कर दिया। आगे जो घटा, वह मेरे लिए सर्वथा अप्रत्याशित था। बाबूजी तीर की तरह मेरी ओर आए और एक ज़न्नाटेदार थप्पड़ मुझे रसीद कर दिया। मेरे पैरों तले धरती न रही। मैं, जैसे उड़ते हुए, आँगन के एक कोने में धम से जा गिरा। मेरे खेल में भागीदार, मेरा लोटा, ठन-ठन का शोर करते दूसरे कोने में जा पहुँचा। बाबूजी ने रुक कर भी न देखा, बाहर चले गए। भाग्य से मेरे बदन पर तनिक भी चोट न आई, मैं सही सलामत था। हाँ, मन में कहीं कठिन दंश हुआ। मैं बाबूजी से बहुत डर गया था, बिल्कुल हतप्रभ। रोया देर से, पर बिलख-बिलख कर। भाई भी सहम कर एक ओर हो गए।

उस समय बात आई गई हो गई। शाम को बाबूजी ने पास बुलाया। प्यार से कहा, 'क्यों शैतानी करते रहते हो ? देखो, मैं भी ग़ुस्से में था। आपे में न रहा। तुम्हें कहीं चोट लग जाती तो?' उनके इन शब्दों में छिपी कोमलता ने मेरे भय को कुछ हद तक अन्दर से निकाल फेंका। लेकिन, उस दिन की मार की याद मेरी शैतानियों पर अंकुश बन कर बैठ रही। शैतानियाँ कम न हुईं। हाँ, कहीं से यह पता चल गया था कि उनकी भी एक लक्ष्मण रेखा है। फिर, कभी इस बेमुरव्वत ढंग से पिटने की नौबत न आई।

थोड़ा बड़ा हुआ। माँ-बाबूजी को मेरी पढ़ाई-लिखाई की चिन्ता हुई। तब, विशेषकर हमारे ज़िले में, बाल-शिक्षा पुरातन ढंग की थी। प्ले-ग्रुप, प्रेप व माँन्टेसरी का नाम भी किसी ने सुना न था। बच्चे सीधे पहली कक्षा में जाते और रट्टू तोते जैसा भाषा और गणित सीखते। जिस परिवेश में मैं पल रहा था, वहाँ और भी दुर्गति थी। कक्षा चार और उसके आगे की पढ़ाई के लिए तो एक अच्छा स्कूल, शिब्ली नेशनल स्कूल, बिल्कुल पास में था। पर, आरंभिक शिक्षा, विशेषकर कक्षा एक से तीन तक के लिए, घर से थोड़ी दूर पर एक इकलौता म्यूनिसिपल स्कूल था। विकल्प के अभाव में, आस पास के सभी बच्चे वहीं पढ़ने जाते।

उस म्यूनिसिपल स्कूल में कुछ मध्य-कालीन विशेषताएँ थीं। बाहर क्या, भीतर से भी उसकी ईमारत ने शायद ही कभी रंगो-रोग़न देखा हो। सफ़ाई नाम मात्र को भी न थी। दीवालों पर प्लास्टर कम, बच्चों के बालों में चुपड़े तेलों का मिश्रण अधिक पता चलता। इस तैलीय मिश्रण का ही कमाल रहा होगा कि कमरे अस्तबल की भाँति गंधाते। बाड़े जैसी क्लासें थीं, जिनमें बच्चे भेड़-बकरियों जैसे धकेल दिए जाते। ज़मीन पर बिछे टाट पर बैठना पड़ता। स्लेट का भी चलन न था। लकड़ी की तख़्ती पर सरकन्डे की क़लम को दूधिया में डुबो कर सुलेख लिखना पड़ता। लिखा हुआ मिटाने का काम बच्चे अपनी-अपनी आस्तीन से करते। उस स्कूल की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वहाँ बच्चों में ज्ञान ठोक-पीट कर भरा जाता। यह अहम कार्य अध्यापकगण बहुत रुचि ले कर संपादित करते। स्कूल में टीचर की योग्यता उसकी बुद्धि से कम, उसके बाहुबल एवं शिक्षार्थियों के बीच उसके आतंक से नापी जाती।

एक दिन जायज़ा लेने के लिए मुझे उस स्कूल में भेजा गया। वहां का माहौल तो रास नहीं ही आने वाला था। ढेरों बच्चे। उनके बीच बैठते ही मेरा स्वत्व न जाने कहाँ खो गया। बात सिर्फ़ इतनी ही न थी। टीचर की आवाज़ ऐसी बुलन्द मानो बादल गरज रहे हों। डर लगता था। कभी कभी किसी चुहलबाज़ पर यह गर्जना झापड़ के रूप में बिजली बन कर भी गिर जाती। मार खा कर एक बच्चे की सू-सू निकल आई। इस घटना पर हम बच्चे आतंकित थे, किन्तु टीचर आह्लादित। जब तक वे रहे, क्लास में आने वाले तूफ़ान की सी शान्ति रही।

इंटरवल का घंटा बजा, टीचर बाहर निकले। बस, वह तूफ़ान आ बरपा। चारो ओर हाहाकार। बच्चों की आपसी मार पीट, शोर-ग़ुल और आपा-धापी ने तूफ़ान तो क्या एक सैनिक मुठभेड़ का सा समाँ बाँध दिया। जैसे गुरिल्ला छापामारों ने किसी निःशंक सैन्य दल पर घात लगा कर हमला बोला हो। एक से एक महारथी और दिग्गज अपने कारनामे दिखाने में मशगूल थे। मैं तो मुहल्ले का भी नहीं, बस अपने घर के पास के चौहट्टे का शेर था। वहाँ भला कहाँ टिकता। पीठ दिखाने में ही बहादुरी थी। भाग कर घर आ गया। फिर उस स्कूल में दोबारा नहीं गया। स्कूल के नाम से ही मन में दहशत होती।

बाबूजी ने उसी म्यूनिसिपल स्कूल के ही मास्टर, बाबू रामा सिंह, से मुझे घर पर पढ़ाने की बात की। उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके पीछे घर वालों की एक सोची-समझी चाल थी। धारणा यह थी कि यदि मैं मास्टर रामा सिंह के प्रति आश्वस्त हो गया तो शायद स्कूल जाकर उनकी क्लास में बैठने के लिए राज़ी हो जाऊँ। बाबू रामा सिंह घर आने लगे। मेरी आरंभिक शिक्षा लड़खड़ाते हुए चल निकली।

बाबू रा़मा सिंह अपने सहयोगियों में अग्रणी थे। तात्पर्य यह कि डील डौल और अक़्ल दोनों ही से अध्यापक कम पहलवान ज़्यादा थे। शायद अखाड़े में जौहर दिखाने की उनकी ललक अधूरी रह गई होगी। उसको बच्चों से ही दांव आज़मा कर पूरी कर लेते। कोई न कोई बहाना ढूँढ वे अपने पहलवानों जैसे तगड़े हाथ से एक-दो धौल जमाते। बस क्या था? बच्चा चित हो जाता। और, ताज़िन्दगी उन्हें गुरू मानता। बड़े-बड़ों को मैने बाबू रामा सिंह के सामने घिघियाते देखा था। उस समय बाबू रामा सिंह के चेहरे की घनेरी मूँछों के पीछे बहुत अर्थपूर्ण मुसकुराहट खिली होती।

मेरी माँ ने बाबू रामा सिंह को इशारों में यह ताक़ीद ज़रूर की थी कि वे मुझे नहीं मारेंगे। पर, इशारों की ज़बान बाबू रामा सिंह को भला क्यों कर समझ में आने लगी ? बात समझ में आ भी गई हो तो इतने पक्के संस्कार को बाबू रामा सिंह कब तक दबाते? एक दिन उन्होंने मुझे एक थप्पड़ लगा ही दिया। इत्तफ़ाक़न् मेरा दूध का एक दाँत गिरने को तत्पर था। उसे कोई बहाना चाहिए था। वह मिल गया। इधर गाल पर थप्पड़ पड़ा, उधर दाँत टप्प से बाहर मेज़ पर आ गिरा।

अपने थप्पड़ का यह चमत्कार देख, बाबू रामा सिंह बहुत प्रमुदित हो उठे। समुद्र मंथन में अपने उद्यम के फलस्वरूप मिले रत्नों को लेकर देवता भी इतने प्रसन्न न हुए होंगे। बाबू रामा सिंह ठठा कर हँसने लगे। उनके इस चमत्कारी करतब पर मैं भी चकित था। कुछ कुछ असमंजस में भी था। क्या प्रतिक्रिया जताऊँ? तभी मुझे अपनी नई क़मीज़ पर कुछ लाल धब्बे दिखने लगे। ज़ाहिर था, इस जबरी दंत-उत्खनन में कुछ ख़ून भी बह निकला था। अब कोई दुविधा न रही। मैने रो रो कर आसमान सर पर उठा लिया। माँ दौड़ी आई। सान्त्वना देने के लिए मुझे अंक में भर लिया। उस दिन का पाठ समाप्त हो गया था। मैं रो रहा था, और बाबू रामा सिंह कुछ कुछ बेहयाई से हँसते हुए विदा हो गए।

मुझे न पढ़ने का एक अच्छा बहाना मिल गया। बाबू रामा सिंह के नाम से ही रोने लगता। अब पढ़ाई का यह ज़रिया भी जाता रहा। अगले एक दो साल मेरी पढ़ाई घर में ही हुई। जब समय होता बाबूजी ही पढ़ाते। मेरा मन पढ़ने में न था, अतः कभी कभी पढ़ाई का सत्र पिटाई के सत्र में तब्दील हो जाता। यह मुझे स्वीकार्य था। उस म्यूनिसिपल स्कूल में दोबारा जाना, हरगिज़ नहीं।

मेरे स्कूल न जाने से सबसे बड़ी परेशानी मेरी मां को थी। उन्हें मेरी शैतानियाँ जो झेलनी पड़ती। उनके पीठ फेरते ही क्या कर बैठूँ यह डर हमेशा लगा रहता। पूरे दिन निगरानी रखनी पड़ती। वे बार-बार मेरी तुलना मुझसे बड़े दोनों भाइयों से करती। कहती, दोनों फ़रिश्ते थे। वाक़ई, दोनों में से किसी ने उन्हें मेरे जैसा नाच न नचवाया था। आजिज़ आ कर, वे बार बार बाबूजी को उकसाती कि किसी न किसी तरह वे मुझे स्कूल भेज ही दें। मुझसे पहले से ही त्रस्त, पड़ोस के अन्य अभिभावक गण भी मेरी शिक्षा को ले कर बहुत चिन्ता में रहते। प्रकारान्तर से माँ-बाबूजी को गाहे-बगाहे यह संकेत देने में न चूकते कि शायद मैं अनपढ़ ही रह जाऊँ।

न जाने क्यों बाबूजी ने किसी की बात न मानी, और मुझे उस म्यूनिसिपल स्कूल में फिर नहीं भेजा। अंतत जब मैं नौ वर्ष का रहा हूँगा, तब मेरा दाख़िला उन्होंने ने पास के शिब्ली नेशनल स्कूल में सीधे चौथी जमात में करवा दिया। जैसा मैंने पहले कहा, यहाँ पर क्लासों की शुरुआत ही दर्जा चार से थी। फिर, इस स्कूल में डेस्क व कुर्सियाँ थे। बच्चों को टाट पर नहीं बैठना होता था। मेरे लिए यह बड़े गौरव की बात थी। हाँ, स्कूल के प्रति मन में बैठा डर आसानी से न गया। स्कूल जाने की आदत डालने में मुझे समय लगा। शुरू के कुछ दिन बाबूजी मेरे साथ ही स्कूल जाते और क्लास के बाहर आस पास ही बने रहते। थोड़ी-थोड़ी देर बाद उन्हें देख कर मैं आश्वस्त हो लेता। धीरे-धीरे मैं अपने अध्यापकों एवं सहपाठियों से घुल मिल गया। तब, स्कूल जाना अच्छा लगने लगा।

आज पीछे देख सकता हूँ। मुझे स्कूल देर से भेजने के बाबूजी के निर्णय के पीछे अंतर्प्रज्ञा की झलक दिखाई देती है। फ़ैक्टरी-नुमा म्यूनिसिपल स्कूल की निरंकुश आपाधापी से मैं डरता था। इस डर का निराकरण ज़रूरी था। जब तक मैं अपने इस भय से निपटने में सक्षम न होता, ज़बरदस्ती स्कूल भेजा जाना मेरे भय को और प्रगाढ़ कर देता। कक्षा एक-दो की ही बात न थी, आगे की पढ़ाई पर भी बहुत खराब असर पड़ता।

बाबूजी की पारखी नज़रें यह सब देख रही होंगी, तभी तो उन्होंने जान बूझ कर सबके विरोध के बाद भी मुझे इतने दिनों तक बल पूर्वक स्कूल की ओर नहीं धकेला। अवश्य ही, उन्हें मेरी क्षमता में भी कुछ विश्वास तो रहा होगा। जहाँ तक इसका सवाल है, मैंने भी उनके विश्वास की लाज रखी। कुछ ही दिनों में कक्षा में मेरी धाक जम गई। मैं अच्छे नम्बरों से पास हुआ। थोड़े बहुत उतार चढ़ाव के साथ, यह क्रम पूरे शिक्षा-काल में बना रहा।

बाबूजी नियमित अध्ययन पर बहुत बल देते। मुझ जैसे चंचल वृत्ति के विद्यार्थी को यह तनिक न सुहाता था। लेकिन, इस मायने में बाबूजी बिल्कुल तानाशाह थे, मेरी कुछ भी न चलने देते। मैं उनके आदेश से बँधा था। उसके तहत कैसे भी मन मार कर रोज़ कुछ घंटे बैठना ही पड़ता। पढ़ाई के प्रति सहज लगाव का आविर्भाव मेरे अन्दर अट्ठा रह वर्ष की आयु में हुआ। तब तक की सारी पढ़ाई बस इस लिए की, कि बाबूजी की डाँट से बचा रहूँ। अब लगता है कि उनकी डाँट में कितना बड़ा प्रसाद था, जिसने अंतत मेरे जैसे अस्थिर प्राणी को भी एक स्थान पर बैठ एकाग्र भाव से कुछ करना सिखा दिया।

मैं बड़ा हो गया था, सोलह-सत्रह का रहा हूँगा। उन दिनों, मुझ पर हिन्दी के सस्ते जासूसी उपन्यास पढ़ने का एक जुनून तारी था। कहीं न कहीं से एक नित्य एक उपन्यास ले आना और उसे पढ़ डालना, इसका नशा सा था। जब तक एक उपन्यास न पढूँ, कुछ सूना-सूना सा लगता। इसके चलते पढ़ाई का भी बहुत नुकसान होता, पर मुझे कहाँ परवाह। बाबूजी ने कई बार आगाह किया। मैं जान कर भी अनजान बना रहा। इन्टरमीडिएट बोर्ड की परीक्षा सर पर थी। तभी एक नया उपन्यास हाथ आया। उसे कुछ घंटों में ही वापस देना था।

मैं परीक्षा की तैयारी के लिए पढ़ने के बहाने घर की छत पर गया। फ़िज़िक्स की किताब के बीच उपन्यास छिपा, बड़े मनोयोग से उसे पढ़ने लगा। उसमें ऐसा खोया कि कुछ भी आहट नहीं मिली कि कब बाबूजी ऊपर आए और कब मेरी चोरी पकड़ी गई। बाबूजी का क्रोधित होना स्वाभाविक था। वे मुझे ज़ोर-ज़ोर से डाँटने लगे। उनका पारा चढ़ता जा रहा था।

अचानक, क्रोध के अतिरेक में उनका हाथ ऊपर उठा। वह मेरे किसी अंग पर गिरे इसके पहले ही बाबूजी ने उसे रोक लिया। बोले, 'तुम अब छोटे नहीं रहे, मुझे तुम पर हाथ उठाने का कोई अधिकार नहीं। अबसे मैं तुम्हारा मित्र हूँ। ईमानदारी से अपनी राय दूँगा, बस। तुम उसे मानो न मानो, यह तुम्हारी इच्छा।'

कुछ क्षण बाद उन्होंने कहा, 'जासूसी किताबों के लिए क्यों दीवाने हो ? यह तो intellectual prostitution है। बुद्धि तुम्हें ईश्वर से उपहार में मिली है। इसका इस्तेमाल कुछ अच्छा पढ़ने-सीखने के लिए करो। देखो, यह बुद्धि कुछ कुछ स्त्री जैसी है। शील की सीमा में हो, तो बेटी, बहन, पत्नी, माँ, हर रूप में पूज्य! शील के बंधन लाँघ बहक जाए तो मात्र वासना पूर्ति का साधन, समाज का एक ग़लीज अंग!! अब अपनी बुद्धि का तुम क्या उपयोग करते हो, उसे कहाँ पहुँचाते हो, यह तुम पर है।' इन शब्दों में न जाने कैसी आग थी। लगता था मेरे कानों में किसीने पिघला सीसा डाल दिया हो।

बाबूजी कह रहे थे, 'मुझे ज़रा भी तकलीफ़ न होती अगर तुम बिल्कुल जड़ होते, कुछ सोच समझ न सकते। अफ़सोस इस बात का है कि तुममें बुद्धि है, और तुम उससे वेश्यावृत्ति करवा रहे हो। तुम शायद सोचते हो कि तुम्हें डाँटने में मेरा कोई स्वार्थ है। पर, ऐसा नहीं। मेरा कोई निजी स्वार्थ नहीं है। अच्छा या बुरा, तुम जो भी करोगे उसका क्रेडिट या डिसक्रेडिट मुझे नहीं मिलने वाला। उसके लिए ख़ुद अपने सामने, समाज के सामने, तुम स्वयं ज़िम्मेदार हो।'

अपनी बात पूरी कर, बाबूजी मेरे सामने से हट गए। उनके शब्दों ने मेरे हृदय को कहीं बहुत गहरे छू लिया था। अपराधी भाव से मेरा सिर अपने ही आगे झुका जा रहा था। अज्ञानतावश मैं चोरी को ही अपनी बहादुरी समझ कर इतराता था। अब ग़लती का अहसास हुआ। अपने आप पर इतनी शर्मिन्दगी कभी न हुई थी। मेरे पाँव मुझे छत की मुँडेर तक गए। अनायास ही मैंने हाथ का उपन्यास दूर कूड़े के ढेर में फेंक दिया। परीक्षा की तैयारी में पूर्ण संकल्प से जुट गया।

ऐसा भी नहीं कि सस्ता साहित्य पढ़ने की मेरी वृत्ति झट से चली गई। कुछ दिनों तक मन की लालसा कभी कभी अवश्य जोर मारती। पर बाबूजी द्वारा प्रयुक्त intellectual prostitution की उपमा मेरी ढाल रही। उसके संरक्षण में मेरी इच्छा तप्त तवे पर पड़ी पानी की बूँद की तरह तुरंत उड़ जाती। बाद में इच्छा ही न रही। वह दिन और आज का दिन, मैंने कोई और जासूसी किताब फिर न पढ़ी। मैं अपनी मनःशक्ति के अनावश्यक अपव्यय के जघन्य अपराध से बच गया।

इस घटना का मेरे मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। मैने बाबूजी को सिर्फ़ एक तानाशाह पिता के रूप में देखा था। पर अब वे मेरे लिए एक सुहृद मित्र जैसे हो गए। मेरे बदलाव को बाबूजी ने सहज में पढ़ लिया, और अपने आप को मुझे और अधिक उपलब्ध बनाते गए।

मातृ भाषा हिन्दी में मेरी अच्छी गति थी। हाँ अँग्रेज़ी में मैं बिल्कुल पैदल था। अँग्रेज़ी में अपने से कुछ लिख पाना तो दूर, पढ़ना भी मुश्किल था। घर में इतिहास, दर्शन व साहित्य संबंधी बहुत सी पुस्तकें अँग्रेज़ी में थीं। उन्हें पढ़ सकूँ, ऐसी मेरी आकांक्षा थी। पर, मेरे पास अँग्रेज़ी का कार्यसाधक ज्ञान भी न था। इस दिशा में किसी प्रगति की उम्मीद भी न थी। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था। भाषा का ज्ञान अनावश्यक सा माना जाता। ऊपर से, अँग्रेज़ी हटाओ आन्दोलन का बोलबाला था। हमारे पाठ्यक्रम में अँग्रेज़ी का विषय तो था, किन्तु अतिरिक्त ऐच्छिक (additional optional)। पढ़ो न पढ़ो, रिज़ल्ट पर कोई असर न होता। अतः स्कूल में ठीक से अँग्रेज़ी सीख पाने का प्रश्न ही न था।

उन दिनों घर में मैं और बाबूजी, हम दो ही थे। बाबूजी रिटायर हो गए थे, उनके पास समय ही समय था। कमज़ोर हो रही आँखों के बहाने वे जान बूझ कर मुझे अँग्रेज़ी का अख़बार पढ़ कर सुनाने को कहते। ख़बरों के बाद सम्पादकीय पढ़वाते। देश विदेश की गतिविधियों में मेरी रुचि अवश्य थी, हिन्दी समाचार पत्र अनेक वर्षों से नियमित पढ़ता रहा था। पर, मेरा अँग्रेज़ी का शब्द ज्ञान इतना सीमित था कि अँग्रेज़ी अख़बार का हर वाक्य ही दुरूह लगता। कभी कभी मैं धैर्य खो देता। किन्तु, बाबूजी नहीं। वे बहुत सहज भाव से सभी नए शब्दों के अर्थ बताते चलते। इस प्रकार मेरा अँग्रेज़ी का ज्ञान बढ़ता गया। धीरे-धीरे मैं अँग्रेज़ी के समाचार पत्र पढ़ने-समझने के लायक़ हो गया।

अभी तक मैंने हिन्दी के स्थानीय क़िस्म के समाचार पत्र पढ़े थे। उनमें कुछ विशिष्ट प्रकार की ख़बरों पर ही बल होता। मसलन, गाँजा भाँग बरामद, सेंध मार कर लाखों की चोरी, फ़लाँ की लड़की फ़लाँ के साथ फ़रार, अमुक ने अमुक पर फरसे से हमला किया। अँग्रेज़ी के स्तरीय समाचार पत्र पढ़ने से मुझे पत्रकारिता के नए आयामों व समाचार पत्रों की हमारे जीवन में उपादेयता का पता चला।

सम्पादकीय पढ़ने से सामयिक घटनाओं को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य मिलता था। वह समय उथलपुथल का था। साठ के दशक ने चिर निद्रा में आँखें मींची थीं। सत्तर का दशक शैशव की अंगड़ाई ले रहा था। सर्वत्र एक नवीन ध्रुवीकरण था। रोज़ कुछ न कुछ नया घटता। ग़रीबी हटाओ का नारा। बैंकों का राष्ट्रीयकरण। प्रिवी-पर्सों का निरस्तीकरण। आम चुनावों में इंडिकेट-सिन्डिकेट की राजनीति। टुइयाँ से इज़रायल द्वारा अरब देशों के सम्मिलित सैन्य बल को शिकस्त। पुराने पूर्व पाकिस्तान में पश्चिम के शासकों का दिल दहलाने वाला दमन। भारत में शरणार्थियों का ताँता। स्वतंत्रता की माँग पर सब कुछ निछावर करते बंगलादेशी। विश्व-शान्ति, स्वतंत्रता एवं सुरक्षा के नाम पर शीत युद्ध में जूझती महा-शक्तियाँ। पर, उन्हीं के दोमुँहेपन के सबूत - वियतनाम और चेकोस्लोवाकिया। इतिहास बन रहा था। समाचार पत्रों के माध्यम से मैं यह देख रहा था। मंत्र मुग्ध।

बाबूजी इतिहास के अध्यापक थे। उन्होंने ने अपने विषय को आत्म सात् कर रखा था। कुछ भी घटे, वह घटना में लिप्त न होते। पूर्ण निरपेक्षता से उसके कारणों व आने वाले समय में उसके दूर-गामी प्रभावों की व्याख्या करते। इससे मुझे भी धर्म-जाति-संप्रदाय-गत पूर्वाग्रहों से मुक्त विस्तृत दृष्टिकोण अवश्य मिला। बाबूजी को अँग्रेज़ी का अख़बार पढ़ कर सुनाने व ख़बरों पर चर्चा करने का मेरा यह अभ्यास लगभग दो वर्ष तक चला। मैं बी. एससी. की पढ़ाई कर रहा था। जीवन का निर्माण काल था। मेरे स्नातक बनते न बनते बाबूजी भी नहीं रहे। पर, इस दौरान उन्होंने अँग्रेज़ी के प्रति मेरे भय का निवारण कर दिया। साथ ही, मुझे व्यक्तियों व घटनाओं को निरपेक्ष ढंग से परखने की दृष्टि भी दी। कालान्तर में, इसका बहुत अधिक लाभ मुझे सेन्ट्रल सर्विसेज़ की लिखित परीक्षा व इन्टरव्यू में मिला।

मैं हिन्दी साहित्य, विशेषकर उपन्यास एवं कथाएँ, बहुत पढ़ता था। जो भी पढ़ता उसकी चर्चा बाबूजी से भी अवश्य करता। वे उस दौर के थे जब उर्दू-फ़ारसी व अँग्रेज़ी का बोलबाला था। हिन्दी साहित्य में उनका अध्ययन मुंशी प्रेमचंद की उर्दू कहानियों तक ही सीमित था। अतः बहुत कम साहित्यिक सामग्री ऐसी थी, जो हम दोनों ने पढ़ी होती और जिस पर हमारे बीच चर्चा हो सकती। बाबूजी अक्सर सलाह देते कि मैं कुछ मौलिक या अनूदित साहित्य अँग्रेज़ी में भी पढ़ूँ। अँग्रेज़ी के अख़बार की सीधी-साधी भाषा पढ़-समझ लेना और बात थी। अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ूँ, यह टेढ़ी खीर लगता। यह अनधिकार चेष्टा मैं नहीं करना चाहता था।
तभी मैंने हिन्दी का बहुचर्चित उपन्यास 'चित्रलेखा' पढ़ा। इसका कथानक हृदय ग्राही था। यह सीख भी देता था। कि अच्छे व बुरे की परिभाषा हर व्यक्ति के लिए उसकी परिस्थितियाँ और परिवेश निर्धारित करते हैं। अभी तक, मैने अच्छाई और बुराई के निश्चित मानदंड बना रखे थे। अब कम से कम बौद्धिक रूप से यह मानने को विवश हो गया कि बदलाव की शक्तियाँ सामाजिक परिभाषाओं एवं मूल्यों को बदल डालती हैं। फिर भी, कहीं न कहीं बात गले से नीचे न उतरती थी। अतएव मैं बार बार बाबूजी से शाश्वत जीवन मूल्यों की चर्चा करता।

एक दिन बाबूजी ने कहा, ‘We all seek and wish to attain goodness. But, no one really knows what goodness actually is. The definitions change with time. So, why get caught up in finding out goodness. The easy way out is to just avoid being bad.' बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि उनका अनुभव यह था कि यदि कोई उपन्यास कहानियों में भी classics को पढ़े तो उसे ऐसी अंतर्दृष्टि मिल जाएगी कि वह जीवन में बुरा होने से बच जाएगा। उन्होंने वादा किया कि अगर मैं हिम्मत करके पढ़ना शुरू कर दूँ तो वे मुझे अँग्रेज़ी की या अँग्रेज़ी में अनूदित दस चुनिन्दा classics एक के बाद एक बताएंगे।

बुरा होने से बच सकूँगा, यह प्रलोभन काफी था। मैंने हाँ कर दी। पहली किताब जो मैंने पढ़ी वह थी A Tale of Two Cities। कहना न होगा कि यह पुस्तक पढ़ना मेरे लिए एक विकट समस्या थी। सीमित शब्द ज्ञान बार बार हतोत्साहित करता। पर, फ्रान्स की राज्य क्रान्ति की पृष्ठभूमि वाले इस उपन्यास की कथा ने मुझे बाँध लिया था। मैं लगा रहा और पुरी पुस्तक पढ़ गया। इसी क्रम में मैंने Les Miserables, David Copperfield, Henry Esmond, Vanity Fair आदि पुस्तकें पढ़ीं। ये कुतियाँ अपने समय का दर्पण थीं। उन्हें पढ़ कर मुझे भाषा और भाव दोनों की शक्ति का पता लगा।

पहली दो पुस्तकें, A Tele of Two Cities और Les Misearables, तो मेरे लिए वरदान साबित हुईं। उनके मुख्य पात्र Sidney Carton तथा Jean Val Jean मेरे मन पर अमिट रूप से अंकित हो गए। बाहर से दोनों के जीवन में कुछ भी श्रेय न था। एक शराब में डूबा बिना मुक़दमे का वकील, दूसरा एक सज़ायाफ़्ता चोर। पर, दोनों की कथा बरबस उनके प्रति सहानुभूति जगा देती। उन्हें समाज में प्रतिष्ठा या सम्मान नहीं मिले। लेकिन, अपने अपने व्यक्तिगत जीवन में दोनों ने ही महानतम आदर्शों को जिया। दोनों त्याग और निःस्वार्थ प्रेम की गरिमा के प्रतीक थे। मैं जीवन की सफलता को सामाजिक स्वीकृति के पैमाने से नापता था। इन चरित्रों ने मेरा मानदंड बदल दिया।

किन्हीं अर्थों में बाबूजी को भी मैं एक असफल भगोड़ा मानता था। तीस के दशक के आरंभ में वे काँग्रेस के सक्रिय वर्कर रहे थे। आजीविका का अलग से कोई साधन न था। अतः अपनी सेवाओं के बदले इतना पारिश्रमिक ले लेते कि भीख न माँगनी पड़े। एम. ए. पास थे। उस समय यह बड़ी बात थी। अतः आरंभ में कुछ अर्से तक उन्होंने काँग्रेस में नेहरू जी के सेक्रेटरी की हैसियत से काम किया। यह अलभ्य अवसर था। उन्हें बड़े-बड़े लीडरान को क़रीब से देखने-सुनने का मौक़ा मिला। विशेषकर जवाहरलाल जी का तो रोज़ का साथ था। कमला नेहरू की मृत्यु हाल में ही हुई थी। बाबूजी ने बहुत निकट से देखा कि किस प्रकार युवा जवाहरलाल ने अपने आप को मन, वचन और कर्म से पूर्णतया बापू के आन्दोलन में होम कर दिया।

भारत-छोड़ो आन्दोलन के चलते नेहरू जी को जेल हो गई। तब बाबूजी को कुछ गोपनीय प्रचार कार्य के लिए पार्टी ने मुम्बई भेज दिया। वहाँ पर उन्होंने कुछ वर्ष काम किया। काम में जोखिम था। पुलिस पीछे लगी रहती। पास में पार्टी की प्रचार सामग्री और छपाई का सामान आदि रहते। इन्हें और अपने आप, दोनों को बचाना आवश्यक था। इसलिए ख़ानाबदोश जैसा भागते रहते। एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने। मुम्बई उन दिनों भी सबसे महँगा शहर था। काँग्रेस की तनख़्वाह से दो जून की रोटी भी ठीक से न मयस्सर होती। इसीमें एक बार एक वरिष्ठ कार्यकर्ता से किसी बात पर कुछ कहासुनी और मनमुटाव हो गया। उन्होंने जवाब तलब किया। इस पर बाबूजी ने त्यागपत्र दे दिया। फिर कभी काँग्रेस के किसी भी सहयोगी या लीडर के पास न गए। उन दिनों आज़मगढ़ गँवई-गाँव जैसा ही था। वहीं पर छोटे से स्कूल, श्री कृष्ण पाठशाला में अध्यापक की नौकरी कर ली।

अंततः देश आज़ाद हुआ। स्वतंत्रता सेनानियों को ताम्रपत्र बंटे, पेन्शनें मुक़र्रर हुईं। लेकिन, बाबूजी ने कभी किसी को सम्पर्क कर अपना पुराना परिचय न दिया। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय की उनकी गतिविधियों के बारे में कोई कुछ पूछता तो वे कुछ न बोलते, बड़ी सफ़ाई से हँस कर टाल जाते। मैं मन ही मन सोचता था कि सब अपनी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ा कर बताते हैं पर एक हमारे बाबूजी हैं कि भगोड़े जैसी चुप्पी साधे बैठे रहते हैं।

जब कुछ परिपक्वता आई, मेरी दृष्टि बदली। तब मैंने अपने पिता को एक नए परिप्रेक्ष्य में देखा। उन्होंने काँग्रेस का कार्य एक पेशेवर सिपाही की तरह किया और फिर छोड़ भी दिया। यदि उन्होंने कोई त्याग किया था तो ख़ुशी ख़ुशी, स्वेच्छा से। सब कुछ देश के लिए था। यही अपने आप में उसका पुरस्कार भी था। बाद में उस कार्य की कोई सनद बनवा लेना या उसे नोट की तरह भुनाना मेरे स्वाभिमानी पिता को पसंद न था। अब मेरे बाबूजी का रुतबा मेरी निगाह में और भी ऊँचा हो गया।

मैने पहले भी बाबूजी के दान वीर होने की बात कही है। मैने देखा उनकी मदद तो सभी करते हैं जिनसे बदले में कुछ वापस हासिल होने की उम्मीद हो। बाबूजी की बात कुछ अलग थी। वे उनकी मदद करते जिनसे बदले में कुछ भी पाने का इमकान दूर दूर तक न होता। कभी कभी तो हमें बहुत बाद में पता चलता कि बाबूजी ने किसे क्या दिया। वैसे तो, बाबूजी की तनख़्वाह कुल तीन सौ रुपये माहवार ही थी। हमारा अपना खर्च ही मुश्किल से चलता। कोई बड़ा दान धर्म न हो सकता था। पर, बाबूजी को परवाह न थी। जब जिसको जो मन में आया दे दिया।

हमारा बरतन माँजने वाली नौकरानी बहुत सालों से हमारे यहाँ काम करती थी। बरसात के दिन थे। एक दिन वह रोते हुए बाबूजी के पास आई। उसके घर की छत गिर गई थी। उसने नया खपरैल डालने के लिए तीन-चार सौ रुपये यह कह कर माँगे कि उसके बच्चे बारिश में भीग रहे हैं। बाबूजी के पास एक मुश्त इतने पैसे कहाँ! पर, उन्होंने हाँ कर दिया। अगले ही दिन, रुपयों का इन्तज़ाम प्रॉविडेन्ट फ़न्ड से क़र्ज़ निकाल कर किया। नौकरानी को रुपये मिल गए। तनख़्वाह में से क़र्ज़ की कटौती भी होने लगी। बाद में माँ को पता चला। वह बहुत कुपित हुईं। नौकरानी की छत बन गई थी। घर की कलह से हमारी छत गिरते गिरते बची। पर, बाबूजी ने ध्यान न दिया।

एक घटना एक पड़ोसी परिवार से संबंधित है। पर, पहले उस परिवार के बारे में बताना आवश्यक है। हमारे पड़ोस में एक फ्रीलाँस टाइपिस्ट थे। उनको सभी टाइप बाबू कहते। टाइप बाबू स्थानीय कचहरी में एक कुर्सी मेज़ लगा कर बैठते और जो भी टाइपिंग का काम करवाता कर देते। उसके मेहनताने से आजीविका चलती। उनके परिवार से हमारा निकट का संबंध था। आपस में बहुत आना जाना होता। टाइप बाबू में बहुत सी अच्छाइयाँ थीं। हम बच्चों को वे इसलिए बहुत अच्छे लगते क्यों कि पूरे मुहल्ले में एक वे ही थे जो आए दिन किसी न किसी आते जाते ख़ोमचेवाले को रोक कर हम सबको कुछ न कुछ खिलाते पिलाते रहते।

पर, टाइप बाबू में एक बड़ा अवगुण था। वह भी इतना प्रबल कि उनकी सब अच्छाइयों पर भारी पड़ता। उन्हें ठर्रा पीने की लत थी। जो भी रोज़ की कमाई होती उसका एक बड़ा हिस्सा शराब बन कर उनके पेट में समा जाता। पीने की कोई सीमा न थी। कम से कम एक बोतल रोज़ लगती। जिस दिन अच्छी कमाई होती, दो बोतल ले आते। शरीर जर्जर हो रहा था। उँगलियाँ कांपने लगी थीं। टाइपिंग का काम भी ठीक से न कर सकें, यह नौबत जल्द आने वाली थी।

सुबह सुबह टाइप बाबू नशे में न होते । तब वे अक्सर बाबूजी के पास बैठते। गाहे बगाहे, अपना रोना रोते। कभी कभी बाबूजी उन्हें शराब कम करने की सलाह देते। उस समय तो वे सहमति में इस प्रकार सिर हिलाते जैसे बस अब अंधाधुन्ध शराब पीने पर अंकुश लगने ही वाला है। पर, ऐसा न होता। ज्यों ही सूरज अस्ताचल का रुख़ करता, लत से बंधे टाइप बाबू बोतल-गिलास निकाल कर बैठ जाते। शराब जैसे जैसे पेट में उतरती उनका व्यवहार आदमी से जानवर का सा होने लगता, नर से नराधम हो जाते। चेहरा विकृत होने लगता। नशे में किसी पर भी चीखना-चिल्लाना, अपनी पत्नी व बच्चों को मारना, यह रोज़ की बात थी। कुछ पड़ोसी टाइप बाबू की इन हरकतों पर हँसते। हमें तो रोना आता था, ईश्वर से कितनी बार मन ही मन कहा होगा कि उन्हें सद् बुद्धि दे।

टाइप बाबू का जीवन और शराब का व्यसन आपस में ऐसे ख़िल्त-मिल्त हो गए थे कि एक को दूसरे से अलग कर देखना संभव न था। हमारे लिए, दोनों की ही परिसमाप्ति सर्वथा अनपेक्षित ढंग से हुई। इलेक्शन की तातील थी। कचहरी बंद थी। टाइप बाबू के हाथ में कुछ काम न था। इस कारण पीने का जुगाड़ भी ठीक से नहीं बन पा रहा था। पास के क़स्बे में टाइप बाबू के एक पैसेवाले मित्र का देशी शराब का ठेका था। वहाँ जाने पर अच्छी ख़ातिर-तवाज़ो होती। इसमें शराब की मनचाही ख़ुराक़ भी शामिल थी।

अतः टाइप बाबू ने मित्र के यहाँ जाने का निश्चय किया। घर से यह कह कर गए कि चार पाँच दिनों में कचहरी खुलने तक वापस आ जाएँगे। वापस आने की मियाद से कई दिन ऊपर हो गए। टाइप बाबू का पता न था। पूछ ताछ की गई। ठेके वाले मित्र ने साफ़ इनकार कर दिया कि वे उसके पास गए भी थे। बहुत दिन इस आस में कटे कि शायद कहीं और चले गए हों, इधर उधर भटक कर वापस आ जाएँ। पर, टाइप बाबू न लौटे। न ही उनका कहीं पता चला। उनकी पत्नी व बेटे तड़प तड़प कर रह गए।

टाइप बाबू के अपने सगे संबंधियों में अधिकतर लोग आर्थिक रूप से बहुत सक्षम न थे। बस, एक एकलौते साले साहब थे, जिनकी बात कुछ अलग थी। बड़ी खेती बाड़ी थी। शायद किसी राजा के दीवान भी थे। कोई आल-औलाद न थी। शक्ल-सूरत व अकड़ से भी काफ़ी मालदार लगते। टाइप बाबू की गुमशुदगी में उनके परिवार के पालन पोषण का दायित्व उन्होंने ने ही उठाया। यह दायित्व उन्हें भी भार जैसा ही लगा होगा ऐसा मेरा अनुमान है। सिर्फ़ एक बार को छोड़ कर, वे साले साहब कभी दोबारा अपनी ग़रीब बहन के पास उसका व उसके बच्चों का हाल पूछने व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं आए। हाँ, हर दूसरे-चौथे महीने कुछ न कुछ रुपये वे जरूर भेजते रहे। यह मदद खर्च के लिए पर्याप्त थी या नहीं, कह नहीं सकता। इतना अवश्य था कि येन-केन-प्रकारेण टाइप बाबू के परिवार का खर्च चल जाता।

टाइप बाबू की पत्नी, जिन्हें मैं पड़ोस के रिश्ते से चाची, और अन्य लोग टइपाइन, बोलते थे, अत्यंत स्वाभिमानी महिला थीं। पति के इस तरह अकस्मात् गुम हो जाने से न सधवा रहीं न विधवा। पहले भी कोई सुख न था। अब पति का दुर्व्यवहार न था, पर और बहुतेरे कष्ट बढ़ गए। लांछन, अपमान एवं दुश्चिन्ता। सारे कड़वे घूँट उन्होंने बिना उफ़ किए सीने पर पत्थर रख कर पी लिए। उन्हें यह अहसास था कि वे ही बिखर गईं तो उनके बच्चे पूरी तरह निराश्रय हो जाएँगे। पति के जाने के बाद की आर्थिक बदहाली को भी उस बहादुर महिला ने सहज रूप से स्वीकार किया। कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। बाबूजी का टाइप बाबू के परिवार पर असीम स्नेह था। उनके बच्चों की खोज ख़बर वे हमेशा रखते। हमारे घर में वे बच्चे बहुत अधिकार से आते और हर मुद्दे पर बाबूजी से सलाह लेते।

बाबूजी ने कभी मेरा जेब खर्च न नियत किया था। जो ज़रूरत होती, बताना पड़ता। तब पैसे मिल जाते। माँ न रहीं, फिर स्थिति बदल गई। कभी कभी शाम को भूख लग जाए तो कुछ खाने पीने के लिए पैसों की ज़रूरत पड़ती। बाबूजी कभी घर में होते कभी नहीं। इसलिए, बाबूजी एक डिब्बे में आठ-दस रुपये की रेज़गारी रख कर छोड़ने लगे। मैं मन माफ़िक़ निकाल लेता। बाबूजी उस डिब्बे को गाहे-बगाहे देखते रहते। डिब्बा ख़ाली हो, इसके पहले ही उसमें और सिक्के भर देते।

एक दिन संध्या समय बाबूजी घर में न थे। मुझे पास के हलवाई की दूकान से पकौड़ियाँ लेनी थीं। इसके लिए पैसे चाहिए थे। मैं घर में आया। मेरे साथ टाइप बाबू का छोटा बेटा भी था। वह मेरा ही हमउम्र था और मित्र भी। उसके सामने ही मैने पैसों का डब्बा खोला और पैसे निकालने चाहे। पता नहीं कैसे डब्बा हाथ से छूट गया, खन-खन करते पैसे चारो ओर बिखर गए। मैं बिखरे पैसे समेटने लगा।

तभी कनखियों से मैने यह तड़ लिया कि टाइप बाबू के बेटे ने एक चवन्नी या अठन्नी का एक सिक्का, जो दूर एक कोने में चला गया था, अपने पैरों तले दबा लिया है। मैं जान कर अनजान बना रहा। टाइप बाबू के बेटे ने यथासाध्य चुपके से वह सिक्का उठाया और जेब में डाल लिया। मेरे लिए यह चोरी थी, एक अकल्पनीय कृत्य। लेकिन न जाने क्यों मैं उस समय कोई टोका टोकी न कर पाया। बाद में जब बाबूजी घर में आए तो मैंने बहुत शिकायताना लहजे में उनसे सारा क़िस्सा कह सुनाया। मुझे पूरी उम्मीद थी कि बाबूजी इस कृत्य की भर्त्सना अवश्य करेंगे। लेकिन हुआ इसका उलटा। बाबूजी मेरे ऊपर ही नाराज़ हो गए।

बिगड़ कर बोले, 'लानत है तुम पर। कभी सोचा है कि वह लड़का बिना बाप का है। ज़रूरतें उसकी भी होंगी, पर उसे पूरा कौन करे ? उसका पिता तो पास है नहीं जो डिब्बे में पैसे भर कर उसके लिए छोड़ रखे ? बताओ वह किससे पैसे माँगे?......... कभी उससे पूछ कर तो देखो पिता का अभाव क्या होता है !............... दोस्त बनते हो उसके !....... कभी अपने साथ ले जा कर उसे कुछ खिला पिला देते ! .... ............. उसने तो सिर्फ़ एक ही सिक्का उठाया था।.......... बस, उसे चोर क़रार कर दिया ?......... तुम्हें तो उससे पूछना चाहिए था कि और भी कोई ज़रूरत है क्या ?........... कुछ और पैसे दे देते। यह सब तो दर किनार, उसकी शिकायत ले कर बैठे हो। ........ छी, छी.!...........अफ़सोस !! मेरा बेटा ऐसी ओछी बात कर रहा है !!! '

बाबूजी के ये शब्द उस समय तो मेरे ऊपर गाज बन कर गिरे। धीरे-धीरे मैं उनका क़ायल हो गया। इन भावनाओं के पीछे अपने पिता के कोमल एवं सहृदय स्वभाव को पहचानने लगा। अपने-पराए की संकीर्ण परिभाषाओं से ऊपर उठे मेरे बाबूजी के प्रेम की परिधि न जाने किस किस को अपने दायरे में समेट लेती। शायद यह उनके ही निःसीम प्रेम का प्रसाद था कि उनके देहावसान के बाद मुझे ऐसे ऐसे लोगों से मदद मिली जिनसे मेरा कोई दूर दूर का भी साबक़ा न था। यह भी बताना आवश्यक समझता हूँ कि टाइप बाबू के परिवार के भी दिन फिरे। उनके बच्चे आज बड़े हो कर भली भांति अच्छी नौकरियों में सम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

व्यक्तिगत रूप से, बाबूजी ऊँची कक्षा के अध्यापकों द्वारा पैसे कमाने की दृष्टि से प्राइवेट ट्यूशन करने के बहुत ख़िलाफ़ थे। घर पर कभी भी कोई भी पढ़ने आ गया तो वे मना न करते। पर पढ़ाने के एवज़ में कोई फ़ीस आदि उन्हें स्वीकार्य न थे। शहर के एक परिचित रईस चाहते थे कि बाबूजी उनकी बेटी को उनके घर आ कर पढ़ाएँ। इसके लिए उन्होंने बाबूजी को सौ रुपये माहवार देने की पेशकश कर दी। तीन सौ रुपये माहवार तनख़्वाह पाने वाले अध्यापक के लिए निश्चय ही यह एक बड़ी रक़म थी। पर बाबूजी ने हाँ न भरी। इस पर, उन रईस ने आने जाने के लिए अपना रिक्शा भी देने की बात कही। अब बाबूजी बोले, 'उस रिक्शे में बिटिया को ही मेरे घर भेज दिया करें। मेरे बच्चे पढ़ते हैं। उन्हीं के साथ उसे भी पढ़ा दूँगा। और फ़ीस भी न लूँगा।' ज़ाहिर है, बात वहीं पर ख़त्म हो गई।

मेरे बचपन के दिनों में टीवी विडियो तो थे ही नहीं। अकसर लोगों के घर में रेडियो भी न होता था। मनोरंजन का एक ही साधन था -- सिनेमा। आज़मगढ़ शहर में बस दो ही पिक्चर हाल थे, जिनमें कभी कभी ही अच्छी फ़िल्म लगती। बच्चों का सिनेमा जाना समाज में अधिकतर निषिद्ध था। हमारे पड़ोस में लोग, यहां तक कि पके-पकाए मर्द भी, ख़ासे प्यूरिटन क़िस्म के थे। सिनेमा जाने से उनकी नैतिकता पर आँच आने का ख़तरा था। अतः ज़ाहिरा तौर पर वे भी कभी सिनेमा कभी न जाते थे। चोरी-छिपे जाते रहे हों तो पता नहीं।

बाबूजी इसके अपवाद थे। वे खुल्लम-खुल्ला सिनेमा जाते। वह भी हमें साथ ले कर। यही नहीं, वे हमारे साथ पड़ोस के दूसरे हमउम्र बच्चों को भी अपने ख़र्च पर सिनेमा ले जाते। उन सबकी तो चाँदी हो जाती। यह बात और है कि उनके माँ-बाप क्रोध से उबलते। पीठ पीछे भुन-भुन करते कि उनके बच्चों को ख़ामख्वाह बिगाड़ा जा रहा है। पर, बाबूजी का रुतबा ऊँचा था। किसी की मजाल न थी कि सामने से बाबूजी को टोक देता या अपने बच्चे को उनके साथ जाने न देता। सिनेमा हाल में हम फ़िल्म तो देखते ही, पेट पूजा भी अच्छी होती। लौटते समय बाबूजी फ़िल्म की अच्छाइयों व बुराइयों पर विस्तार से चर्चा करते। इससे हमें एक आलोचक का नज़रिया भी देखने को मिलता था।

फ़िल्म का माध्यम तेज़ी से बदल रहा था। प्रस्तुतीकरण में हल्कापन आ रहा था। बाबूजी हिमांशु राय व सहगल की गंभीर और उच्चस्तरीय फ़िल्मों के प्रेमी रहे थे। नई फ़िल्मों का हल्कापन उन्हें ओछा और अश्लील लगता। हमने बतौर हीरो शम्मी कपूर की एक फ़िल्म देखी - प्रोफ़ेसर। दो कमसिन रईसज़ादियों को पढ़ाने के लिए एक बूढ़े प्रोफ़ेसर की ज़रूरत है। नौजवान हीरो बूढ़े का वेष बना कर जाता है और यह नौकरी हासिल कर लेता है। घर में बूढ़ा बन कर लड़कियों को पढ़ाता है और बाहर असली नौजवान के रूप में उनमें से एक से इश्क़ लड़ाता है। रईसज़ादियों की एक अतिकर्कशा अभिभाविका है – उम्र से परिपक्व किन्तु पुरुषों के प्रति सशंक एवं असहज। कहीं से उसके मन में नक़ली बूढ़े के लिए कोमल भावनाएँ जग जाती हैं। एक सीन में दर्शाया गया था कि वह गाना गुनगुनाते हुए बालों में फूल लगा रही है। बुड्ढी की आशिक़ी का परदे पर प्रदर्शन हम बच्चों को भी अटपटा लगा। बाबूजी की संवेदनाएँ तो बिल्कुल ही आहत हो गईं। पिक्चर के बाद, घर लौटते समय बाबूजी ने कहा कि यह सीन मर्यादानुरूप न था और नहीं दिखाना चाहिए था।

शायद प्रोफ़ेसर आखिरी फ़िल्म थी जो बाबूजी ने देखी। बाद में वे हमें अकेले ही जाने देने लगे। हाँ, जब भी हम फ़िल्म देख कर आते, बाबूजी को उसकी कहानी व उसकी अच्छाइयों बुराइयों के बारे में अवश्य बताते। बहुत बाद में एक दिन बाबूजी ने यह राज़ ज़ाहिर किया कि उन्हें हमारे दौर की फ़िल्मों में कभी कोई दिलचस्पी न थी। वे तो हमें फ़िल्म दिखाने साथ ले कर इस लिए जाते थे कि हमें अच्छी फ़िल्म की समझ आ सके। ग़नीमत है कि बाबूजी ने प्रोफ़ेसर के बाद की फ़िल्में न देखीं, वरना हिन्दी फ़िल्म की विधा से उनका मोह भंग और अधिक विषादपूर्ण होता।

मैंने पहले भी कहा है कि बाबूजी मूल नक्षत्र में पैदा हुए थे, और काफ़ी तेज़ तर्रार एवं हठीले स्वभाव के थे। उनके ये गुण बाह्य जगत में उनकी अलग पहचान बनाते। पर दाम्पत्य जीवन की सफलता में ये ही सबसे बड़ा रोड़ा बने। माँ-बाबूजी का मैं सबसे छोटा बेटा था। जब मैं पैदा हुआ दोनों अधेड़ावस्था की दहलीज पर थे। पर उनके आपसी संबंधों में उम्र के अनुरूप परिपक्वता न थी। जब से होश संभाला, मैंने यही देखा कि माँ-बाबूजी की आपस में न पटती थी। आए दिन, किसी न किसी बात पर कलह।

पत्नी के रूप में, माँ की कुछ अपेक्षाएँ थीं, जो बाबूजी ने पूरी न कीं। माँ के देखते देखते बहुतेरे पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने अपने अपने घर खड़े कर लिए थे, पर बाबूजी ने ज़िन्दगी बड़े आराम से किराए के मकान में काट दी। अपना घर बनाने की बात उन्होंने कभी सोची भी नहीं। माँ को आलीशान कोठी न सही पर अपना घर हो इसका बड़ा अरमान था। कभी कुछ कहतीं तो बाबूजी उन्हें डपट देते। फिर, बाबूजी अपने मन की कोई बात माँ को कभी न बताते और इसे ले कर माँ काफ़ी खीझ से भरी ऱहतीं। उन्हें हमेशा यह लगता था कि अर्धांगिनी का सही दर्जा बाबूजी ने उन्हें कभी दिया ही नहीं। माँ की व्यथा यह भी थी कि उनके अपने भाई बहन भी उनकी बात न सुनते और बाबूजी के प्रति श्रद्धा और सम्मान से भरे रहते। दो एक बार उन्होंने हिम्मत बटोर बाबूजी की शिकायत अपने भाई से करनी चाही। पर मामाजी ने बात टाल दी। इस पर, उस समय तो, माँ के ग़ुस्से का ठिकाना न रहा।

माँ और बाबूजी का लालन पालन जिन परिस्थितियों में हुआ, उनमें भी कुछ मूलभूत अंतर थे। माँ अच्छे ख़ासे खाते-पीते ज़मींदार घराने की सबसे बड़ी बेटी थीं। कोई अभाव न था। सब हाथों हाथ लेते, उनकी हाँ में हाँ मिलाते। विवाह के पूर्व उन्होंने कभी दुःख या संघर्ष न देखा था। वे सिर्फ़ कक्षा तीन या चार तक ही पढ़ीं। आगे भी ऐसा कोई अध्ययन या मनन न किया कि बाबूजी की आदर्शवादी उदारता के प्रति उनके हृदय में कोई उछाह पैदा हो सकता। माँ की सारी संवेदनाएँ नितांत अपनी व अपने बच्चों की ज़रूरतों से जुड़ी थीं। उनके परे देखने की सलाह भी उन्हें बेमानी लगती। ऊपर से शादी के बाद पैसों की तंगी में जीना उन्हें बहुत सालता। माँ के बर-अक्स, बाबूजी एक ग़रीब घर में पैदा हुए। पैदा होने के दो वर्ष बाद ही अपनी माँ को खो दिया। क़िस्मत से उनकी एक भाभी थीं। बड़ी और निःसंतान भी। उन्हीं के आँचल की छाँव में बचपन बीता। हाईस्कूल के बाद ही दर-दर भटक कर स्कॉलरशिप का जुगाड़ किया और अपने बल बूते पर आगे एम. ए. तक पढ़े।

एम. ए. करते समय डिप्टी कलक्टरी की परीक्षा में बाबूजी बस यूँ ही बैठ गए थे। लिखित परीक्षा में सफल रहे थे, इन्टरव्यू का बुलावा भी शायद आ गया था। माँ तब विवाह-योग्य थीं और उनके पिताश्री उनके लिए एक उपयुक्त वर की तलाश में थे। बाबूजी का भविष्य उज्वल दिखता था। अतः वे माँ के परिवार वालों की नज़र में चढ़ गए। फिर क्या था। शादी का प्रस्ताव आया और शादी हो गई। नाना जी ने तो एक संभावित डिप्टी-कलक्टर को अपनी बेटी दी थी। पर, विधि को कुछ और ही मंज़ूर था।

बाबूजी पर देश-सेवा का जुनून था। डिप्टी-कलक्टरी का इन्टरव्यू न दिया। एम. ए. पास करके कुछ दिन अँग्रेज़ी अख़बारों में सहायक संपादक का काम किया और फिर नगण्य सी तनख़्वाह पर काँग्रेस की मुलाज़िमत कर ली। इस नौकरी की परिसमाप्ति उस इस्तीफ़े में हुई जिसका वर्णन पहले कर चुका हूँ। बाद में दूसरी नौकरी की भी तो टीचर की। पैसे की किल्लत जीवन भर रही। उस पर, किसी को कुछ भी उठा कर दे देने की बाबूजी की प्रवृत्ति। माँ के रोते रहने के लिए निश्चय ही बहुत कुछ था। एक बड़े सरकारी अफ़सर की बीबी बनने का स्वप्न एक ही धक्के में धराशाई हो गया था। सारी ज़िन्दगी तंग हाल रहीं और घर में नौकरानी जैसा खटती रहीं। ज़ाहिर था अपनी इस दशा के लिए मन ही मन वे बाबूजी को ही ज़िम्मेदार ठहराती थीं, और कभी कभी मन की बात जिह्वा पर आ ही जाती।

माँ की ओर से कोई अतिक्रमण हो बाबूजी इसके पहले ही आक्रामक हो जाते। उन्हें अपने प्रबुद्ध होने का गुमान था कि नहीं, यह नहीं जानता। पर यह अवश्य साफ़ ज़ाहिर था कि वे माँ के सिर्फ दरजा तीन-चार तक पढ़े होने के प्रति बहुत सचेत थे। बात बात में उन्हें अनपढ़ क़रार करने से न चूकते। बाबूजी के मन में कहीं न कहीं यह भी बात कूट कूट कर भरी थी कि माँ बहुत संकीर्ण नज़रिये से चीज़ों को देखती हैं। अतः अपने जीवन में उन्होंने माँ की किसी भी शंका का समाधान करने की या उन्हें साथ ले कर चलने की कभी ज़रूरत न समझी। जो कुछ किया अपने मन का। कोई काम इसलिए न किया कि माँ को भायेगा, या उनकी किसी इच्छा की तुष्टि हो जाएगी।

नतीजा साफ़ था। परस्पर असहमति और विसंगति। दाम्पत्य सूत्र में पिरोए वर्षों की संख्या ज्यों ज्यों बढ़ती गई, माँ-बाबूजी के झगड़े और उनके द्वारा एक दूसरे पर लगाए जाने वाले आक्षेप और आरोप भी बढ़ते गए। मेरे जन्म के बाद के सालों में उनकी आपसी कटुता विशेष रूप से बढ़ गई। कभी कभी के, और आसानी से बुझ जाने वाले, वाक्-युद्ध ने सुलगते ज्वालामुखी का रूप ले लिया। अब आए दिन लावा फूटता। दोनों को आँच अवश्य लगती। पर, पीछे हटने को कोई तैयार न था। अहंकार के अभेद्य कवच में सन्नद्ध, दोनों ही घात-प्रतिघात में लगे रहते। मेरी पैदाइश के बाद, शायद मेरे माँ बाबूजी के बीच का आपसी प्रेम कलह के दावानल में बिल्कुल ही सूख गया था।

अपनी जगह माँ एक सहृदय माँ थीं, और बाबूजी एक आदर्श पिता। मैं दोनों से अटूट प्रेम करता था। अतः उन दोनों की आपसी तकरार मेरे अबोध हृदय को मथ कर रख देती। हर समय मन में आशंका रहती कि न जाने कब क्या घटे। बाहर से खेल कर आता तो घर में घुसने के पहले चुपके से अंदर के तापमान का जायज़ा लेता और जब शांति होती तभी आश्वस्त मन से अंदर आता। कभी कभी माँ बाबूजी का युद्ध जब हद से बढ़ने लगता, मैं अपने बाल सुलभ अंदाज़ में रो रो कर उनसे सुलह सफ़ाई की गुहार करता। पर, इससे थोड़ी देर के युद्ध विराम से अधिक कुछ और हासिल न होता। मेरे भाई उम्र में बहुत बड़े थे। वे प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ढंग से माँ की तरफ़दारी करते और कभी कभी बाबूजी को समझाने की जुर्रत भी करते। पर, बाबूजी किसी की कहाँ सुनने वाले थे।

यह बात भी थी कि भाई लोगों के पास घर के दावानल से निकल भागने के अवसर सुलभ थे। वे उम्र में बड़े थे, कहीं भी आ जा सकते थे, और इधर उधर घूम फिर कर अपना मन बदल लेते। मैं बहुत छोटा था, घर और पड़ोस की चौहद्दी से बँधा हुआ। भाग कर जाता भी तो कहाँ? घर की कलह की बात न जाने कैसे चुपके चुपके पड़ोस में बच्चों और महिलाओं तक तुरत पहुँच जाती। उनके पास जाने पर न जाने कैसे कैसे सवाल पूछे जाते। मैं शर्म से ज़मीन में गड़ जाता।

वैसे तो दो एक को छोड़ पड़ोस के हर घर की कहानी भी यही थी। मर्द औरतों को अपनी मिल्कियत समझते थे और वे बड़ी बेबाकी से खुल्लम-खुल्ला प्रताड़ित की जाती थीं। मेरा विरोध यह था कि पड़ोसियों के किसी भी प्रकरण पर मैं कुछ छींटाकशी या पूछताछ नहीं करता हूँ तो वे किस मुँह से ऐसा करते हैं। पर मैं इस विरोध को स्वर न दे पाता था। कहीं न कहीं से मन ही मन मैं भी बाबूजी को ही इस स्थिति के लिए अधिक ज़िम्मेदार मानता था। पर, मैं बच्चा था। मन ही मन सुलगता रहता, घर में या घर के बाहर कहीं पर अपनी भावनाएँ व्यक्त न करता।

इस प्रकार मेरे बचपन के अनेक कोमल वर्ष माँ बाप के द्वन्द से जनित आतंक की छाया में कुम्हलाते हुए बीते। भावनाओं की मुक्त अभिव्यक्ति पर ख़ुद की रोक लगा कर मैंने जाने अनजाने अपना व्यक्तित्व काफ़ी कुंठित किया। नतीजा यह हुआ कि मैं खुल कर अपनी बात ही कहना भूल गया। पड़ोसी मित्रों की बात और थी। पर, बाहर मैं दब्बू जैसा व्यवहार करता, हर हालत में व्यक्तिगत चुनौती से बचने का प्रयास। यह वृत्ति स्वभावगत बन गई। आज भी अक्सर मैं अपने संस्कारों में इसकी झलक देख सकता हूँ।

कुछ समय बाद सबसे बड़े भाई का विवाह हुआ। नई नवेली दुल्हन के रूप में भाभी घर में आईं। माँ को एक संगिनी मिल गई। बाबूजी पुरानी रीतियों से बंधे थे। अतः भाभी के सामने न पड़ते। वे अब घर में ऊपर की मंज़िल के कमरों तक सिमट कर रह गए। मुझे भाभी के आने की बहुत प्रसन्नता थी। उससे अधिक प्रसन्नता यह थी कि अब माँ बाबूजी का कलह भी दब जाएगा। कुछ दिनों ऐसा लगा भी। पर बाद में कभी कभी किसी न किसी बात पर बाबूजी माँ पर गरम हो जाते। उनकी ऊँची आवाज़ पूरे घर में गूँजती। हाँ, यह अवश्य था कि दोनों के बीच पहले जैसी no holds barred तू तू मैं मैं न हो पाते थे। मेरे लिए यही काफ़ी था।

समय ने करवट ली। माँ अचानक गॉलब्लैडर के कैन्सर की चपेट में आ गईं। उस समय कैन्सर का नाम यदा कदा ही सुनने को मिलता और यह सर्वथा असाध्य रोगों में गिना जाता। दुर्भाग्यवश जब तक रोग की पहचान हुई वह फैल कर लाइलाज बन गया था। कैन्सर का दर्द असहनीय था। जैसे जैसे बीमारी का प्रकोप बढ़ता जाता, माँ के अवयव एक एक कर जवाब देने लगे। महीनों से बिस्तर पर पड़े अशक्त शरीर में बेड-सोर हो गए। पेट में पानी भर गया। सुन्दर गोरा चिट्टा चेहरा एकदम बुझा बुझा सा लगता।

ऊपर ऊपर बीमारी से लड़ाई चल रही थी। डाक्टर बुलाए जाते, दवाएँ दी जातीं।
पर, अन्दर ही अन्दर हम सभी माँ की मृत्यु के प्रति स्वीकार से भरे थे। मन ही मन ईश्वर से उनकी मुक्ति की प्रार्थना भी करते। माँ को ही मृत्यु मंज़ूर न थी। इसका कारण साफ़ था। अभी तक सिर्फ़ सबसे बड़े भाई का ब्याह ही हुआ था। हम दो छोटे भाई पढ़ रहे थे। मैं टेन्थ में, और मुझसे बड़े बी ए फ़ाइनल में। माँ के मन में हमें ले कर बहुत अरमान थे। अधूरी इच्छाओं की ललक ने उनकी जान को अटका कर रखा था। पर, एक दिन ऐसा आया कि आख़िरकार मेरी माँ ने भी मृत्यु के आगे हथियार डाल दिए। हमें बिलखता छोड़ वे इस संसार से विदा हो गईं। माँ के जाने के बाद ही यह पता चला कि माँ क्या होती है। ईश्वर से उनकी मुक्ति की प्रार्थना करते समय यह पता न था कि माँ की अनुपस्थिति और उससे उपजे अभाव हृदय को इतने दिनों तक सालते रहेंगे।

माँ के देहावसान के कुछ दिनों बाद बड़े भाई का प्रोमोशन हुआ। साथ ही उनका तबादला आज़मगढ़ से कानपुर हो गया। माँ की अनुपस्थिति में हम सबकी देख रेख कौन करेगा, यह सोच कर भाई ने भाभी को हमारे पास ही छोड़ना उचित समझा। छ - आठ माह ऐसा चला। फिर बाबूजी ने स्वयं ही भाभी को भाई के पास जा कर रहने के लिए कह दिया। भाभी बच्चों को ले भाई के पास कानपुर चली गईं। तब मैने ग्यारहवीं कक्षा पास की थी। बीच वाले भाई बाहर पढ़ रहे थे और फिर उन्हें बाहर ही, गोरखपुर में, नौकरी मिली। अतः घर में सिर्फ़ मैं और बाबूजी ही रह गए। बाबूजी भी अगले तीन वर्ष ही जिए और मेरे बी. एससी. पास करते करते चल बसे। पर ये तीन वर्ष मेरे जीवन के बहुमूल्य वर्षों में हैं। इन्हीं में बाबूजी को निकट से देखने समझने और बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला।

बाबूजी और माँ के संबंधों की चर्चा के पीछे मेरा मंतव्य अधूरा रह जाएगा यदि मैं माँ की मृत्यु के बाद होने वाले बाबूजी के हृदय मंथन की बात न कहूँ। जब तक माँ जीवित थीं बाबूजी उनके प्रति अपने पूर्वाग्रहों से इतने जकड़े हुए थे कि उनसे बाहर निकलना संभव न था। माँ की मृत्यु ने यह संभव कर दिया। बाबूजी अब देख पाने लगे कि भावनात्मक स्तर पर तालमेल न होने पर भी माँ ने किस प्रकार कठिन से कठिन परिस्थितियों में एक पत्नी व माँ का दायित्व निभाया। साथ ही वे अपनी हठधर्मिता भी देखने लगे जिसके चलते उन्होंने माँ का नज़रिया कभी परखने या जाँचने की कोशिश भी न की और अनपढ़ या संकीर्ण कह कर उन्हें दुत्कारते रहे। बाबूजी ने अपनी यह ग़लती मुझसे बड़े वाले भाई के सामने निःसंकोच स्वीकारी। यह माना कि उन्हें माँ को उनकी पूर्णता में स्वीकार कर उन्हें बदलने या समझाने का यत्न करना चाहिए था, जो उन्होंने न किया। रिटायरमेन्ट के बाद अक्सर मैं बाबूजी को घर के शान्त बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठे शून्य में कुछ निहारते देखता। मुझे लगता कि वे मेरी स्वर्गवासी माँ से अपनी नासमझी की मौन क्षमा-याचना कर रहे हैं।

यह बाबूजी के व्यक्तित्व का नया पहलू था। बाबूजी हठीले स्वभाव के थे, किसी से क्षमा माँगना या अपने को दोषी मान लेना उनके ख़ून में न था। पर आत्म-चिन्तन ने माँ के प्रति उनके सहज प्रेम को जगा दिया था। उन्होंने अपनी ग़लतियों को ले शर्मिन्दगी जताई और माँ को भी उनकी ज़्यादतियों या कहा सुनी के लिए माफ़ कर दिया। एक पिता को अपने बेटे के सामने पत्नी के साथ किया हुआ दुर्व्यवहार स्वीकारने के लिए कितनी हिम्मत और आत्मबल संजोना पड़ा होगा! बाबूजी ने यह हिम्मत की। नतीजा, स्पष्ट स्वीकारोक्ति!! काश, हम सब अपनी ग़लतियों से जीवन में इसी तरह सीखते चलते!!!

बाबूजी के एक बड़े भाई थे, उनसे सोलह सत्रह साल बड़े। वे रिटायर्ड थे। बुढ़ापे में पुश्तैनी गाँव, पिढ़वल, में रहते थे। वक़्त बिताने के लिए पास की तहसील में मुख़्तारी भी करते थे। उन्हें हम बड़का बाबूजी कहते, उनकी पत्नी को बड़की अम्मा। उन दोनों की अपनी कोई संतान न थी। बाबूजी को बड़की अम्मा ने बचपन में पाला था। अतः उनका हम पर विशेष स्नेह था। बाबूजी भी उनसे पुत्रवत् व्यवहार करते। बड़की अम्मा बड़े अधिकार से बाबूजी को कुछ न कुछ काम बताती रहतीं।

बड़का बाबूजी शुरू में कुल दरजा दस तक पढ़े थे। एक स्कूल में क्लर्क का काम करते थे। किसी ट्रेनिंग में भेजे गए। ट्रेनिंग स्कूल एक अँग्रेज़ अफ़सर के अधीन था। वह अवकाशप्राप्त फ़ौजी था। प्रथम विश्वयुद्ध शुरू ही हुआ था। फ़ौज में भरती हो रही था। कद काठी से बड़का बाबूजी में फ़ौज की नौकरी की कोई लायकियत न थी। शायद मेडिकल में ही छाँट दिए जाते। पर, ट्रेनिंग स्कूल का इंचार्ज बड़का बाबूजी को पसंद करता था। उसने बड़का बाबूजी को यह विश्वास दिला दिया कि उनकी सही जगह फ़ौज में ही थी। साथ में एक सिफ़ारिशी चिट्ठी भी दी।

बड़का बाबूजी भरती के दफ़तर में गए। वह सिफ़ारिशी चिट्ठी ज़ोरदार निकली। भरती करने वाले इतने मुतास्सिर हुए कि न तो बड़का बाबूजी का क़द नापा न सीने की चौड़ाई। उनका काम बन गया। बिना किसी नाप जोख के, भरती के कागज़ों में शरीर संबंधी हर प्रकार की माप का इंदराज कर दिया गया। बड़का बाबूजी मेडिकल में क्लीयर हो गए, साथ ही भारतीय फ़ौज में (जो उस समय अँग्रेज़ों की ही थी) लाँस नायक भी। तुरंत ज्वाइन करना पड़ा। जिस लश्कर में वह थे, वह लाम पर परदेस गया। मेसोपोटामिया में लड़ा। लड़ाई में पराजय का मुँह देखना पड़ा। तुर्की की सेनाओं ने पूरे लश्कर को बन्दी बना लिया।

तुर्की के साथ मित्र राष्ट्रों की संधि सन् 1924 में हुई। तब ही इन युद्ध बंदियों की रिहाई हो पाई। अँग्रेज़ अफ़सरों के साथ हिन्दुस्तानी अमला भी समुद्री पोतों में भर कर इंगलैन्ड भेज दिया गया। वहाँ ब्रिटिश राज को दी गई सेवा के चलते हर फ़ौजी से सम्राट जार्ज पंचम ने हाथ मिलाया और हर एक को अपनी दस्तख़त वाला एक प्रमाण पत्र दिया। यह प्रमाण पत्र, कई साल की एकमुश्त तनख़्वाह, और फ़ौज की पेन्शन ले कर बड़का बाबूजी घर लौटे। इन वर्षों में पता ही न था कि वे जीवित भी हैं अथवा नहीं।

फ़ौज के अनुभव ने बड़का बाबूजी की काया पलट कर दी। लड़ाई में उन्होंने क्या जौहर दिखाए, यह तो वे न बताते थे। किन्तु, इतना अवश्य था कि अँग्रेज़ी बोलने और लिख-पढ़ सकने के कारण वे अँग्रेज़ उच्चाधिकारियों के बहुत निकट आ गए थे। अनेक वर्ष युद्ध बंदी शिविर में बीते जहाँ फ़ौज की गतिविधयिाँ सीमित थीं। अतः बड़का बाबूजी को ऊँचे अफ़सरों के तौर तरीक़ों आदि को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। कहना न होगा, उन्होंने इस अवसर का पूरा लाभ भी उठाया। बोल-चाल में वे पूरे साहब हो गए।

जब बड़का बाबूजी घर वापस लौटे तो पहचाना मुश्किल था। उनका पूरा व्यक्तित्व बदल गया था। ऐसा आत्मविश्वास कि वे दूर से ही दिखते। उन्होंने पुरानी नौकरी बहाल कराई। साथ साथ प्राइवेट पढ़ाई की। आगे पढ़ने का यह क्रम तब तक चला जब तक वे डबल एम ए न हुए। बाद में सरकारी स्कूल में अध्यापक बने। वहाँ से बहैसियत प्रिन्सिपल रिटायर हुए। रिटायरमेन्ट के बाद समय काटने के लिए गाँव में रह कर मुख़्तारी करने लगे। फ़ौज की पेन्शन अलग से मिलती।

क़रीब क़रीब हर महीने सोल्जर्स बोर्ड से अपनी पेन्शन लेने बड़का बाबूजी गाँव से शहर आते। मुझे उनका इन्तज़ार रहता था, क्यों कि उनके देश विदेश के अनूठे अनुभवों को सुन रोमांच हो आता। साथ ही बड़का बाबूजी के आने का अर्थ था घर में बढ़िया खाना पकना। मैं अच्छे खाने का बहुत शौक़ीन था। माँ बड़का बाबूजी के लिए रसोई में काम करते कभी न थकतीं। बाबूजी भी बड़ी तत्परता से उनके लिए हर प्रकार से हाज़िर रहते।

आठ-नौ साल का था तब अपने होश में पहली बार अपने पुश्तैनी गाँव, पिढ़वल, गया। वहाँ बहुत से पट्टीदारों के घर थे। सबके यहाँ जाकर बड़ों को यथायोग्य नमस्कार आदि करना पड़ता था। नहीं तो, बदमज़गी में नालायक़ और बिगड़ैल क़रार कर दिए जाने की पूरी संभावना थी। अतः बारी बारी सभी के पास गया। रिश्तों की बारीकी गणित के सवालों से भी दुरूह थी। इसलिए उम्र देख कर लोगों को भैया, भाभी, चाचा, चाची, दीदी, दादा, दादी आदि बोल कर काम चला लेता।

पड़ोस में ऐसी ही एक वृद्धा 'दादी' थीं। वैधव्य और अकेलेपन की छाया में मृत्यु की प्रतीक्षा में थीं। बात बात में यमराज को न्योता देतीं। मैं उनसे कुछ ज़्यादा ही प्रभावित हो गया और उनके पास अधिक देर तक टिक गया। उन्हें भी एक श्रोता मिल गया था। बातों बातों में उन्होंने यह राज़ मुझ पर खोल ही दिया कि कि बड़का बाबूजी मेरे अपने सगे चाचा न थे, बल्कि बाबूजी के चचेरे भाई थे। साथ ही, बड़े राज़दाराना लहजे में वे यह भी बताने से न चूकीं कि हमारी अनुपस्थिति में बड़का बाबूजी हमारे विश्वास का नाजायज़ फ़ायदा उठा रहे थे और हमारे बाग़ आदि बेचते चले जा रहे थे। मैं उनकी ये बातें बोफ़ोर्स के पे-ऑफ़ के रहस्य की तरह अपने सीने में छुपा कर ले आया। एकान्त का पहला मौक़ा देख, बाबूजी को कह सुनाया। शाबाशी देना तो दूर, उन्होंने मेरे कान उमेठ कर कहा, 'उस बुढ़िया की बकबक सुनने क्यों गए थे? क्या कोई दूसरा और काम न था? ख़बरदार! जो फिर कभी ऐसी बकवास मेरे सामने की!!' यह प्रसंग वहीं समाप्त हो गया। ज़ाहिर था बाबूजी की अपनत्व की परिभाषा उन बुढ़िया दादी के मानदंड से बिल्कुल भिन्न थी।

इस घटना के बाद मैं थोड़ा सतर्क हो गया। मैनें देखा कि बाबूजी गाँव में जै राम जी की तो सबसे कर लेते हैं पर कहीं घुस कर नहीं बैठते। धीरे धीरे मुझे इसका रहस्य पता चलने लगा। अपने अनुभव से मैंने जाना कि ऊपर से निरीह एवं भोले दिखते अधिकतर पिढ़वल वासी, विशेषकर मेरे अपने पट्टीदार, कूटनीति में इतने मंजे हुए हैं कि कौटिल्य को भी पाठ पढ़ा दें। उनकी सरल बातें भी गूढ़ मंतव्य से भरी होतीं। उनका लक्ष्य अक्सर एक ही होता। अमुक को अमुक से विमुख कर देना। चतुर वह माना जाता जो लोगों को एक दूसरे से लड़ा सके।

गाँव में हमारे एक पट्टीदार थे बिन्दबासिनी बाबू। इन्हें मैं किसी अपरिभाषित रिश्ते से 'बाबा' बुलाता था। ये बाबूजी से उम्र में थोड़ा ही बड़े थे और दोनों बचपन के मित्र थे। इन्हें मैं पहले से ही जानता था क्यों कि मुक़दमों के सिलसिले से ये शहर में हमारे घर आते जाते रहते थे। काला चमकता हुआ भीमकाय शरीर। उससे दुगुनी चमक लिए खल्वाट। सपाट चेहरा। चेहरे में जड़ी छोटी छोटी, हँसती हुई, किन्तु काइयाँ, आँखें। गरजदार आवाज़। वे नाम के अनुरूप थे -- विन्ध्यवासिनी देवी की संहारक शक्ति के चलते फिरते प्रमाण। फ़र्क़ इतना था कि देवी दुष्टों का संहार करती हैं, और ये अच्छे भले को अपने पाश में जकड़ लेते। बिन्दबासिनी बाबू 'झगड़ा स्पेशलिस्ट' थे। कुछ पढ़े लिखे थे या नहीं, पता नहीं। पर फ़ौजदारी और दीवानी दोनों की सारी दफ़ाएँ उनकी ज़बान पर रहती। दो व्यक्तियों को आपस में लड़ा देना उनके बायँ हाथ का खेल था, जो वे अक्सर खेलते। यही नहीं लोगों को लड़ा कर मुक़दमे बाज़ी भी वे ही करवाते, कभी दीवानी तो कभी फ़ौजदारी। लड़ रही पार्टियों में जो अक्सर ज़्यादा पैसे वाली होती, उसके पक्षधर बन जाते। फिर क्या। तहसील और शहर की अदालतों में अपने मुवक्किल के लिए मुक़दमे में जीत का जुगाड़ करते घूमते।

बिन्दबासिनी बाबू की ये सामाजिक सेवाएँ निःशुल्क थीं। मतलब वे स्वयं कुछ न लेते। हाँ, जिसकी मदद करते उसे उनका आने जाने, रहाइश, और खाने का खर्च उठाना पड़ता, बस। यह बात अलग थी कि उनके रंग ढंग शाही थे। नाश्ते में अंडा लगता तो खाने में गोश्त, मुर्ग़ा और तीतर-बटेर। पीने का भी शौक़ था। ख़ुद तो ठर्रा पीते। हाँ, दूसरा पिलाए तो संतरे से नीचे बात न करते। आसामी मालदार हो तो विलायती पर भी हाथ साफ़ करने से न चूकते। उनकी मार्फ़त मुक़दमा लड़ना मंहगा सौदा था। कभी कभी, मामला पेचीदा हो तो उनकी सलाह पर घूस के पैसे भी देने पड़ते। वे बड़े वाक् पटु थे। बड़ी सफ़ाई से बताते कि किस किस हाकिम को कैसी हिकमत से घूस दे कर पटाया, जिसके चलते कौन सा मुवक्किल हारते हारते मुक़दमा जीत गया। सुनने वाला उनकी योग्यता का क़ायल हो ही जाता। कहना न होगा, बिन्दबासिनी बाबू के मुवक्किल मुक़दमे लड़ते लड़ते दुबले हो रहे थे। उनकी तोंद का घेरा बढ़ता ही जा रहा था।

गाँव में रह कर मैंने देखा कि लोगों के पास ख़ाली समय बहुत था। सब दूसरों की आँख का तिनका ही देखते, अपनी आँख का लकड़ा न दिखाई देता। चारो ओर द्वेष, ईर्ष्या, छीन-झपट, षड्यंत्र और मुक़दमेबाज़ी का माहौल था। मैं शहर में पल रहा था, इतनी टुच्चई वहाँ न थी। कुछ दिनों में ही, मैं भी सजग हो गया। जहाँ कोई बड़का बाबूजी और हमारे संबंधों को कुरेदता मैं कोई न कोई बहाना गढ़ कहीं और खिसक लेता। कालान्तर में जैसा देखा, उससे गाँव के लोगों, कम से कम उत्तर प्रदेश के ग्रामीणों, के बारे में मेरी यह धारणा दृढ़ ही हुई। गाँव की बात पर आकर मैं असली विषय वस्तु से हट गया था। उस पर वापस लौटता हूँ।

बड़का बाबूजी के शहर में हमारे घर आने का एक लाभ हमें यह भी मिलता कि उनके व बाबूजी के बीच बहुत सारे विषयों पर चर्चा होती। हमें कुछ नया और अनोखा सुनने को मिलता। बाबूजी अपनी बात बहुत अधिकार से कहते, और बड़का बाबूजी उनका सम्मान करते हुए कहते, 'मोहन! तुम तो कॉलेज और युनिवर्सिटी में पढ़े हो!! कहाँ तुम और कहाँ मैं!!!' बड़का बाबूजी की बात में कोई अतिशयोक्ति न थी। वे अधिकतर प्राइवेट पढ़े। जल्दी जल्दी कामचलाऊ ढंग से पुस्तकें पढ़ कर परीक्षा पास कर लेना एक बात है। पर, नियमित रूप से क्लास में जाकर विषय को लंबे चिंतन के द्वारा आत्मसात करने की बात तो कुछ और ही है। बाबूजी की सोच गहरी थी। अच्छे अध्यापक होने के कारण बाबूजी में यह विशेषता थी कि वे एक ही बात को सरलतम और गूढ़तम दोनों ढंग से प्रस्तुत कर सकते थे। यह प्रवीणता उनकी लेखनी में भी थी। बड़का बाबूजी अँग्रेज़ों के साथ रह कर बोलने में निपुण थे और अपने विशिष्ट अंदाज़ से लोगों को आकृष्ट कर लेते। पर, किसी विषय पर कोई सारगर्भित लेख आदि लिखना उनके वश में न था।

बाबूजी व बड़का बाबूजी के व्यक्तित्व का अंतर जीवन के अन्य हलक़ों में भी दिखता। बड़का बाबूजी को ईश्वर ने ज़बरदस्त सेहत दी थी। सत्तर-बहत्तर की उम्र तक कभी डाक्टर का मुँह न देखा। जाड़ा गर्मी बरसात ख़ुद बाइसिकिल चला कर गाँव से तीन मील दूर तहसील में मुख़्तारी करने स्वयं आते जाते। बाबूजी की सेहत नाज़ुक थी। बीमार तो न रहते, पर एक दम ठीक भी न थे। अक्सर परहेज़ी खाना खाते। बड़का बाबूजी ने जीवन को उसकी विविधता में देश विदेश में देखा था। बाबूजी छोटे से शहर में एक बार बैठे तो हिलन का नाम न लिया। बड़का बाबूजी इह लोक के साथ परलोक सुधारने में भी रुचि रखते दिखाई देते थे। सुबह चार बजे उठ कर स्नान-ध्यान करते, गीता पढ़ते। बाबूजी को कर्म योग पर विश्वास था, कर्मकांड से चिढ़।

निजी जीवन में बाबूजी गुरुता एवं स्थायित्व की मिसाल थे। बड़का बाबूजी हल्केपन और अस्थिरता के। उनकी आध्यात्मिकता में भी स्थायित्व न था। इस गुरु से उस गुरु के पास दौड़ते। लक्ष्य आत्म सिद्धि न था। कैसे भी हो, उन्हें मृत्यु को वश में करने का रहस्य चाहिए था। बाबूजी को इन सब बातों में बचकाना पन दिखता। उनकी ईश्वर में सीधी आस्था थी, अतः मृत्यु भी सहज ही स्वीकार्य थी। उससे बचने की कोशिश उन्हें बेमानी लगती। हाँ प्रत्यक्ष रूप में वे कभी बड़का बाबूजी की कोई आलोचना न करते।

मृत्यु के संबंध में बाबूजी एवं बड़का बाबूजी का यह मतान्तर मुझे बहुत छोटेपन में अकस्मात् ही पता चला। घर में बड़का बाबूजी आए हुए थे। छुट्टी का दिन था। सुबह सुबह नाश्ते की मेज़ माँ द्वारा यत्नपूर्वक बनाए पकवानों से सजी थी। चारो ओर हम सब बैठे थे। चाय की चुस्कियों के बीच इधर उधर की चर्चा चल रही थी। मेरी भागीदारी एक श्रोता की थी। बड़का बाबूजी एक संत से हुए प्रश्नोत्तर की बातें बता रहे थे। थोड़ी देर में वे दीर्घायु होने के अपने पसंदीदा विषय पर आ गए। बाबूजी उनकी बातें सुन रहे थे। अचानक बाबूजी ने प्रश्न किया, 'भैया आपने जीवन को भर पूर जिया है। आखिर आप और अधिक क्यों जीते रहना चाहते हैं ? मृत्यु को स्थगित करने का प्रयत्न क्यों ?'

ऐसे सीधे और चुनौती भरे सवाल के लिए बड़का बाबूजी तैयार न थे। कुछ क्षण चुप रहे। मैं और भाई उत्सुकता से उन्हें देख रहे थे। उनकी निगाह भी हम पर जैसे ठहर सी गई। थोड़ी देर बाद हमें लक्ष्य करके बोले, ‘I want to see these buds blossoming into flowers.' बाबूजी ने झट उत्तर में कहा, ‘Bhaiya! You think you are the arbiter of their destiny? This notion is not correct. You read Bhagwad Gita every day. You would be knowing that God alone takes care of everyone. The buds are certainly going to bloom in their own time. Our presence or absence is immaterial. So, why this anxiety to somehow prolong life?’

रोज़ गीता पढ़ने वाले बड़का बाबूजी बौद्धिक स्तर पर सब समझते थे। पर, जीने की इच्छा को ईश्वर के अधीन कर दें, यह सहज न था। थोड़ी देर बाद उन्होंने बाबूजी से पूछा, 'मोहन! मृत्यु से विमुख होना कठिन है। है न!!' बाबूजी ने कहा, 'भैया! मृत्यु में कुछ भी अस्वाभाविक या असहज नहीं। हम जीवन को सहज स्वीकारते हैं, तो मृत्यु को क्यों नहीं? मृत्यु जीवन की स्वाभाविक परिणति है और उसके प्रति भी स्वीकार भाव होना चाहिए।' बाबूजी ने आगे कहा, ‘यही भारतीय दर्शन की अवधारणा है। गीतांजलि में संगृहीत गुरुदेव रवीन्द्र की कविताओं में से एक कविता में यह बहुत सुन्दरता से उतर आई है। कविता में मृत्यु के आगमन की चर्चा है। गुरुदेव स्वयं से पूछते हैं, क्या करोगे जब मृत्यु देवता द्वार पर दस्तक देंगे। फिर स्वयँ ही उत्तर देते हैं कि मैं द्वार खोलूँगा, मृत्यु-दैवत् का स्वागत करूँगा, और अपने जीवन का पात्र उन्हें अर्पित कर दूँगा।' फिर अपनी बात करते हुए बाबूजी ने कहा, 'मृत्यु के मामले में, मैं तो गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर का अनुयायी हूँ। जब मृत्यु का बुलावा आएगा, चल दूँगा। पीछे मुड़ कर भी न देखूँगा।'

मैं बड़का बाबूजी की आँखों में पूर्ण असहमति तो नहीं पर थोड़े बहुत अविश्वास की झलक साफ़ देख रहा था। लेकिन उन्होंने इस चर्चा को वहीं समाप्त कर दिया। मैं उस समय बहुत छोटा था। 'भारतीय दर्शन' या 'भारतीय परम्परा' मेरे लिए मात्र शब्द थे। मृत्यु की जीवन से विलग न होने की अवधारणा और जीवन की ही भाँति मृत्यु की स्वीकृति, ये बातें मेरी समझ से बिल्कुल परे थी। उस समय तो मैंने सिर्फ़ इतना ही जाना कि मेरे बाबूजी इतने बहादुर हैं कि मृत्यु से भी नहीं डरते। यह बात कहीं न कहीं मेरे ज़हन में बहुत गहरे बैठ गई थी। शायद इसी लिए इस वार्तालाप को मैं कभी भुला न सका और बचपन की यादों के संग्रह में संजोए रहा। उस समय मुझे पता न था कि मृत्यु का चिन्तन जीवन को दिशा दिखाने वाले कम्पास की तरह है। मुझे यह भी पता न था कि आने वाले समय की घटनाएँ मुझे यह अनुभव देंगी कि बाबूजी ने मृत्यु के प्रति अपनी धारणा को जी कर दिखाया।

पचहत्तर पार करते करते बड़का बाबूजी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। थोड़ी बदपरहेज़ी से भी तबीयत ख़राब हो जाती। तब वे गाँव से बाबूजी के पास शहर दौड़ आते। माँ का देहान्त हो गया था। घर में सिर्फ़ मैं और बाबूजी थे। पर बाबूजी तनिक भी चिन्ता न करते। जी जान से बड़का बाबूजी की सेवा में लग जाते। परहेज़ी खाना। सेवा-सुश्रूषा। किसी चीज़ में कसर न रहती। दस पंद्रह दिनों में, बड़का बाबूजी स्वस्थ बदन और चमकता चेहरा लिए गाँव वापस लौट जाते। यह ज़रूर था कि बीमार पड़ने पर बड़का बाबूजी कुछ घबराए-घबराए से लगते। इस संबंध में एक घटना याद आती है।

रिश्तेदारी की एक शादी हमारे शहर में हुई। बारात शहर के दूसरे कोने में स्थित एक स्कूल में टिकी। बड़का बाबूजी बाक़ायदा बारात में शरीक हुए और बारात के साथ वहीं उसी स्कूल में ही क़याम किया। शादी हो गई। दूसरे दिन देर रात में बारात उस स्कूल से विदा हो गई। उस समय कोई सवारी न मिली जिससे हम घर जा सकते। तय यह हुआ कि हम सब रात भर वहीं उस स्कूल में काट लेंगे और सुबह रिक्शा मिलने पर घर जाएँगे।

इत्तफ़ाक़ से रात में ही बड़का बाबूजी की तबीयत बिगड़ गई। सीने में जलन, उल्टी, घबराहट इन सबसे उनका बुरा हाल था। जून के महीने में ठंडे पसीने से नहा उठे। बाबूजी होमिओपैथी की दवाएँ देते थे। वे घर पर थीं। अंतत दो बजे रात में बाबूजी मुझे स्कूल में उनके पास छोड़ कर पैदल घर गए और दवाएँ ले आए। इन दवाओं से बड़का बाबूजी को सुबह तक कुछ आराम आया और वे रिक्शे में बैठ घर तक जा सके।

बाबूजी को घर जाने और दवाएँ ले कर बारात वाले स्कूल तक आने में एक डेढ़ घंटे से ऊपर ही लग गए थे। इस दौरान मैं ही बड़का बाबूजी के साथ वहाँ अकेला रहा। उस स्कूल में बिजली थी नहीं। बारात के लिए गैस के हंडे थे। पर, इधर बारात गई, उधर गैस वाला आया और पास के मुहल्ले में शादी का बहाना कर सभी हंडे उठा ले गया। अब सब तरफ़ घटाटोप अँधेरा था, जिससे बचने के लिए हमें एक मोमबत्ती का ही सहारा था। ज़ोर की हवा चल रही थी। मोमबत्ती बार-बार बुझ जाती। माचिस की तीलियाँ भी ख़त्म हो गईं। इसलिए, हम बिना रोशनी के थे। जिस कमरे में हम थे, उसके ठीक बाहर पीपल का एक पुराना पेड़ था। हवा की साँय साँय के साथ वातावरण में उस पेड़ की बूढ़ी टहनियों और धूप में झुलसे पत्तों की खड़क भी मौजूद थी। लगता था प्रेतात्माएँ बातचीत कर रही हैं। कुल मिला कर काफ़ी डरावना सीन था।

रही सही कसर बड़का बाबूजी की हाय-तौबा ने पूरी कर रखी थी। मेरा कलेजा हलक़ में आ गया जब एक बार बड़का बाबूजी ने टटोल कर मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और कहा, 'बेटा, मुझे बहुत डर लग रहा है। मेरा हाथ मत छोड़ना नहीं तो मैं मर ही जाऊँगा।' मैं मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ने लगा और तभी रुका जब बाबूजी दवा ले कर आ गए। ठंडे पसीने में भीगे बड़का बाबूजी के हाथों की पकड़ बहुत दिनों तक मेरी कलाइयों पर बनी रही।

बाद में एक दिन मैंने बाबूजी को बड़का बाबूजी के मृत्यु-भय की बात बताई। बाबूजी सुनते रहे, तुरन्त कुछ नहीं बोले। मैंने भी किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं की थी। अतः अपने काम में लग गया। थोड़ी देर बाद बाबूजी के मुँह से निकला, 'भैया ने अपने जीवन में न जाने कौन से ऐसे कर्म किए हैं, जो उन्हें मरने से इतना डर लगता है !' फिर बाबूजी ने चुप्पी साध ली। आज मैं स्वयं वानप्रस्थ के दरवाज़े पर खड़ा हूँ। तब इस वक्तव्य के मर्म को कुछ कुछ समझ पा रहा हूँ।

मैं बी. एससी. फ़ाइनल ईयर में था। जाड़ों के दिन थे। रात का समय। मेरी और बाबूजी दोनों की चारपाइयाँ एक ही कमरे में लगी रहती थीं। हम सोने के लिए बिस्तर पर गए। बाबूजी का मन अतीत में भ्रमण कर रहा था। पहले भी करता ही रहा होगा, पर वे मन में उठती छवियों को मुझसे बाँटते न थे। उस दिन कुछ अलग बात थी। न जाने क्यों बाबूजी ने बड़े उदार मन से मुझे विगत की बहुत सी ऐसी अंतरंग घटनाओं के बारे में बताया जिन्हें मैं पहले से न जानता था। ग़रीबी के कारण बचपन से ही पढ़ाई से ज़्यादा स्कॉलरशिप के लिए जद्दोजहद। बी. ए. में पढ़ते समय शादी का पहला प्रस्ताव। बाबूजी से बिना बताए दादाजी द्वारा इक़रार। पर, छुटि्टयों में गाँव आए बाबूजी का इनकार। आक्रोश में, घर छोड़ कर जाने को उद्धत दादाजी। उन की दुविधा कि दरवाज़े पर आए लड़की के पिता को ना कैसे करें। तभी अचानक गाँव आ पहुँचे, बड़का बाबूजी द्वारा हस्तक्षेप, सुलह-सफ़ाई और बाबूजी की मुक्ति। एम. ए. प्रथम वर्ष में फ़ीस का जुगाड़ न हो पाने पर परीक्षा न दे पाने की नौबत। तब हॉस्टल वार्डन डाक्टर ताराचंद (स्वनामधन्य इतिहास विद्) द्वारा फ़ीस का भर दिया जाना। बाबूजी का आत्मसम्मान भी सुरक्षित रहे इसलिए डाक्टर ताराचंद द्वारा बदले में अपने बेटे को पढ़ाने का आदेश। पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ दिनों अख़बार में डाक्टर संपूर्णानंद जैसे विद्वान के साथ सह संपादक का कार्य। काँग्रेस में प्रवेश, नेहरू जी के सेक्रेटरी की नौकरी। नेहरुजी का मानवीय दृष्टिकोण। नेहरू जी के नैनी जेल प्रयाण के समय विदा देने वालों की भीड़ में पीछे खड़े सकुचाए से बाबूजी। उन्हें क्षणिक किन्तु प्रगाढ़ आलिंगन में घेरते नेहरू जी। काँग्रेस से इस्तीफ़ा। स्कूल की नौकरी। बाबूजी के अग्रणी विद्यार्थी। जो कालान्तर में बने प्रोफ़ेसर, डाक्टर, एवं राजनेता।

यादों में बहते बाबूजी स्वयं से बोलते जा रहे थे। मैं बहुत ध्यान से सुन रहा था। अचानक बाबूजी ने कहा, 'जीवन की संध्या आ गई है। बहुत कुछ किया। अब जाने का समय आ रहा है। अगर मुन्ना (मंझले भाई जिनको गोरखपुर के एक डिग्री कॉलेज में अध्यापन कार्य कुछ महीने पहले ही मिला था) की शादी कर लेता तो अच्छा होता।' यह वक्तव्य सर्वथा अनपेक्षित था। मैं झटके से अतीत से वर्तमान में आ गया।

बाबूजी दुनिया से प्रयाण करने की सोच रहे हैं, यह बात मुझ मातृसुख-विहीन को एक दम अटपटी लगी। एक छण के लिए मैं अवाक् रह गया। पूछा, 'आप ऐसा क्यों सोचते हैं ?' उत्तर मिला, 'ऐसा ही लग रहा है।' मैं आसानी से पीछा छोड़ने वाला न था। कुरेदते हुए पूछ बैठा, 'आपने हमें इतने कष्ट सह कर पाला है, अभी भी यह सिलसिला जारी ही है। पर वह दिन दूर नहीं कि हम सभी कुछ न कुछ बन जाएँगे। तब आप हमारे साथ आराम की ज़िन्दगी बिता सकेंगे ! क्या आपको उस समय की प्रतीक्षा नहीं है ?'

बाबूजी कुछ क्षण शून्य में ताकते रहे। कुछ पढ़ रहे थे। फिर बोले, 'कौन से माता-पिता नहीं चाहते कि उनकी आँखों के सामने उनके बच्चे फलें फूलें और वे बच्चों के भरे पूरे परिवार के साथ आनन्द में जीवन बिताएँ। मैं भी चाहता हूँ। पर चाहने से क्या? पास में समय होना चाहिए। मुझे अपने हाथ में समय ही नहीं दिखता। इसीलिए सोचता हूँ मुन्ना का ब्याह मेरे सामने हो जाता तो ठीक था। आगे ईश्वर की इच्छा।'

यह तो और भी गंभीर वक्तव्य था। बाबूजी तो जाने को तैयार बैठे दिखते थे। मुझे अपनी चिन्ता लगी। मेरी पढ़ाई भी पूरी न हुई थी। मेरा भय कुछ ही देर में प्रश्न बन बाहर आया, 'मेरा क्या होगा ? आपको मेरी चिन्ता नहीं ?' बाबूजी तुरंत बोले, 'नहीं, तुम्हारी कोई चिन्ता नहीं है। I am sure you will be able to carve a niche for yourself in this world.'

बाबूजी ने अपनी बात कह कर बहुत निश्चिन्त भाव से करवट बदल ली, और कुछ ही पलों में उन्हें नींद ने आ घेरा। मेरी आँखों में नींद न थी। बाबूजी को मेरी ओर से चिन्ता नहीं है, यह जान कर अच्छा लगा। पर, यह भाव क्षणिक था। वास्तव में मैं बड़ी दुश्चिन्ता में आ गया था।

बाबूजी मेरे जीवन की धुरी थे। सारे निर्णय वे ही लेते कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं। स्वभाव से काहिल होते हुए भी मैं यथासंभव अपने को उनकी इच्छा और अपेक्षा के अनुरूप ढालने की कोशिश करता। मेरा लक्ष्य बस एक था। किसी तरह बाबूजी मुझसे प्रसन्न रहें। बाबूजी एक दिन नहीं रहेंगे, यह तो मेरी कल्पना के परे था। सोच कर देखा तो लगा कि यदि किसी दिन बाबूजी न रहे तो शायद मेरे जीवन का अर्थ ही खो जाए।

मैं इसी ऊहापोह में डूबा था। तभी मन में विचार उठा कि ज़रूरी नहीं कि जो भी बाबूजी कह रहे हों वह सच ही हो। भला मौत किसी को इतना पहले संदेसा दे कर थोड़े ही आती है। कोई तो इस तरह अपने जाने का एनाउन्समेन्ट नहीं करता। लगा, बाबूजी प्रलाप कर रहे थे। मैंने अपने आप से कहा कि हमारे बाबूजी चौंसठ की उम्र में आ कर 'सठिया' गए हैं। यही विचारते विचारते सो गया। दूसरे दिन सुबह उठा तो पाया कि रात की बात चीत अभी भी मन पर छाई थी। मन में एक खटका सा था। बाबूजी रोज़ की दिनचर्या में व्यस्त थे। मैं पूरे दिन चौकन्ना रहा। बाबूजी की हरकतें व बात चीत देखता। सब 'नार्मल' था। मैं आश्वस्त हो गया।

इस बात को छ महीने हो गए। मैंने बी. एससी. की परीक्षा दे दी। गर्मी की छुटि्टयाँ थीं। गोरखपुर में बड़े भाई की ससुराल में शादी थी। बाबूजी शादियों में आना जाना भरसक टाल जाते थे। न जाने क्यों इस बार तैयार हो गए। हम मंझले भाई के डेरे पर रुके। बड़े भैया व भाभी भी बच्चों के साथ शादी वाले घर में आए थे। पूरा परिवार इकट्ठा हो गया। बाबूजी बहुत प्रसन्न थे। पर, शादी होते न होते बाबूजी बीमार पड़ गए। लिवर के आस-पास दर्द था। काफ़ी बेचैनी थी। डाक्टर बुलाए गए, दवा दी गई। कमज़ोरी काफ़ी हो रही थी। हम सोचते थे कि चार-छ दिनों में बाबूजी ठीक हो जाएँगे, तब हम वापस आज़मगढ़ चले जाएँगे।

बाबूजी ने ठीक होने की प्रतीक्षा न की। दो ही दिन बाद, बड़े भाई को कह टैक्सी की व्यवस्था कराई और मुझे व मंझले भाई को साथ ले आज़मगढ़ चले। मैं उनकी इस जल्दबाज़ी पर थोड़ा खीझा हुआ था। बाबूजी टैक्सी की पिछली सीट पर लेटते हुए अपने आप से बुदबुदाए, 'अब जो भी होना है, वह उसी घर में हो जहाँ मैंने पैंतीस बरस काटे हैं।' ये शब्द मेरे कानों में पड़े। संकेत स्पष्ट था। पर मैं जान बूझ कर उसे नकारना चाहता था। मन को यह कह कर समझा दिया कि आज फिर सठियानापन दिखा रहे हैं।

आज़मगढ़ पहुँच कर एक बार फिर बाबूजी की दवा शुरू हुई। कोई लाभ न हुआ, कमज़ोरी बढ़ती जा रही थी। चार पाँच दिन ही बीते होंगे कि बड़का बाबूजी गाँव से आ गए। अगले दिन वे वापस जाने वाले ही थे कि बाबूजी ने उन्हें अपने पास बुलवाया। बड़का बाबूजी बहुत अच्छे मूड में थे। आ कर बोले, 'मोहन ! मैं अब जा रहा हूँ। अगले महीने आऊँगा। तब इत्मीनान से बातें करेंगे।' बाबूजी के उत्तर में उनके लिए बहुत बड़ा झटका था, 'भैया ! यह हमारी आपकी आखिरी मुलाक़ात है। मेरा जाने का समय क़रीब आ गया है।'

यह सुनना था कि बड़का बाबूजी पुक्का फाड़ कर रो पड़े। रोते रोते बोले, 'हे ईश्वर! बेटे जैसे भाई से अब यही सुनना रह गया था!!' मैं पास में खड़ा था। स्तब्ध....। बड़का बाबूजी के सामने बाबूजी को मैंने सदैव विनीत मुद्रा में और दबी ज़बान से बोलते देखा था। बाबूजी उनका दिल दुखाने वाली बात करेंगे, यह मैं सोच भी न सकता था। पर, आज कुछ अलग बात थी। उनके रोल बदल गए थे। आज बाबूजी ऊँचे और बड़े थे, बड़का बाबूजी छोटे। बाबूजी के चेहरे पर छाई कमज़ोरी में एक अधिकार था, एक दृढ़ता भरी शान्ति थी। उनकी धीमी आवाज़ में आदेश का पुट था।

बड़का बाबूजी की रुलाई को रुकता न देख, बाबूजी ने कहा, 'रोने से क्या? एक न एक दिन तो सबको जाना है। चुप हो जाइए।' बड़ी मुश्किल से बड़का बाबूजी ने अपनी रुलाई रोकी। भाव विह्वल शरीर अभी भी काँप-काँप उठता था। बाबूजी ने मेरी ओर इशारा किया। फिर, बड़का बाबूजी से कहा, 'इस लड़के की पढ़ाई पूरी होनी रह गई है। गाँव में मेरे हिस्से के बचे हुए खेत और बाग़ बेच दीजिएगा। जो रक़म मिले, इसके नाम से बैंक में जमा कर दीजिएगा।' बड़का बाबूजी के रुके हुए आँसू फिर बह निकले।

बाबूजी की बात ख़त्म हो चली थी। अब उन्होंने कहा, 'आपको देर हो रही है, भउजी चिन्ता करेंगी। अब आप जाइये।' बड़का बाबूजी किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े रहे। तभी बाबूजी बोले, ‘Bhaiya! Your are the only elder, I now have. This being our last meeting, I want you to place your hands on my forehead and bless me.' उनकी आँखें सीधे बड़का बाबूजी की आँखों में झाँक रही थीं।

बड़का बाबूजी ने किसी तरह अपने को समेटा, अपने हाथ बाबूजी के माथे पर रखे, आशीर्वाद दिया। साथ ही, उनका रोना फिर चालू हो गया। बाबूजी ने अब मेरी ओर देखा। उनकी आँखों की भाषा मैंने पढ़ ली। हाथ का सहारा दे, बड़का बाबूजी को बाहर के बरामदे में ले गया। वहाँ आते ही जैसे बड़का बाबूजी के पैरों ने जवाब दे दिया। वे पास रखी चौकी पर धम से बैठ गए। देर तक, बच्चों की तरह रोते रहे। गाँव तो जाना ही था। न पहुँचने पर बड़ी अम्मा परेशान होतीं। अंततः मन मार कर उठे और थके क़दमों से रिक्शा पकड़ गाँव की बस पकड़ने निकल गए।

इस घटना ने मुझे अन्दर से कहीं यह आभास करा दिया कि बाबूजी द्वारा मृत्यु की चर्चा के पीछे एक सठियाए का अनर्गल प्रलाप नहीं, बल्कि अंतर्प्रेरणा है। इसका सबूत दो दिन बाद ही मिल गया। बाबूजी का इलाज कर रहे हमारे घरेलू डाक्टर ने उनकी हालत के बारे में हम दोनों छोटे भाइयों से बात करने से ही इनकार कर दिया। बड़े भाई को टेलीग्राम किया गया। वे बेचारे ससुराल की शादी में शरीक होने के बाद अभी-अभी कानपुर पहुँचे ही थे, कि हमारा तार मिल गया। उल्टे पैरों भागे और आज़मगढ़ आए। डाक्टर ने बाबूजी की बीमारी को गंभीर बताया और कहा कि हम उन्हें किसी बड़े शहर के मेडिकल कॉलेज में ले जाएँ जहाँ ऑपरेशन या बॉयोप्सी आदि आसानी से तुरत-फुरत में हो सकें। हम भाइयों ने बहुत मंत्रणा की। हमें यह पक्का अंदेशा था कि बाबूजी कहीं बाहर जाने को तैयार न होंगे।

आख़िरकार, बहुत सोच समझ कर बड़े भाई ने बाबूजी को डाक्टर की सलाह के बारे में बताया। बहुत घुमा फिरा कर कहा, कि डाक्टर रोग पहचानने में असमर्थ हैं। अतः बाहर जाना चाहिए जिससे बड़े डाक्टरों की राय ली जा सके और ज़रूरत हो तो बॉयोप्सी भी की जा सके। बाबूजी चुप चाप सुनते रहे। हम बड़ी उत्सुकता से उनके जवाब की प्रतीक्षा में थे। हुआ वही जिसका हमें डर था। बाबूजी का दो टूक उत्तर था, ‘My body is not fit to be exposed to the surgeon’s knife. Just let me be here.' बाहर ले जाने की बात यहीं ख़त्म हो गई। भाभी बच्चों को ले कानपुर से आ गईं।

दिक़्क़त यह थी कि एलोपैथिक डाक्टर जिसकी दवा चल रही थी, वह पहले ही जवाब दे चुका था। बाबूजी बाहर जाने को तैयार न थे। अब किस डाक्टर की और कौन सी दवा हो। बाबूजी से पूछा गया तो वे बोले, ‘Medicines can only treat a disease. There is no remedy for death.' इन शब्दों ने हमारे थके चेहरों पर मायूसी और चोट की जो रेखाएँ खींचीं बाबूजी ने उन्हें अवश्य पढ़ लिया होगा। शायद इसीलिए आगे कहा, 'If you all insist, put me on Homeopathy. That will alleviate some of my suffering.'

होमियोपैथी इलाज होने लगा। दो एक दिन, कुछ चमत्कारिक सुधार भी दिखा, पर वह मात्र छलावा निकला। अगले एक सप्ताह में, बाबूजी एकदम अशक्त हो गए। साँस बुरी तरह फूलती थी जिससे साँस लेने ही मशक्कत का काम हो गया। बाबूजी ज़्यादा कर चुपचाप बिस्तर पर लेटे रहते। आवाज़ इतनी क्षीण हो गई, कि पूरा ध्यान न दो तो सुनना मुश्किल। हम सभी उनकी सेवा में रहते।

बाबूजी की बीमारी की खबर परिचितों रिश्तेदारों में फैल रही थी। लोग देखने आते। कुछ उनकी बिगड़ती हालत देख रोते पीटते। बाबूजी को यह अच्छा न लगता। वे हमें इशारा करते और हम लोगों को बहला फुसला कर, और कभी कभी ज़बरदस्ती भी, बाबूजी के पास से ले जाते। लोगों को इसका बहुत मलाल होता। बाबूजी ने हमें यह हिदायत भी कर रखी थी कि हम उनकी बीमारी की खबर जहाँ तक संभव हो किसी को न दें। बहुतेरों को सीधे बाबूजी की मृत्यु की सूचना ही मिली। वे इस बात को ले कर हमसे बहुत नाराज़ हुए कि हमने उन्हें बाबूजी की बीमारी की ख़बर न दी और इस तरह उन्हें बाबूजी के दर्शनों से वंचित कर दिया।

मैंने देखा कि लोगों से कम से कम मिलने के पीछे बाबूजी का मंतव्य अपनी हालत छुपाना न था। एक दिन अचानक एक दूर के भाई आए। वे आज़मगढ़ से गुज़र रहे थे, और यूँ ही आ पहुँचे थे। बाबूजी को देखते ही बेहाल हो गए। उन्हें कैसे भी कमरे से बाहर कर के मैं बाबूजी के पास आया तो वे बोले, ‘This world is a strange place. People do not allow a person solitude even at the time of his death.'

बाबूजी के पास रात की ड्यूटी मेरी होती। मैं अपनी खाट उनकी बग़ल में लगा कर लेटता और जहाँ तक संभव हो जागता रहता। एक रात बाबूजी ने आवाज़ दी। मैं उनके पास गया तो उन्होंने एकदम क़रीब बुलाया और सामने की दीवार की ओर इशारा करते हुए कहा, 'There are people outside, who want to come and meet me here. This wall is obstructing them back. Why can’t you make an opening in this wall, so that they all can come in?' मध्यरात्रि के सन्नाटे में, ये शब्द मुझे सिहरा गए। उस समय मुझे यही लगा कि बाबूजी डिलीरियम में हैं। दीवाल में रास्ता बनाने का प्रश्न भी न था। अतः मैं अपने हाथ से बाबूजी का माथा सहलाने लगा। इतना बोलने में ही उनकी शक्ति निचुड़ सी गई लगती थी। थोड़ी देर में उनकी आँखें बन्द हो गईं। मैंने सोचा सो गए हैं।

अगले दिन मेरा बी. एससी. का परीक्षाफल निकला। मैं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। बाबूजी शायद इसी की प्रतीक्षा में थे। उस दिन शाम होते होते बाबूजी कोमा में चले गए। फिर एक ही दिन और जीवित रहे। मृत्यु से थोड़ी देर पूर्व अचानक चैतन्य हुए, भाभी को बुलाया, उनसे कहा कि मुन्ना (मंझले भाई) की शादी का सामान तैयार करें। मंझले भाई के विवाह की अधूरी इच्छा, कैसे भी हो, शब्द बन कर बाहर आ निकली थी। पर, यह सब बोलने का परिश्रम ही बहुत अधिक था। बोलते बोलते आँखें उलट गईं। साँस चलती थी पर नहीं के बराबर। पुकारने या हिलाने डुलाने पर उत्तर न देते थे। मैं डाक्टर बुलाने दौड़ गया। जब तक लौटा, इहलीला समाप्त हो गई थी। बाबूजी का शरीर खाट से उतार कर भूमि पर रख दिया गया था।

थोड़ी देर मैं सन्न खड़ा देखता रहा। बाबूजी चले जा सकते हैं, यह बात तो मन में थी। बाबूजी चले गए हैं, यह भान अब धीरे धीरे हुआ। बाबूजी को रोना धोना पसंद न था। मुझे इसकी जानकारी थी। अतः मैंने मन ही मन ठान लिया था कि उनके सामने कभी कमज़ोर न बनूँगा। जब तक बाबूजी शरीर में रहे, मैं उनके सामने तो क्या अकेले में भी उनकी मृत्यु की संभावना पर रोया न था। अब संभावना एक कठोर वस्तुस्थिति बन गई थी। बाबूजी ही न रहे। वे देख लेंगे, यह शर्म भी न रही। अंदर कुछ बड़ी तीव्रता से उबलते लावे की भांति उमड़ घुमड़ रहा था। बाबूजी के प्रति मेरा प्रेम, नियति की निर्दयता पर क्रोध, अपनी भाग्यहीनता पर आक्रोश, भविष्य की अनिश्चितता का भय। ज़ब्त की हद पार हो गई थी। मेरे अंदर का झंझावात मेरी ही लगाई बाड़ को तोड़ मेरे नेत्रों से अविरल अश्रुधार बन कर बह निकला। देर बाद, एक तेज़ हिचकी आई। मैं सिसक सिसक कर रो पड़ा। अंदर के क्लेश एवं दुःख से निजात पाने का यही सबसे अच्छा ज़रिया था।

अंतत मानना ही पड़ा कि बाबूजी नहीं रहे। आज़मगढ़ के घर में उनकी यादें थीं। बहुत दिनों तक, जब भी वहाँ जाता लगता किसी कमरे से बाबूजी निकल कर सामने आ जाएँगे। पर, वे तो थे नहीं। लगभग एक वर्ष तक जीवन में एक शून्य सा महसूस करता रहा। बड़ी भाभी के ममत्व, भाइयों के प्रेम एवं अन्य स्नेही जनों के संबल ने मुझे संभाल कर रखा। मैने पढ़ाई पूरी की, नौकरी में आ गया। आज अपने पैरों पर खड़ा हूँ। जीवन का उत्तरार्ध है। पर, बाबूजी की याद उतनी ही ताज़ा है।

मृत्यु का पूर्वानुमान और उसके प्रति बाबूजी का पूर्ण समर्पण। बाबूजी सचमुच अनोखे थे। वर्तमान की कसौटी पर शायद वे खरे न उतरते। आज तो यही प्रयास है कि मौत से लड़ा जाए, उसके आगे घुटने टेकने क तो प्रश्न ही नहीं है। पर, यह तो वही बात हुई कि हम सिर्फ जीवन को स्वीकारेंगे, मृत्यु को नहीं। बाबूजी ने बड़का बाबूजी को प्रश्न रूप में चिन्तन का सूत्र दिया था -- 'हम जीवन को स्वीकारते हैं तो मृत्यु को क्यों नहीं?' ये शब्द बहुत दिनों तक मेरे कानों में बजते रहे हैं। गुरु कृपा होने पर अब मैं यह रहस्य कुछ कुछ समझ पा रहा हूँ।

बाबूजी के कोई सदेह गुरू न थे। पर आत्म-चिंतन से, उन्होंने जीवन और मृत्यु के परस्पर अवलम्ब को जान लिया था। जब तक जिए, जीवन को नहीं नकारा। किन्तु, जब मृत्यु की पुकार आई तो यथासंभव बाहर से मुँह मोड़ कर अंतर्मुखी हो गए। उनके इस कृत्य में किसी नासमझ की निर्र्थक खींचातानी, उठापटक, या संघर्ष न थे। एक ज्ञानी की स्वीकृति थी। किसी न किसी तरह सभी मृत्यु के पार जाना चाहते हैं। कोई लड़ता है, तो कोई अपनाता है। मृत्यु से लड़े तो मृत्योपरान्त हम इस जीवन के द्वन्द एवं युद्ध को ही अपने साथ ले कर आगे जाएँगे। स्वीकार में ही यह बात बन सकती है, कि हम सहज हो बिना द्वन्द के मृत्यु में प्रवेश करें। इसी में मृत्यु के पार जाने की संभावना है। बाबूजी से मैंने यही सीखा और यही मेरा मन भी कहता है।

बाबूजी की अनगिनत यादें हैं। कुछ यादें ऐसी भी हैं जिन्हें स्मरण में लाना मुझे रुचिकर नहीं। इनका संबंध मेरी उन कारस्तानियों से है जिनके कारण बाबूजी को चोट पहुँची। पर उनका ज़िक्र न किया तो मेरा अपना बोझ शायद न हल्का हो।

मैंने पहले भी कहा है कि मैं बहुत शैतान था। एक बार पास के स्कूल के ग्राउन्ड में अपने मित्रों के साथ खेल रहा था। वहाँ पीछे की सड़क का एक लड़का, जो मुझसे छोटा था, मौजूद था। खेल खेल में उसने मुझे पीछे से कुहनी मारी। मैंने उसे लंगड़ी मार कर गिरा दिया। वह हँसते हुए उठा और फिर मुझे कुहनी मारी। मैंने फिर उसे लंगड़ी लगाई। यह खेल देर तक चला। पर, एक बार जब वह लड़का गिरा, तो रोते हुए उठा। उसने अपनी कुहनी पकड़ रखी थी। देखते देखते वहाँ सूजन आने लगी। दिखने लगा कि उसकी कुहनी की हड्डी सरक गई है। मैं समझ गया कि कुछ भीषण गड़बड़ हो गई है। डर भी लगा कि मुझे माँ बाबूजी से बहुत मार पड़ेगी। भाग कर घर आगया। पहले ही माँ से उस लड़के की शिकायत की। मेरे गिराने से उसकी हड्डी सरक गई है, यह बात छुपा गया।

एक दिन बाद मेरे कारनामे की ख़बर आख़िर माँ-बाबूजी तक पहुँच गई। यह पता चलते ही उस लड़के का हाल पूछने बाबूजी तुरंत उसके घर गए। उसकी माँ क्रोध में थीं। मेरे लिए बहुत खरा खोटा कहा। बाबूजी को भी ऐसी शैतान औलाद के लिए कुछ उल्टा-सीधा कह दिया। बाबूजी ने कोई प्रत्युत्तर न दिया। सिर झुकाए सब सुनते रहे। जब वे घर लौटे मैं पिटने को तैयार था। मेरी आशंका ग़लत साबित हुई। बाबूजी ने कुछ बोला नहीं।

कुछ-कुछ अपराध बोध तो मुझमें था ही। उस शाम अच्छे बच्चे की तरह सोने के लिए जल्दी बिस्तर में घुस गया। बाबूजी मंझले भाई से बातें कर रहे थे। सिर पर चादर तान मैं सुनने लगा। बड़े विषाद भरे स्वर में बाबूजी ने कहा कि मेरी बदमाशी से भरे बाज़ार में उनकी नाक कट गई। यह सुन कर मुझे बहुत क्लेश हुआ। अपने आप पर बड़ा रोष भी आया। पर, यह सबक़ आगे के लिए ही हो सकता था। बाबूजी ने उस लड़के से सिर्फ ज़ुबानी हमदर्दी न जताई। रोज़ पास की गौशाला से अपने घर के दूध के अलावा आधा सेर दूध अलग से लेते। वह दूध उस लड़के के घर उसके लिए पहुँचाते, उसका हाल चाल पूछते। यह क्रम एक माह तक चला। भाग्य से उस लड़के की उतरी हुई हड्डी बिल्कुल सही सलामत बैठ गई। बाबूजी ने इस घटना को मेरी अनगिनत शैतानियों में से एक समझ कर भुला दिया होगा। पर, मेरे कारण उन्हें किसी की कड़वी बातें निगलनी पड़ीं, यह मैं कभी नहीं भूल सकता।

मैं देख संभल कर कभी न चलता। आँखें रास्ते पर कम, इधर उधर या आसमान को ताकती रहतीं। ठोकर खा कर गिर जाना या फिसल जाना आम बात थी। घुटने या अंगूठे, या कभी कभी दोनों, पर चोट के कारण लत्ता बंधा ही रहता। माँ-बाबूजी बहुत समझाते, पर मैं इतना चंचल था कि इधर उधर ताकने की प्रवृत्ति न छोड़ पा रहा था। सातवीं कक्षा में मैंने एक अँग्रेज़ी की कविता पढ़ी – Little Jhonny Head in Air. इसमें मेरे जैसे ही एक बच्चे की कथा थी। अब से बाबूजी कभी कभी मेरी बेध्यानी के लिए मुझे Little Jhonny कह कर बुलाते। उस कविता के जॉनी का हाल बुरा हुआ था। मैने उससे भी नसीहत न ली।

इन्टरमीडिएट की परीक्षा सर पर थी। मैं घर के अंदर सीढ़ियाँ उतर रहा था। बेध्यानी में फिसल कर गिरा। दाहिने हाथ की कलाई के जोड़ पर बुरी तरह चोट आई। चोट अंदर की थी, सूजन बहुत आ गई। हाथ से लिखा न जाता। परीक्षा दे पाने की कोई संभावना न थी। बाबूजी ने सर पीट लिया। मेरा साल बरबाद होना निश्चित सा था। तभी परीक्षा का टाइम टेबुल आया। प्रथम दो विषयों के प्रश्न पत्रों के बाद अगले विषयों के लिए काफ़ी गैप था। तब तक मेरी हालत शायद पेपर देने लायक़ हो जाती। बाबूजी ने सलाह दी कि पहले दो विषय छोड़ मैं बाक़ी विषयों की परीक्षा अवश्य दूँ। इस बीच बाबूजी ने सिविल सर्जन और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन से मेरी चोट के प्रमाण पत्र लिए। ये प्रमाण पत्र ले वे इलाहाबाद गए, एजुकेशन बोर्ड के सेक्रेटरी से मिले, उन्हें लिखित आवेदन किया कि यदि मेरी चोट थोड़ी ठीक हो जाए और मैं बाक़ी परीक्षा दे दूँ तो बतौर स्पेशल केस मुझे पहले दो विषयों के परचे पूरक परीक्षा में देने की इजाज़त दी जाए। सेक्रेटरी ने इस आवेदन पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया।

ऐसा हुआ कि पहले दो विषयों की परीक्षा होते होते मेरी कलाई की सूजन काफ़ी कम हो गई। बाक़ी परीक्षा मैंने दे डाली। बाद में बोर्ड से मुझे पूरक परीक्षा में उन दोनों विषयों के परचे देने की विशेष अनुमति मिल गई। मैंने वह परीक्षा दी और नतीजे में मुझे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण घोषित किया गया। बाबूजी की दूरदर्शिता एवं सद्प्रयत्न से मेरा एक साल बरबाद होने से बच गया। मुझे सामने देख कर चलने का सबक़ भी मिल गया था। इस घटना का अंत सुखद भले ही हुआ हो पर इसके चलते मैंने बाबूजी को बहुत मानसिक क्लेश में देखा। वे रिटायर हो चुके थे। मैने देखा कि वे किस तरह छटपटा रहे थे कि मेरा साल बच जाए।

जब मेरी चोट का प्रमाण पत्र लेना था, हम डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन के घर गए थे। उनके ड्रॉइंगरूम में कोई बैठक चल रही थी, कई राजनेता उपस्थित थे। बाबूजी जल्द से जल्द इलाहाबाद जाना चाहते थे, अतः मीटिंग के बीच में ही मुझे अंदर ले गए। बहुत से नेतागण एक गोल मेज़ के चारो बैठे थे। एक तरफ़ खड़े रह कर बाबूजी ने चेयरमैन से अपनी बात कही। उन्हें मेरी मेडिकल फ़ाइल व प्रस्तावित सर्टिफ़िकेट का मसौदा दिखाना था। चेयरमैन थोड़ी दूर थे। इसलिए ये कागज़ बाबूजी ने पास में बैठे नेताजी के सिर के ऊपर से उनकी ओर बढ़ा दिये। चेयरमैन की भ्रिकुटी पहले ही चढ़ी थी। अब वे अचानक उन नेता जी की तरफ़ इशारा करते हुए बाबूजी पर बिगड़ कर बोले, 'मास्टर साहब! आप को ज़रा भी तमीज़ है या नहीं !! ये हमारी पार्टी के प्रान्तीय स्तर के ख्यातिप्राप्त नेता हैं, और आप हैं कि इनके सिर पर चढ़े जा रहे हैं !!!'

यह सुनते ही मेरी कनपटी क्रोध से गर्म हो गई। मैने बड़े बड़े पढ़े-लिखों को बाबूजी के पाँव छूते, उनका आशीर्वाद माँगते देखा था। केवल मिडिल पास, और जातिगत राजनीति के बल पर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की गद्दी हथिया लेने वाला, चेयरमैन उन्हें तमीज़ का पाठ पढ़ाए, यह मुझे बरदाश्त न था। मैंने तुरन्त बाबूजी को वहाँ से चलने को कहा।

लेकिन, बाबूजी ने मुझे इशारे से चुप करा दिया। शान्त भाव से उन नेता जी से क्षमा याचना की और चेयरमैन साहब को अपनी मजबूरी बताई। न जाने क्यों चेयरमैन अब ठंडे पड़ गए थे। उन्होंने हमें थोड़ी देर और इन्तज़ार करवाया। फिर वह प्रमाण पत्र दे दिया जिसकी हमें दरकार थी। इस दौरान मैंने बाबूजी में सिर्फ़ एक लाचार पिता को देखा। उनके चेहरे पर एक ऐसी बेचारगी थी जो मैंने उनमें कभी न देखी थी। वह चेहरा मेरी स्मृति में अंकित है। शेर की तरह दहाड़ने वाले मेरे बाबूजी, मेरी वजह से अपना आत्म सम्मान ताक पर रख अवमानना सहने को मजबूर हुए। सहज प्रेम में उन्होंने इस अनुभव के कड़वेपन को जल्द भुला दिया होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। किन्तु, जब भी बाबूजी का वह लाचार चेहरा मेरे ज़हन में आता है, मैं एक आत्म-प्रतारणा से भर जाता हूँ।

बाबूजी कभी कभी अपने सदशिष्यों के बारे में बताते। उनमें एक थे श्री रामकृष्ण मणि त्रिपाठी। वे गोरखपुर विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में बहुत समय विभागाध्यक्ष रहे थे। मैंने गोरखपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाई की। तब कभी त्रिपाठी जी से न मिला। नौकरी में आने के कई वर्ष बाद जब मैं कानपुर में था, तब एक सहकर्मी के घर पर उनसे मिलना हुआ। वे तो बाबूजी के भक्त निकले। बाबूजी को याद कर भाव विह्वल हो उठे। बोले, 'आज जो कुछ भी हूँ, गौड़ साहब की बदौलत हूँ।' उनसे मैंने पूछा कि बाबूजी ने उनके लिए ऐसा क्या किया था। उन्होंने जो कथा सुनाई वह बहुत रोमाँचक थी।

त्रिपाठी जी आज़मगढ़ से थोड़ी दूर पर हरिहरपुर गाँव के थे। पिता के पास खेती थी, पर उसकी कमाई पर्याप्त न थी। धन की आवश्यकता पुरोहिताई के काम से पूरी होती थी। सब मिला कर गुज़ारा चल जाता था। त्रिपाठी जी बहुत मेधावी विद्यार्थी थे। सभी शिक्षकों के, विशेषकर बाबूजी के, प्रिय। जब वे सातवीं कक्षा में थे, अचानक उनके पिताजी चल बसे। प्रश्न था घर खर्च का, खेती का और पुरोहिताई का। माँ ने अपना फ़रमान सुना दिया। किताबें अलग रखो, हल उठाओ, खेती करो, और साथ-साथ यजमानी भी संभालो। त्रिपाठी जी का मन पढ़ाई में था, पर माँ की अवहेलना भी नहीं कर सकते थे।

दस-पंद्रह दिन स्कूल न गए। लेकिन ज्ञानार्जन की इच्छा बहुत प्रबल थी। एक दिन माँ को यह कह कर स्कूल आए कि अपने अध्यापकों को अलविदा कहने जा रहा हूँ। स्कूल के फाटक पर ही बाबूजी से मुलाक़ात हो गई। बाबूजी ने जैसे ही पूछा कि इतने दिन कहाँ रहे, त्रिपाठी जी की आँखों में आँसू आगए। अपना दुखड़ा बाबूजी को कह सुनाया। सब कुछ सुन कर बाबूजी ने कहा, 'फ़िक्र मत करो। मैं तुम्हारी माँ को समझा दूँगा। लेकिन मैं तो तुम्हारे गाँव नहीं जा सकता। तुम्हें कैसे भी हो अपनी माँ को यहाँ स्कूल तक लाना पड़ेगा।'
त्रिपाठी जी की माँ परदानशीन थीं। विवाहोपरान्त, शायद ही उन्होंने कभी हरिहरपुर की चौहद्दी पार की हो। स्कूल जाकर किसी अजनबी अध्यापक से मिलना उन्हें क़तई मंज़ूर न था। पर, बेटे के हठ के आगे उनकी ज़्यादा दिन न चल पाई। एक दिन आ ही गया जब मजबूरन उन्हें पालकी में बैठ गाँव के एक दो बुज़ुर्गों को साथ ले स्कूल तक का रास्ता तय करना पड़ा।

बाबूजी ने साफ़गोई से बात की। कहा, 'बहन, तुम्हारी माली हालत क्या है, मैं नहीं जानता। बस यह कह सकता हूँ कि तुम्हारा बेटा होनहार है। इसे हर हाल में पढ़ना चाहिए। खेती-बाड़ी तो बटाई पर भी हो सकती है। कुछ साल हाथ तंग भी रहें तो क्या ? तुम बस बच्चे को स्कूल भेजती रहना। पढ़ाई का ज़िम्मा मेरा ।' माँ को हितैषी अध्यापक की बात अच्छी लगी। दिक़्क़त ज़रूर होने वाली थी, पर उन्होंने हाँ कर दी।

त्रिपाठी जी पढ़ाई चल निकली। स्कूल में फ़ुल फ़्रीशिप मिल गई। अब भी जो थोड़ी बहुत फ़ीस देनी होती, बाबूजी दे देते। साथ ही कॉपी-किताब और क़लम-पेन्सिल की व्यवस्था भी देख लेते। उस समय बाबूजी का स्कूल सिर्फ़ हाईस्कूल तक था। त्रिपाठी जी मेधावी ही नहीं, अति मेधावी निकले। हाई स्कूल परीक्षा में प्रदेश की मेरिट लिस्ट में आ गए। वज़ीफ़ा मिला, और बनारस में क्वीन्स कॉलेज में दाख़िला भी। फिर कभी त्रिपाठी जी ने जीवन में पीछे मुड़ कर न देखा।

यह सब सुनाते सुनाते त्रिपाठी जी बाबूजी के व्यक्तित्व का ख़ाका खींचने लगे। उन्होंने बाबूजी को उनकी नौजवानी में देखा था। तब वे बहुत अच्छे कपड़े पहनते, स्कूल की हर गतिविधि में, विशेषकर स्पोर्टस में, सक्रिय योगदान करते। चालीस-पैंतालीस वर्षों के अंतराल के बाद भी त्रिपाठी जी बड़े उत्साह से सब बता रहे थे। बाबूजी कैसे गरमियों में भी सूती कपड़े के सूट पहनते। कैसे चलते। कितने रोचक ढंग से इतिहास पढ़ाते। सातवीं-आठवीं क्लास के भी विद्याथियों के सम्मुख विषय सजीव हो उठता। घटनाओं और व्यक्तित्वों में ही नहीं, बल्कि इतिहास के महानद के रूप में जिसमें भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, एवं धार्मिक परिस्थितियों की धाराएँ समवेत रूप में दिखतीं।

मैं बड़े ध्यान से यह सब सुन रहा था। मैं बाबूजी की अधेड़ावस्था की संतान था। जब पैदा हुआ, तब उनकी उम्र चौवालिस पैंतालिस की रही होगी। जब तक मैंने होश संभाला, वे कपड़े लत्ते और रखरखाव में बिल्कुल ही बेपरवाह हो गए थे। उन्हें स्वयं कोई गेम खेलते मैंने कभी न देखा था। पढ़ने वालों में, इतिहास का विषय अपना महत्व खो चुका था। इतिहास वे ही पढ़ते जो इतने मेधावी न थे कि विज्ञान पढ़ सकें। अतः धीरे धीरे बाबूजी का विद्याथियों को पढ़ाने का उत्साह भी कम हो गया था (इस कमी की कुछ कुछ भरपाई तब हुई जब मंझले भाई ने एम. ए. तक इतिहास पढ़ा)। त्रिपाठी जी द्वारा खींचा गया बाबूजी का चित्र मेरे लिए नया था। मुझे यह अहसास हुआ कि त्रिपाठी जी के माध्यम से ईश्वर ने मुझे बाबूजी के बहुआयामी व्यक्तित्व को री-डिसकवर करने का एक अवसर और दिया है। जब उनके पास से उठा तो मुझे उनकी प्रफुल्लता में बाबूजी की ख़ुशबू आ रही थी। मैने मन ही मन श्रद्धापूर्वक उनके चरणों में नमन किया।

बाबूजी की एक बात और कहनी है। अपने कथानक का प्रारंभ मैं इसी से करना चाहता था। किन्तु मन में कुछ ऐसी प्रेरणा हुई कि इसे समापन के लिए बचा लिया। बात मेरे बचपन की ही है। मैं पाँचवीं या छठी कक्षा में रहा हूँगा। बड़े भैया और भाभी के साथ फ़िल्म देखने जाना था। उन दिनों ऐसे मौक़े बहुत कम आते थे। अतः मैं बड़े जोश में था। स्पेशल मौक़े के लिए कपड़े भी स्पेशल चाहिए थे। अपने संदूक के सारे कपड़े मैंने बाहर निकाल रखे थे। शर्ट, पैन्ट, मोज़े। बार बार एक का दूसरे से मिलान करके देखता कि क्या पहनूँ। मन कहीं न जम रहा था। बड़ी उधेड़ बुन में था। बाबूजी थोड़ी दूर बैठे मेरी दुविधा परख रहे थे। अचानक मेरे पास आ कर बोले, ‘Do you wish to be a tailor-made gentleman?' मेरी समझ में ख़ाक न आया। उस समय इतनी अँग्रेज़ी कहाँ आती थी। बाबूजी ने ही बताया कि उन्होंने एक मुहावरे का प्रयोग किया है, तब उनकी बात का मर्म पता चला। उन्होंने कहा, 'अपनी पहचान ऐसी बनाओ कि लोग तुम्हें कपड़ों से नहीं बल्कि तुम्हारे सद्गुणों से पहचानें।' यह बात मेरे दिल में घर कर गई।

बड़ा हुआ तो ऐसे अनेक भद्रपुरुषों को भी मिला जिनमें झकाझक कपड़ों या चमाचम बाहरी गेटअप के अलावा सज्जनता का कोई अन्य लक्षण न था। तब पता चला कि बचपन में ही बाबूजी ने कैसा सुन्दर मंत्र मुझे दिया था। आज देख सकता हूँ कि बाहर के tailor से ज़्यादा ख़तरनाक अंदर का tailor है, हमारा अपना 'अहं', जो षड्-रिपुओं के रंग में रंगी पोशाकें हम पर मढ़ रहा है। अपनी ढेरों कमियों को देखता हूँ। यह भी देखता हूँ कि मेरा अहं किस प्रकार नक़ली आत्मसम्मान के आवरण में उन्हें उचित ठहराने की दलीलें गढ़ रहा है। तब अपने आप ही यह जुमला मेरे अंदर बज उठता है – tailor-made gentleman। अच्छी बात यह है कि ऐसे अवसरों पर मिली अंतर जागृति से ही अन्तर परिवर्तन की संभावना बनती है।

अंत में यही कहना चाहता हूँ कि बाबूजी मेरे जीवन और व्यक्तित्व में इस तरह पैवस्त हैं कि पूरा जीवन उन्हीं के साथ जीता चला जा रहा हूँ। उनकी यादों और शिक्षाओं के आश्रय में नित्य कुछ सीखता चलूँ ईश्वर से यही मेरी प्रार्थना है।

हसन साहब

बचपन से ही मैं बहुत खिलंदड़ा था। पढ़ने में मन बिल्कुल न लगता था। किसी तरह ठीक-ठाक नम्बरों से पास हो जाता था, बस। हक़ीक़त यही थी कि पढ़ाई लिखाई यूँ ही चलती थी जैसे कोई बोझा ढो रहा हूँ। लेकिन, पता नहीं क्यों, मेरे अध्यापकगण मुझ पर सदैव बहुत मेहरबान रहे। उन्होंने मुझमें जो व्यक्तिगत रुचि दिखाई, वह किसी कीमियागरी से कम न थी। उसके जादू से ही अट्ठारह-उन्नीस की वय पार करते करते मेरे भीतर अध्ययन को ले कर एक उत्साह या लगन पैदा हो गई। आगे का रास्ता अपने आप खुल गया। इन मेहरबान अध्यापकों में मेरे लिए “हसन साहब” अविस्मरणीय हैं।

इन्टरमीडिएट में मेरे विषय थे -- फ़िज़िक्स, मैथेमैटिक्स व केमिस्ट्री। पढ़ता था उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के शिब्ली नेशनल कॉलेज में। हसन अहमद ख़ान, जिन्हें हम सब “हसन साहब” कहते थे, इसी कॉलेज में इन-ऑरगैनिक केमिस्ट्री पढ़ाते थे। ओजस्वी आवाज़ के मालिक, हसन साहब एक आदर्श अध्यापक थे। इतनी तन्मयता से पढ़ाते कि पूरी क्लास मंत्र मुग्ध हो जाती। कोर्स पूरा करने के लिए अक्सर एक्सट्रा क्लास लेते। अपनी मौज में आ जाते तो सिलेबस की परवाह किये बिना, आगे का भी बहुत कुछ बता जाते। विद्यार्थी थक जाते पर वे न थकते। पढ़ाते समय उनका उत्साह देखते बनता था। उनका पूरा प्रयत्न यही रहता कि अपना सारा ज्ञान घोल कर विद्यार्थियों के कानों में उंडेल दें।

उनका यह उत्साह पढ़ाने में ही हो, ऐसा न था। हसन साहब जोश का चलता-फिरता पावरहाउस थे। वय होगी, तीस-बत्तीस की। क़द थोड़ा नाटा। गोरा-चिट्टा, सेहतमंद, गठा बदन। अंग अंग से सहज स्फ़ूर्ति टपकती थी। क्लीन-शेव्ड, स्वाभाविक मुस्कान से विभूषित दमकता चेहरा। तन पर हलके रंग के कपड़े -- अक्सर सफ़ेद या फिर क्रीम कलर की साफ़-शफ्फ़ाफ़ पतलून व शर्ट। पैरों में चमाचम चमकते जूते। चाल-ढाल में चीते जैसी चुस्ती। क्लास हो, या खेल का मैदान, या फिर कालेज का अन्य कोई कोना, हसन साहब सब जगह दिख जाते। उनका व्यक्तित्व चुम्बकीय था। लोग बरबस उनकी ओर खिंचे चले आते थे। भय किस चिड़िया का नाम है, यह तो हसन साहब जानते भी न थे। कहीं भी, किसी स्टूडेन्ट को या और किसी को भी कोई अनुचित व्यवहार करते देखते, तो तुरंत टोक देते। और, यदि वह व्यक्ति उद्दंड हुआ और बहस करने लगा, तो वह कितना भी बड़ा बदमाश क्यों न हो, उसकी शामत आ जाती। हसन साहब आव देखते न ताव, तुरंत उसकी धुनाई कर देते। हम सभी विद्यार्थियों के तो वह हीरो थे।

मैं कोई अपवाद न था। हसन साहब का व्यक्तित्व मुझे भी उतना ही आकर्षित करता था जितना और सबको। मैं कॉलेज की बैडमिन्टन टीम में था। डिबेट्स आदि में भी हिस्सा लेता था। इन गतिविधियों के चलते हसन साहब के साथ क्लास के बाहर भी काफ़ी मेल-जोल हुआ। धीरे-धीरे, न जाने कैसे और कब, हसन साहब के साथ एक गहरे नैकट्य का सूत्रपात हो गया। उसमें एक भीनी आत्मीयता थी, सभी औपचारिकताओं के परे। एक बार हसन साहब के पास हाई स्कूल की ढेरों उत्तरपुस्तिकाएँ जाँचने के लिए आईं। डाक में कुछ गड़बड़ हो गई। इससे वे देर से पहुँची थीं। अब, बहुत कम समय में ही उन्हें जाँच कर वापस करना था। हसन साहब ने मुझे विश्वास में लिया। पहले उन्होंने यह सिखाया कि हर उत्तर पर किस प्रकार नम्बर देने हैं। फिर, उन्होंने सौ पुस्तिकाएँ मुझे दे दीं और कहा कि मैं ही उनमें मार्किंग कर दूँ। मैंने पूरे मनोयोग से यह काम कर दिया। जंची-जंचाई पुस्तिकाएँ समय पर वापस हो गईं। तब से मुझे यह आभास हो गया कि हसन साहब मुझे अपना ख़ास समझते हैं।

हसन साहब मुझे बहुत अच्छे लगते। पर उनका विषय, केमिस्ट्री, मुझे बिल्कुल न भाता। मेरा बेन्ट ऑफ़ माइन्ड मैथेमेटिकल था। इसके चलते, गणित और फ़िज़िक्स में मेरी गति थी। कारण स्पष्ट था। ये विषय ऐसे थे कि इनका कोई भी पाठ एक बार अच्छी तरह पढ़ लिया, तो वह मन में अपने आप ही भली भाँति बैठ जाता था और परीक्षा में उत्तर देना सहज हो जाता था। इस मायने में, केमिस्ट्री का विषय नितान्त अलग था। यूँ तो यह विषय औरों के मुकाबले सरल था और पढ़ते समय सब कुछ समझ में आ जाता था। पर, सारा ज्ञान फ़ार्मूलों और केमिकल-रिऐक्शन्स के ईद-गिर्द था। सिर्फ़ समझ लेने से ही यह सब याद न रह पाते थे। आवश्यकता इस बात की थी कि समझ को ताक पर रख कर, सब कुछ रट लिया जाए। रटे-रटाये मसाले को हू ब हू कॉपी पर उतारा जाए तो ही सफलता गारंटीड थी।

पर, अफ़सोस ! रटन्त विद्या मेरे स्वभाव ही में न थी। इसलिए केमिस्ट्री में मैं पिछड़ जाता था। उसके परचों में मुझे अपेक्षित नम्बर न मिलते। इन-ऑरगैनिक केमिस्ट्री, जो हसन साहब पढ़ाते थे, उसमें किसी प्रकार रुचि बन गई थी। परीक्षा आने तक उसकी तैयारी तो रोते-गाते हो गई। पर, ऑरगैनिक केमिस्ट्री का वास्ता सिर्फ़ रट्टा लगाने से ही था। उसमें बात न बनी। उसके परचे में तो मुझे पास-मार्क्स से भी कम अंक मिले। नतीजतन, इन्टरमीडिएट की परीक्षा में जहाँ एक ओर फ़िज़िक्स व गणित में बहुत अच्छे नम्बर मिले, तो दूसरी ओर केमिस्ट्री में बमुश्किल-तमाम 45 अंक ही हासिल हो सके।

फ़िज़िक्स व गणित में मिले नम्बरों के चलते कुल मिला कर मैं इन्टरमीडिएट में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। अब आगे क्या पढ़ूँ ? यह एक ज्वलंत प्रश्न था। मेरा बस चलता तो विज्ञान छोड़ कर इतिहास जैसे विषय ले आर्ट्स में ग्रैजुएशन करता। पर, मेरे पिताजी का मत था कि ग्रैजुएशन तो मुझे विज्ञान में ही करना चाहिए। पिताजी की बात अंगद के पाँव से कम वज़नदार न थी। उसके आगे मेरी इच्छा की भला क्या बिसात........। आख़िरकार, तय यह हुआ कि मैं बी. एससी. ही करूँगा। यह पढ़ाई आगे शिब्ली नेशनल कॉलेज में ही होनी थी।

बी. एससी. के लिए दो विषयों -- फ़िज़िक्स और गणित -- को चुनने में कोई समस्या न थी। तीसरा विषय क्या हो ? यह चुनाव कठिन था। केमिस्ट्री ने इन्टरमीडिएट में मेरा जो हाल किया था, उसके चलते केमिस्ट्री के नाम से ही मुझे दहशत होती थी। आगे केमिस्ट्री पढ़ना ऐसा लगता जैसे कोई ख़ुद ही जाकर किसी बिगड़ैल साँड़ को यह दावत दे आए कि आ मुझे मार। मुझे पूर्ण विश्वास था, केमिस्ट्री लिया तो बी. एससी. कभी पास न हो सकूँगा।

मेरे आसपास इसके कई जीते-जागते उदाहरण भी थे। सायंस ले कर ही पढ़ेंगे और ग्रैजुएट बनेंगे, यह आग्रह लिए कितने लोग कॉलेज में आ गए थे। धैर्यवान भी थे। माँ-बाप के पैसे के बल पर कई के पास तो पंचवर्षीय योजनाएँ भी थीं। पर, उनकी बुद्धि और सायंस का मेल न बैठता था। नतीजा यह कि लाख कोशिशों के बावजूद ग्रैजुएट न बन सके थे। उनकी तमन्नाएँ, सरकारी दफ्तरों की रैक में उपेक्षित पड़ी धूल-धुलेटी बन गई फ़ाइल जैसी, बेरंग हो गई थीं। मन की मन में ही रह गई थी, डिग्री बन कर हाथ तक न पहुँच पाई थी। ऐसे लोगों को देख कर मेरा डरना स्वाभाविक था। समस्या विकट थी।

अंतत मुझे केमिस्ट्री से कन्नी काट लेने का एक रास्ता मिल ही गया। पता चला, शिब्ली नेशनल कॉलेज में बी. एससी. के विद्याथियों को मिलिटरी सायंस नाम का एक अन्य विषय भी उपलब्ध था। मैंने आव न देखा ताव केमिस्ट्री को तिलांजलि दे दी और बी. एससी. में अपना एडमिशन फ़िज़िक्स, मैथ्स व मिलिटरी सायंस के साथ वहीं शिब्ली नेशनल कॉलेज में करा लिया।

समय आने पर बी. एससी. प्रथम वर्ष की कक्षाएँ शुरू हो गईं और मैं नियमित कॉलेज जाने लगा। कॉलेज तो वही था जहाँ से मैंने इन्टरमीडिएट किया था। अतः अध्यापकगण भी वही थे। केमिस्ट्री में ख़राब नतीजा आने और केमिस्ट्री छोड़ देने के कारण मैं इस विषय के अध्यापकों से नज़रें चुराता था। पर हसन साहब से बचना मुमकिन न था। एक-आधा हफ़्ता बीता होगा कि एक दिन मैं उनके सामने पड़ ही गया। मैं बस दुआ सलाम कर बच निकलने की फ़िराक़ में था। तभी हसन साहब ने पूछा, “तुम किस सेक्शन में हो? मैंने हर सेक्शन में तुम्हें तलाश लिया, पर तुम कहीं भी दिखे नहीं?”

अब कुछ छिपाना संभव न था। मैंने केमिस्ट्री को अलविदा कहने और मिलिटरी सायंस को गले लगाने की दास्तान बिना लाग लपेट के सुना डाली। हसन साहब ने पूरी बात सुनी, पर कुछ प्रतिक्रिया न दिखाई। बोले, “तुम्हारी क्लासेज़ तो दोपहर में ढाई बजे ख़त्म हो जाती हैं। तुम चार बजे मेरे घर आना।” उस समय मुझे भी एक क्लास में जाना था। उसकी गड़बड़ में था। इसलिए, हसन साहब के सामने एक संक्षिप्त सी हामी भरी और आगे बढ़ गया।

शाम हुई। चार बजने को आए। मैं अपने घर से हसन साहब के यहाँ जाने को निकल रहा था। अचानक मन में बात उठी कि हसन साहब से मैंने यह तो पूछा ही न था कि उन्होंने मुझे अपने घर किसलिए बुलाया है। दिमाग़ दौड़ाया, तो कुछ ध्यान में आया। पंद्रह-बीस दिनों पहले हाई स्कूल आदि के लिए बोर्ड की सप्लीमेंट्री परीक्षाएँ हुई थीं। लगा कि फिर कुछ उत्तर पुस्तिकाएँ हसन साहब के पास इवैल्यूएशन के लिए आई होंगी। पुराने अनुभव की बिना पर मैंने यह भी मान लिया कि उनको फिर मेरी मदद की ज़रूरत होगी। अब मार्किंग के लिए एक अदद लाल पेंसिल तो लगने वाली ही थी। इसलिए, घर में पड़ी एक लाल पेंसिल को निकाला। ब्लेड से छील कर, उसकी नोक दुरुस्त की और उसे जेब के हवाले किया। इस तरह, अपनी समझ से, मैं ज़रूरी हरबा-हथियार से लैस हो गया था। फिर, पूरी निश्चिन्तता के साथ, मैं हसन साहब के घर की ओर बढ़ चला।

हसन साहब का घर आया। मैंने कॉल बेल दबाई। वे बाहर निकले। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर कुछ नाराज़गी का भाव उभरा। वे बोले, “शागिर्द क्या उस्ताद के पास ऐसे ही ख़ाली हाथ झाड़ते हुए जाता है?” मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरे असमंजस को भाँप कर, उन्होंने खुलासा किया, “इस तरह ख़ाली हाथ क्यों आए हो? हाथ में क़लम-कॉपी तो होनी ही चाहिए। वह कहाँ है?”

मैंने स्पष्ट किया कि मैं तो उनके पास यह समझ कर आया था कि उन्होंने मुझे उत्तर पुस्तिकाएँ जांचने के लिए बुलाया है। सबूत के तौर पर, मेरे पास जेब में पड़ी लाल पेंसिल थी ही। मैंने उसे बाहर निकाला और उन्हें दिखाया। इस पर हसन साहब हँसने लगे। हँसते हँसते बोले, “तुम्हें यहाँ कॉपी जाँचने के लिए नहीं बुलाया है। केमिस्ट्री का डर तुम्हारे दिलो-दिमाग़ पर भूत की तरह सवार है। इस भूत को भगाना है। इसलिए तुम्हें यहाँ बुलाया है।”

यह कह कर वे घर के अंदर चले गए। बाहर आए तो उनके एक हाथ में एक पुराना-धुराना सा रजिस्टर था। दूसरे हाथ में एक क़लम थी। बाहर बरामदे में एक चौकी रखी थी। हसन साहब उस पर ही बैठ गए और मुझे भी बिठा लिया। रजिस्टर का एक ब्लैंक पन्ना खोल लिया। केमिस्ट्री के मूलभूत सिद्धान्तों के विषय में धारा-प्रवाह बोलने लगे। कुछ-कुछ प्वाइंट्स उस रजिस्टर में नोट करते जाते। यह क्रम चार-पाँच घंटे चला। फिर मुझे छुट्टी मिली। साथ ही यह आदेश भी मिल गया कि अगले दिन भी उसी प्रकार उनके घर पर चार बजे फिर उपस्थित हो जाऊँ।

मैंने अपने जानते-बूझते केमिस्ट्री के साथ सभी नाते-रिश्ते काट लिए थे। इसलिए हसन साहब का केमिस्ट्री पढ़ाने का आग्रह मुझे दुराग्रह ही लग रहा था। हसन साहब के घर जाने का क्रम एक बार जो शुरू हुआ, तो चलता ही रहा। एक सप्ताह बीतने को आया...........। मैं संध्या समय घूमने-फिरने या खेलने का आदी था। शाम को हसन साहब के घर जाना हो तो मौज-मस्ती का चान्स ही न था। फिर, हसन साहब के घर पर केमिस्ट्री पढ़ना...। यह बेगार लगता था। कालेज में तो मैं मिलिटरी सायंस की क्लास में ही जाता था।

इसलिए, मुझे लगता था कि जबरन केमिस्ट्री पढ़ा कर हसन साहब बिला-वजह मेरे ऊपर ज़्यादती कर रहे हैं। उनके सामने मेरी ज़बान न खुलती। पर, घर आ कर रोज़ देर रात तक कुढ़ता और कुड़-कुड़ करता रहता। यह दुखड़ा पिताजी दो-तीन दिन चुप-चाप सुनते रहे। एक दिन बोले, “यहाँ आ कर बड़-बड़ करने से क्या होगा? तुम्हें नहीं पढ़ना है, तो बेहतर होगा कि तुम हसन साहब से साफ़-साफ़ अपने दिल की बात बता दो। कह दो कि किसी भी हाल में अब तुम्हें केमिस्ट्री नहीं पढ़नी, और छुट्टी पा लो।”

उस समय तो मैं आवेश में था। इसलिए मैंने भी ज़ोर-शोर से सहमति जताई और कहा कि बस दूसरे ही दिन हसन साहब को सब कुछ साफ़-साफ़ बोल कर मामला सलटा दूँगा। पर, जब मौक़ा आया तो चाहते हुए भी मैं यह सब न कर सका। भीतर झाँक कर देखा तो कारण स्पष्ट था। हसन साहब के लिए मेरे मन में आदर का सघन भाव था। ठीक है, उन्होंने मेरे ऊपर पढ़ाई थोपी थी, जो मुझे अनाधिकार चेष्टा सी लगती थी। पर, कहीं से यह भी पता था कि मुझमें कोई सुरख़ाब के पर नहीं जड़े हैं। हसन साहब मेरे पीछे लगे हैं क्यों कि उनके हृदय में मेरे लिए प्रेम व अपनापन है। वरना, उन्हें भला क्या ग़रज़, जो मेरे पीछे भागें और मुझ पर अपना बेशक़ीमती वक़्त ज़ाया करें। मुझे यह भी आभास था कि यदि मैं उन्हें साफ़-साफ़ ना बोल दूंगा, तो उनके इस अपनत्व को अवश्य ठेस पहुंचेगी। मैं ही ऐसा कुछ करूँ जिससे हसन साहब के दिल को चोट पहुंचे, यह ख़ुद मेरी ही निगाह में बहुत बड़ी हिमाक़त होता। इसलिए, मैंने अपने मन को ही समझा लिया। ठीक है, हसन साहब ही अपने दिल की मंशा पूरी कर लें ! सो, लगभग एक सप्ताह और यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा।

कुछ भी रटने के प्रति मेरी उदासीनता से हसन साहब भली भाँति परिचित थे। इसलिए उन्होंने ने बहुत से ऐसे नए कॉन्सेप्टस से मेरा परिचय कराया जिनमें बहुत कुछ मैथेमेटिकल था। उनको आत्मसात कर लेने पर विभिन्न तत्वों व रसायनों के गुण-धर्म आदि को समझना, उनका अंदाज़ लगा लेना, सहज होता जा रहा था। मेरे बेन्ट ऑफ़ माइन्ड के अनुरूप होने से, यह सब सीखने में मुझे रस आने लगा था। मेरी दृष्टि बदल रही थी। मैं हसन साहब की निगाह से केमिस्ट्री को देख रहा था। उसके आलोक में केमिस्ट्री की रंगत कुछ अलग ही दिखाई देने लगी थी।

आख़िरकार, हसन साहब की अनौपचारिक संध्या क्लास का अंतिम सत्र भी आ पहुंचा। उस रोज़, जब पढ़ाई ख़त्म हो गई, तब उन्होंने पूछा, “पिछले पंद्रह रोज़ से तुम्हें जो कुछ बताया है, वह कैसा लगा?” मैं कह उठा, “सर ! यह सब तो बहुत आसान है और समझने जैसा है।” उन्होंने कहा, “बरख़ुरदार ! बी. एससी. की केमिस्ट्री ऐसी ही है। तुम ख़ामख़्वाह ही डर गए थे। अब मिलिटरी सायंस छोड़ कर केमिस्ट्री ले लो। मैने तुम्हारे लिए हेड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट से बात कर रखी है। तुम कल से ही थ्योरी व प्रैक्टिकल दोनों की क्लासेज़ अटेन्ड कर सकते हो।” हसन साहब के इस स्नेहपूर्ण आमंत्रण को मैं अस्वीकार न कर सका। दूसरे दिन ही मिलिटरी सायंस छोड़ कर केमिस्ट्री में आ गया।

कहीं पर कुछ जादुई हो गया था। केमिस्ट्री में अभी भी बहुत कुछ रटन्त विद्या के भरोसे था। पर, मेरी जिज्ञासा कुछ इस प्रकार जागृत हो गई थी कि हर बात की तह में जाकर उसे आत्मसात करने की कोशिश करता। इसका जो असर हुआ, वह मेरी कल्पना से भी परे था। केमिस्ट्री में मैं अब फिसड्डी बिल्कुल न रहा, बल्कि क्लास के सबसे प्रबुद्ध क्षात्रों में से एक बन गया। रोज़ ब रोज़ केमिस्ट्री में मेरी जिज्ञासा व प्रतिभा दोनों ही निखरते गए।

बी. एससी. फ़ाइनल की परीक्षा का परिणाम एक सुखद आश्चर्य ले कर आया। दो वर्ष पूर्व, मैं केमिस्ट्री छोड़ कर भाग रहा था। अब मुझको केमिस्ट्री में फ़िज़िक्स और मैथेमैटिक्स के मुकाबले अधिक नम्बर मिले। सब विषयों के प्राप्तांक मिला कर कॉलेज में मेरा प्रथम स्थान था। हमारी युनिवर्सिटी का प्रभाव क्षेत्र बड़ा था। उससे अफ़िलिएटेड कॉलेजेज़ सात ज़िलों में थे। पूरी यूनिवर्सिटी और उससे जुड़े सभी कॉलेजों को मिला कर देखा जाता तो भी केमिस्ट्री में मुझे सर्वाधिक अंक मिले थे। इस उपलब्धि से प्रोत्साहित हो कर मैंने एम. एससी. भी केमिस्ट्री में करने का फ़ैसला लिया।

एम. एससी. के लिए गोरखपुर यूनिवर्सिटी में दाख़िला मिला। बाहर दूसरे शहर जाना था। जाने से पहले, हसन साहब को मिलने गया। वे मुझे पहली बार अपने घर के भीतर स्टडी में ले गए। वहाँ दो आल्मारियों में केमिस्ट्री की टेक्स्ट-बुक्स सिलसिलेवार लगी हुई थीं। उन्होंने उनकी ओर इशारा करते हुए कहा, “फ़र्स्ट ईयर में केमिस्ट्री की सभी ब्रान्चेज़ पढ़नी है -- फ़िज़िकल, इन-ऑरगैनिक व ऑरगैनिक। सबकी टेक्स्ट-बुक्स ख़रीदना संभव नहीं। इसलिए स्टूडेंट्स मजबूरन लाइब्रेरी का सहारा लेते हैं। इसमें दिक़्क़त यह है कि जब जो चाहो वह किताब नहीं मिलती। पर, सभी बेसिक टेक्स्ट-बुक्स मेरे पास यहाँ हैं। तुम सब ले जाओ। जैसे जैसे ज़रूरत न रहे लौटा देना।”

कहते हैं, गुरु जब देने पर आता है तो शिष्य लेते-लेते भले ही थक जाए, गुरु देते नहीं थकता। हसन साहब के माध्यम से उस दिन इस कथन की सत्यता की प्रतीति मुझे मिली। यह सर्व-विदित था कि किताबें जमा करने और पढ़ने का शौक़ हसन साहब को जुनून की हद तक है और वे अपनी किताबों के लिए बहुत पज़ेसिव हैं। पर, वे इतनी उदारता से मुझे सब कुछ दे देंगे, यह स्वप्नवत् था। मन कृतज्ञता भाव से ओत-प्रोत था। मुँह तो खुला, पर बोल न फूटे। मैंने मात्र सर हिला कर हामी भर दी। हसन साहब ने कहा, “ठीक है, जो किताब चाहे ले लो। बस एक ही शर्त है। इन्हें कवर लगा कर रखना, गंदी न होने देना। और कहीं पर पेन्सिल से भी कुछ न लिखना।”

जो मिल रहा था उसके लिए वह शर्त बहुत मामूली थी। दो बड़े-बड़े स्टील के बक्से भर कर हसन साहब की किताबें मैं अपने साथ गोरखपुर ले गया। वहाँ किताबों के मामले में, मैं अपने बैच का सबसे अमीर विद्यार्थी था। वे किताबें सामने होतीं तो लगता कि हसन साहब ही सामने हैं। कई बार उन किताबों में मैं कुछ पढ़ रहा होता तो कल्पना में हसन साहब होते। सोचता कि यदि हसन साहब ही वह सब कुछ पढ़ रहे होते तो उन्हें क्या और कैसा लग रहा होता। इस तरह, उन किताबों के माध्यम से, हसन साहब मेरे साथ एम. एससी. के दो सालों में सतत बने रहे। बाद में, पढ़ाई पूरी होने पर वे किताबें हसन साहब को वापस लौटा दीं। एम. एससी. में भी मेरा रिज़ल्ट अच्छा रहा। प्रथम श्रेणी में पास हुआ। अपने विभाग में युनीवर्सिटी में सिर्फ़ एक अंक से मेरा दूसरा स्थान आया। फिर, मुझे यूनिवर्सिटी में ही रिसर्च स्कॉलरशिप मिल गई। इस प्रकार केमिस्ट्री में ही दो साल शोध कार्य करने का अवसर मिला।

शोध कार्य पूरा न हो सका। उस के बीच में ही मैं 1974 की प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में सफल हो भारतीय राजस्व सेवा में आ गया। एक बात उल्लेखनीय है। रिसर्च में लगे होने से, मेरे पास समय का अभाव था। इस कारण प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी के लिए कुल पच्चीस-तीस दिन ही मिले थे। परीक्षा के लिए मैंने तीन विषय चुने थे – केमिस्ट्री, ब्रिटिश-हिस्ट्री व यूरोपियन-हिस्ट्री। केमिस्ट्री में एक साल पहले ही एम. एससी. किया था। पर ब्रिटिश हिस्ट्री व यूरोपियन हिस्ट्री की किसी पुस्तक को कभी हाथ भी न लगाया था। इसलिए, मेरा पूरा फ़ोकस यूरोपियन व ब्रिटिश हिस्ट्री पर था और तैयारी के सभी दिन पूरी तरह इन दोनों विषयों को ही दे दिये। केमिस्ट्री के पेपर के पहले तीन दिन का गैप था। उसमें ही कुछ-कुछ रिवीज़न कर परीक्षा दे दी। रिज़ल्ट आया तो पता चला कि हिस्ट्री के परचों में अधिक नम्बर नहीं मिले थे। हाँ, केमिस्ट्री के पेपर में, जहाँ कोई तैयारी न थी, मुझे 88% अंक मिले थे। उस वर्ष केमिस्ट्री में प्रशासनिक सेवा परीक्षा में पूरे भारत में यह सर्वाधिक अंक थे। इस प्रकार केमिस्ट्री के चलते ही मैं भारतीय राजस्व सेवा में आ सका।

कहाँ केमिस्ट्री से भागता एक भगोड़ा विद्यार्थी। कहाँ केमिस्ट्री की ही बदौलत भारतीय राजस्व सेवा में पदार्पण करने वाला एक सफल प्रतियोगी। इस रूपान्तरण के मूल में थीं हसन साहब द्वारा निःस्वार्थ रूप से मुझे दी गईं, प्रेमल ज्ञान से भरी, वे पंद्रह संध्याएँ। मेरे जीवन के सफ़र में ये संध्याएँ बहुत बड़ा मील का पत्थर हैं। केमिस्ट्री के भय की जड़ें मेरे मन में बहुत गहरी थीं। इन संध्याओं ने इस भय का निराकरण ही नहीं किया बल्कि मेरे अंदर केमिस्ट्री के लिए प्रेम व उत्साह जगाया। इस प्रकार आज जो भी हूँ उसमें प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूप से हसन साहब की कहीं न कहीं एक सशक्त उपस्थिति मेरे भीतर अवश्य है। उनसे जो मिला है, उसके लिए उनका कितना भी धन्यवाद करूँ कम ही होगा।

नौकरी में आने के बाद, हसन साहब के साथ संपर्क न रह सका। कई वर्ष बाद ही आज़मगढ़ जाना हो पाया। तभी कॉलेज जाने का भी अवसर बना। पता लगा कि केमिस्ट्री की लैब की नई ईमारत बन गई है और हसन साहब वहाँ पर हैं। लैब में जाकर देखा तो हसन साहब दूर एक कोने में कुर्सी पर बैठे किसी अन्य अध्यापक से बातें कर रहे थे। हसन साहब से रू-ब-रू हुए आठ-दस वर्ष बीत गए थे। पास पहुँचते पहुँचते, मैंने देखा कि हसन साहब कुछ-कुछ बदल गए थे। यूरोपियन स्टाइल के कपड़ों की जगह शेरवानी-पायजामे ने ले ली थी। क्लीन-शेव की जगह, मौलाना जैसी लहराती हुई दाढ़ी थी। पूरे व्यक्तित्व में वह पहले जैसी तेज़ी-तर्रारी न थी। उसकी जगह एक ठहराव सा था। हसन साहब के सामने से हर साल सैकड़ों स्टूडेन्ट्स निकल जाते होंगे। मुझे भरोसा न था कि इतने साल बाद वे मुझे पहचान सकेंगे भी कि नहीं। उनके निकट पहुंचा तो कुछ असमंजस में था - अपना परिचय देने को तैयार। अचानक उनकी नज़र मुझ पर पड़ी। मैं कुछ बोलूँ, इसके पहले वे ही उठ कर खड़े हो गए। बाहें पसार दीं और बोले, “आओ, भाई ब्रह्म प्रकाश।”

उन बाहों में समा जाने का सुख माँ की गोद में जाने के सुख से कम न था। सर्विस में आने के बाद मेरी पहचान औपचारिक हलक़ों में ‘सर’ या ‘मिस्टर गौड़’ तथा मित्रों में ‘गौड़’ या ‘बी पी’ आदि संबोधनों में सिमट कर रह गई थी। हसन साहब ने जिस प्रेम से पूरा नाम ले कर ‘ब्रह्म प्रकाश’ पुकारा उसकी बात ही कुछ और थी। बरबस मेरी आँखें नम हो आईं।

हसन साहब से बहुत ढेर सारी बातें हुईं। उन्होंने कहा कि जैसे माँ बच्चे को नहीं भूलती वैसे ही कोई टीचर अच्छे स्टूडेन्ट को कैसे भूल सकता है। मैंने उनके द्वारा लिए गए एक्सट्रा क्लासेज़ का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि तब बात और थी। क्लास में पैर रखते ही उन्हें पता चल जाता था कि कितने जोड़ी कान ज्ञान-रस पीने को उत्सुक हैं, और वे विकल हो उठते थे कि किस किस को क्या-क्या सिखा दें। उन्होने स्वीकार किया कि धीरे धीरे उनका उत्साह भी घटता जा रहा था और पढ़ाने की क्रिया में एक ख़ाना-पूर्ती का पुट आता जा रहा था। उन्होंने यह भी स्वीकारा कि समय बदल रहा था। पहले विद्यार्थियों में टीचर्स के लिए आदर का भाव होता था। वह धीरे-धीरे तिरोहित होता जा रहा था। हसन साहब से बातें करके हृदय तृप्त हो गया था। जब उनसे विदा ले कर लैब के बाहर आया तो मेरी चाल में कालेज के दिनों की सी मस्ती थी। लग रहा था कि अभी-अभी उनकी एक एक्सट्रा क्लास अटेन्ड कर बाहर आया हूँ।

थोड़े दिनों बाद मेरा तबादला मुम्बई हो गया। आठ-नौ वर्ष और निकल गए। हसन साहब से संपर्क टूट सा गया। 1989-90 में मन में अध्यात्म-साधना की ज्योति जगी और जीवन में श्री गुरु का पदार्पण हुआ। हसन साहब ने अपनी कीमियागरी से केमिस्ट्री संबंधी विषयगत ज्ञान की जोत मेरे अंदर जलाई थी। श्री गुरु ने अलग तरह की कीमियागरी की। अंतर में एक नई जोत, जो विषयों से पार ले जाने वाली थी, जला दी। अभी तक मेरी चेतना बहिर्गामी थी। बाहर के विषयों का अनुसंधान करती थी। अब उसके प्रवाह ने उलटा रास्ता पकड़ लिया। मेरी अंतरयात्रा आरंभ हो गई।

पर, यह समझ भी मिली कि विषय के परे जाने की पहली शर्त है, विषय को भली-भाँति जान लेना। जीव के जागरण की पहली सीढ़ी है -- विषयगत ज्ञान (विज्ञान); और, उसका अंतिम पड़ाव है -- निर्विषय हो शुद्ध चैतन्य में विश्रान्ति। इन दोनों स्थितियों के बीच की यात्रा ही साधना है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो मेरी साधना यात्रा के सूत्रपात में हसन साहब की एक विशिष्ट भूमिका है।

1992 की गर्मियों में हसन साहब किसी व्यक्तिगत काम से मुम्बई आए। उन्होंने मेरे एक क्लासमेट, कलाम साहब, को साथ लिया और मुझे ढूँढने निकले। मुश्किल भरी पूछ-गच्छ कर उन्होंने मेरा पता लगाया और वहाँ पहुँच गए। उन्हें देख कर मैं तो निहाल हो गया। वे दूर टिके थे। फिर भी दो-तीन दिन बार मुझसे मिलने आए। यह एक विलक्षण संयोग था। अध्यात्म के पथ पर मुझे कुछ ही वर्ष बीते थे और मैं बहुत कुछ बाँटने को आतुर था। चर्चा हुई, तो पता चला कि हसन साहब भी अपने विलक्षण ढंग से धर्म को समझने और अपनाने के प्रयास में थे। उन्होंने इस्लाम धर्म का ही नहीं, अपितु बौद्ध, ईसाई व सूफ़ी मतों का विशद अध्ययन एक वैज्ञानिक की नज़र से किया था। इसके चलते, धर्म और जीवन की एकात्मता और परस्पर उपादेयता का अनुभव उन पर स्वतः उजागर हो रहा था। यह सब जान कर उनके प्रति मेरा श्रद्धाभाव और भी घना हो गया।

मुम्बई छोड़ने की पूर्व संध्या को हसन साहब ने रात्रि का भोजन मेरे घर पर किया। यह बड़े आनन्द का अवसर था -- एक प्रीति-भोज, जिसमें हम सभी प्रेम मय हो उठे थे। जब चलने को हुए, तो हसन साहब ने मेरे बेटे को गोद में समेट कर प्यार किया। साथ ही चुपके से उसके हाथ में सौ रुपये का नोट पकड़ा दिया। बोले, “बेटा, इसकी मिठाई खा लेना।” उनके स्नेहिल स्पर्श में छिपी प्रेम की लहर बेटे के हृदय को भी छू गई। उसकी आँखें डबडबा आईं।

मैं चाह कर भी हसन साहब को यह न कह सका कि मेरे बेटे को पैसे न दें, बस उनका प्यार ही बहुत है। भीतर से मुझे यह भी लगा कि बेटे को पैसे देने के मूल में कहीं न कहीं हसन साहब का एक भाव यह भी रहा होगा कि मैं उनका स्टूडेन्ट रहा हूँ और मेरे यहाँ भोजन भी उन्हें मुफ़्त में नहीं लेना चाहिए। उनके इस भाव को चुनौती देने की सामर्थ्य मुझमें न थी।

हसन साहब को बाहर विदा कर लौटा तो घर में एक सूनापन था। जैसे कितने दिनों से रहने वाला कोई अपना चला गया हो। काफ़ी देर उनकी ही बातें होती रहीं। भाव-विह्वल बेटे की आंखें एक बार फिर भर आईं। उसकी आवाज़ में कंपन था। बाल सुलभ अंदाज़ में उसने मुझसे पूछा, “डैडी, ऐसे लोग आकर चले क्यों जाते हैं?” कोई शब्दगत उत्तर मेरे पास न था। बस, एक दीर्घ मौन था, जिसमें हसन साहब हमारे दिलों में और भी पैवस्त होते जा रहे थे।

उस पिछली मुलाक़ात को भी आज 10 वर्ष से ऊपर हो गए। अब तक हसन साहब या तो रिटायर हो गए होंगे या होने वाले होंगे। वे कहाँ हैं या कहाँ रहेंगे, यह पता नहीं। पर, कोई चिन्ता नहीं। शरीर से पास हों न हों, हसन साहब निश्चय ही मेरे बहुत क़रीब हैं। इस हृदय में जो स्थान उन्हें मिला है, वह समयातीत है। वहाँ से कभी कोई रिटायर नहीं होता।

पुनश्च:
उपरोक्त संस्मरण 2001 या 2002 में लिखा था। तब मैं बेलगाम में था। लिखते समय हसन साहब की याद बहुत शिद्दत से आई। फिर, मैंने आज़मगढ़ के आयकर कार्यालय की मदद से उनके बारे में पता किया। ज्ञात हुआ कि वे अभी भी अध्यापन कार्य कर रहे थे। उनसे मोबाइल पर बात हुई। वे बहुत प्रसन्न हुए। उनकी इजाज़त ले, मैंने उन्हें यह संस्मरण भी पोस्ट कर दिया। कुछ दिनों बाद अचानक उनका फ़ोन आया। बहुत शर्मीले अंदाज़ में उन्होंने कहा, “मियाँ! आपने मेरे बारे में क्या-क्या लिख दिया!!” मेरा उत्तर था, “सर! हीरे को अपनी क़ीमत का अंदाज़ नहीं होता।”

2004 में मेरा तबादला मुम्बई हो गया। 2005 में हसन साहब अपने बेटे के पास मुम्ब्रा आए थे। मैं उनके निवास पर गया। हसन साहब की प्रेम भरी बातों के साथ-साथ उनकी बहू के हाथ पके सुस्वादु पकवान का भोग भी मिला। दो-तीन घंटे बिता कर जब मैं वापस घर के लिए निकल रहा था तो हसन साहब ने गले लगा कर विदा दी। वह स्पर्श अभी भी मेरे इर्द- गिर्द जीवंत है।