इस संसार में आनन्द की तलाश सभी को है। आनन्द की खोज अहर्निश चल रही है। पर, आनन्द है कि मिलता नहीं। कहीं पर कुछ मिला भी, तो बहुत जल्द मुट्ठी में बंधी रेत की भाँति बह जाता है। नहीं, तो बासी हो जाता है। कल तक जो वस्तुएँ आनन्द कारी लगती थीं, आज उनमें आनन्द की प्रतीति नहीं होती। सब यह जानना चाहते हैं कि अक्षय आनन्द कहाँ है और कैसे मिलेगा?
प्रश्न है, आनन्द को कहाँ ढूँढें? स्थायी आनन्द कैसे मिले? इसके लिए अपनी ही चेतना के प्रवाह की दिशा का अनुसंधान करना आवश्यक है। हमें ध्यान देना होगा कि हमारी चेतना कैसे और किधर बह रही है। पता चलेगा, इंद्रियाँ बहिर्गामी हैं – सदा बाहर के जगत की वस्तुओं का स्वाद चखना चाहती हैं। अब इंन्द्रियाँ स्वतः बाहर भाग रही हैं, ऐसा नहीं है। उनकी क्रिया के पीछे मन की चाहना है। मन ही उनके स्वाद में सुख खोज रहा है। मन का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि मन के पीछे है बुद्धि। बुद्धि संस्कार-गत है, जैसे संस्कार वैसी ही बुद्धि। बुद्धि का एक ही कार्य है, अहंकार की तुष्टि।
इस तरह, हमारे सभी क्रिया-कलापों का आरंभ अहंकार से हो रहा है। आगे की प्रक्रिया, बुद्धि, मन और इंद्रियों के माध्यम से होती है और उसकी इति बहिर्जगत के कार्यों में हो जाती है। चेतना का प्रवाह भीतर से बाहर की ओर हो रहा है।
इस तरह सुख की खोज बाहर-बाहर चल रही है। प्रयत्न यही रहता है कि बहिर्जगत में हम कुछ ऐसा संचित कर लें जो सुखद हो। अतः अधिकतर लोगों के जीवन का ध्येय है धन-संपत्ति अर्जित करना, विषय-जन्य शारीरिक-सुखों का उपभोग करना, तरह-तरह के संबंधी-मित्र बनाना, नाना प्रकार की जानकारियाँ बटोरना, विद्वत्ता अर्जित करना, जगत में किसी न किसी क्षेत्र में प्रसिद्धि पा लेना आदि आदि। इन सबमें सुख मिलता भी है। पर, वह नितान्त क्षणिक है। शीघ्र तिरोहित हो जाता है। सुख की तलाश पूरी नहीं होती, जीवन भाग-दौड़ में ही बीत जाता है। अंततोगत्वा पास रह जाते हैं श्रम, दुश्चिन्ता व थकन। इन्हीं सबके बीच, जीवन के नाटक का पटाक्षेप हो जाता है।
यह निरर्थक खोज अधिकतर प्राणियों की दुविधा भी है और नियति भी। यही संसार है – निरंतर खोज का चक्र। यही खोज-बीन चल रही है। जीव जन्म-जन्मांतर भटकता है, बहुतेरे विकल्प आज़माता है। पर, आनन्द उसके हाथ नहीं लगता। जन्म-जन्म की खोज के बाद, किसी-किसी बिरले को यह आभास होने लगता है कि बहिर्जगत में आनन्द को ढूँढने का प्रयास ही बेमानी है। संसार की उपलब्द्धियों में सुख मिला नहीं। तब कहीं जाकर, उसके अंदर यह गंभीर प्रश्न उठ खड़ा होता है – मैं कौन हूँ? मैं इस जगत में किस लिए आया हूँ? जगत के कार्य व्यापार में कौन कर्ता है और कौन कारण?
समय आने पर ऐसा ही कोई व्यक्ति मुमुक्षु बनता है - अंतर की महायात्रा का पथिक। इस यात्रा का लक्ष्य है अपने आप को जान लेना, अपने “स्व-भाव” को पाना और फिर उसमें सदा-सदा के लिए प्रतिष्ठित हो जाना। तब पता चलता है कि मैं अंतरात्मा हूँ, यह अंतरात्मा पूर्ण जगत के कण-कण का मूलभूत स्पंदन है, यह अंतरात्मा ही परम सत्य है, यह अंतरात्मा ही ईश्वर है और यही है अक्षय आनन्द का स्रोत।
साधारणतया लोग ईश्वर या अंतरात्मा को उसके तीन मुख्य कृत्यों – श्रृष्टि, स्थिति व विलय – से जोड़ कर देखते हैं। लोगों के विचार में ईश्वर अनन्त संभावनाओं से भरी हुई एक निरपेक्ष शक्ति है, जिसमें अतुलनीय रचनात्मकता व प्रज्ञा है। इसके फलस्वरूप, ईश्वर सृष्टि को जन्म देता है। जन्म देने के बाद, वही उस सृष्टि का परिपोषण करता है। अंततः वही उस सृष्टि को विलय कर अपने में समाहित कर लेता है। विलय के बाद जगत नहीं रहता, पर ईश्वर की पराशक्ति और उसकी अंतर्निहित संभावनाएँ कार्यरत रहती हैं। अतएव कालांतर में नवीन सृष्टि का उद्भव हो जाता है। यही क्रम चलता रहता है। सृष्टि, स्थिति और विलय के नए-नए चक्र चलते जाते हैं।
शिव सूत्र कहते हैं – आत्मा नर्तकः। तात्पर्य है आत्मा और जगत अभिन्न हैं। यह जगत आत्मा रूपी शिव का नर्तन है। कितनी सत्य बात है। नृत्य ही वह कला है जिसमें नर्तक को नृत्य से अलग कर नहीं देख सकते। आत्मा और जगत के इस ऐक्य के बावजूद हम इस जगत को देखते हैं तो सर्वत्र भिन्नता का ही बोध होता है। व्यक्ति हो या वस्तु सबके अलग-अलग रूप और अलग-अलग गुण-धर्म।
आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। आत्मा वह सूक्ष्म चैतन्य-सूत्र है जिसके कारण सभी का अपना-अपना अलग अस्तित्व है और सभी आपस में जुड़े हुए भी हैं। किन्तु हम आत्मा को न देख पाते हैं और न ही उसका कोई अनुभव मिलता है। क्यों? वह इसलिए क्योंकि आत्मा ने स्वयं को हर व्यक्ति और वस्तु के अंतस् में इतनी गहराई में छुपा रखा है जहाँ इन्द्रियों व मन की पैठ नहीं हो पाती है। आत्मा या सत्य हमारी पहुँच से बाहर है। यह भी ईश्वर का ही एक कार्य है। उसका चतुर्थ कृत्य – निग्रह।
निग्रह को बहुत सरलता से इंद्रियों व उनकी कार्य क्षमता के चिंतन द्वारा समझ सकते हैं। हम जानते हैं कि इन्द्रियाँ क्या-क्या कार्य करती हैं। पर क्या इन्द्रियाँ वास्तव में स्वेच्छा से अपना कार्य कर सकती हैं? यह विचारणीय प्रश्न है। मसलन, आँख देखती है। अपने घर में या कमरे में कुछ क्षण ले कर शान्त चित्त हो देखें – न जाने कितनी चीज़ें आपकी आंखों की ज़द में हैं। पर, विचार करें, क्या आँखें एक साथ सब कुछ इकट्ठा देखती हैं? उत्तर होगा नहीं।
मसलन् कमरे की पूरी दीवार आपकी निगाह के दायरे में है। पर, जब आप दीवार पर टंगी एक तस्वीर को देखते हैं, तो उसके ही बाज़ू में लगी वॉल हैन्गिंग नहीं दिखती। फिर, जब वॉल हैन्गिंग को देखते हैं, तब तस्वीर का बोध नहीं रहता। जब ध्यान तस्वीर की विषय-वस्तु पर केन्द्रित हो, तब तस्वीर का फ्रेम कैसा है, यह पता नहीं चलता। अर्थ यह कि आँख में देखने की ताक़त है, पर यह ताक़त वहीं कार्यरत हो पाती है, जहाँ हम अपनी चेतना केन्द्रित करें। मतलब यह कि हमारी चेतना ही आँख की आँख है। यह चेतना या चैतन्य साधारणतया हमारी पकड़ से ओझल है।
यही बात श्रवण, गंध, स्वाद और स्पर्श की इन्द्रियों पर भी लागू होती है। कान उसी शब्द का श्रवण करता है, जिधर हम ध्यान देते हैं। नासिका उसी गंध को सूँघ पाती है, जिसके प्रति हम सचेत हो जाएँ। उसी वस्तु के स्पर्श का बोध होता है, जिस पर हम अपना मन टिका दें। हम नाना प्रकार के पकवान क्यों न ग्रहण करें, स्वाद उसी का पता चलता है जिसे ग्रहण करते समय हम उसके प्रति ध्यान दें। अतः स्पष्ट है कि इंद्रियों की शक्ति तभी तक क्रियाशील है जब तक चैतन्यता है।
जागृत अवस्था में इन्द्रियाँ बहिर्जगत के विषयों की जानकारी हमें देती हैं। मन उन जानकारियों का अपनी बुद्धि के अनुरूप विश्लेषण करता है। इसी से हमें बाहर के संसार का पता चलता है। कुछ वस्तुएँ या परिस्थितियाँ रूचिकर लगती हैं तो कुछ अरुचिकर। दिन भर की चर्या पर दृष्टिपात करें तो हम पाएँगे कि पूरे दिन हमारे सभी क्रिया-कलाप इन्द्रिय-सुख-प्राप्ति या अहंकार-तुष्टि की इच्छा से ही प्रेरित हैं। पर, कोई भी दिन कितना ही सुखदाई क्यों न हो, हर दिन एक समय ऐसा आता है जब इन्द्रियों की रुचि बाहर के विषयों में नहीं रह जाती। वे बाहर झाँकना बंद कर देती हैं। शरीर श्रान्त-कलान्त हो, शिथिल होने लगता है और हम बाहर की गतिविधियाँ त्याग कर बिस्तर की शरण ले लेते हैं।
शरीर की चेष्टा बंद हुई कि चेतना के प्रवाह की दिशा में परिवर्तन हो जाता। बाहर बहना छोड़, वह अंतर्मुखी होने लगती है। अब आँखें, बाहर का दृष्य देखना छोड़, स्वतः अपने आपको बंद कर देती हैं। कान खुले हैं पर श्रवण का कार्य नहीं करते। इसी तरह स्पर्शेन्द्रिय भी क्रियाशील नहीं रहती – अब पता नहीं कि हम कहाँ पर लेटे हैं। सभी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं – अब बहिर्जगत हमारी चेतना में रहा नहीं, तिरोहित हो गया। प्रश्न उठता है कि अब मन की क्या स्थिति है? स्पष्ट है, कि मन के लिए अब बहिर्जगत का कुछ गुनने को रहा नहीं। किन्तु, उसकी तलहटी में जो अवचेतन मन है, वह अब भी क्रियाशील है। अतः जो दृष्य या भाव या अनुभव उस अवचेतन मन में संचित हैं वे अपने-आप ऊपर उठते हैं और स्वप्न रूप में हम उनका अनुभव करते हैं। यह हुई स्वप्नावस्था। यहाँ इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हैं, पर मन अभी भी कार्यरत है। बहिर्जगत तिरोहित हुआ पर अंतर्जगत् क्रियाशील है।
इस अंतर्जगत में स्वप्नों के माध्यम से नाना प्रकार के अनुभव हमें मिलते हैं। कुछ का संबंध हमारे चेतन मन में संचित अनुभवों एवं घटनाओं से होता है तो कुछ स्वप्न बिल्कुल ही अनपेक्षित या बे सिर पैर के लगते हैं। हाँ, चेतना के स्तर पर स्वप्न के अनुभव की तीव्रता वैसी ही होती है जितनी बहिर्जगत के अनुभवों की। स्वप्न में भी जब हम अपने आपको किसी दुर्घटना या आपदा में फँसा हुआ देखते हैं तो मन में घबराहट होती है। स्वप्न भयावह हो, तो अचानक झटके से नींद टूट जाती है और मन की घबराहट महसूस होती है। पता चलता है कि दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा है, बदन पसीने से लथ-पथ है। हाँ, एक बार आँख खुल गई और जागृत अवस्था में आगए तो स्वप्न का कोई वजूद नहीं रहता। जब जागृत अवस्था है तो स्वप्न नहीं, और जब स्वप्न है तो जागृत अवस्था नहीं। किन्तु, अनुभूति के स्तर पर दोनों अवस्थाओं में एक जैसी ही शक्ति है।
रोज़ाना हम अपनी चेतना में स्वप्नावस्था से भी और गहरे उतरते हैं। यह अवस्था ऐसी है कि जब अवचेतन मन भी नहीं रहता। पूरा का पूरा मन निद्रा के हवाले हो गया। अंतर्जगत भी तिरोहित हो गया। कुछ बचा नहीं। बस शून्य का साम्राज्य है। अंतर्चक्षुओं के सामने कोई दृष्य न रहा, एक कालिमा का पर्दा है। यह हुई (गहन) निद्रा की अवस्था - सुषुप्ति। सुषुप्ति में कुछ भी घट नहीं रहा। आज गहमा-गहमी का जीवन जीने वालों को गहन निद्रा की निष्क्रियता बेकार या उबाऊ लग सकती है। पर, इसमें हमारे जीवन का एक बहुमूल्य रहस्य है। गहन निद्रा की बेसुधी में ही शरीर व मन को पूरा आराम मिलता है। कुछ देर गहन निद्रा में बिता कर जब हम बाहर जागृत अवस्था में आते हैं तो हम शरीर में शक्ति व मन में उत्साह महसूस कर पाते हैं। याद करें ऐसा एक दिन जब किसी कारण मन उद्विग्न था और गहन निद्रा का लाभ न मिला। रात सपने देखते बीती। तब सुबह उठने पर आपको कैसा लगा? निश्चित ही, मन थका-थका सा लग रहा था, अंग-प्रत्यंग टूट रहा था, और कुछ भी करने का इच्छा अंतर में न थी। क्यों? वह इसलिए कि सुषुप्ति की अवस्था जहाँ मन को विश्रान्ति मिलती है, नहीं मिली थी।
सुषुप्ति में चेतना का अभाव है, मन और इंद्रियों को कोई अनुभव नहीं होता। अतः हम नहीं जानते कि सुषुप्ति में हम कहाँ हैं। पर यह अवश्य है कि सुषुप्ति में कुछ बहुत बहुमूल्य है। वहाँ तक पहुँचने के कारण ही नींद में ही हमारे शरीर व मन दोनों शक्ति एवं स्फूर्ति से भर जाते हैं और सुचारु रूप से कार्य कर सकते हैं। यह सर्व विदित है कि जो लोग आसानी से अच्छी नींद ले पाते हैं वे अधिक स्वस्थ व चैतन्य होते हैं। इसके उलट जो लोग ठीक से सो नहीं पाते उनमें अनेक शारीरिक व मानसिक रोगों के शिकार होने की संभावना प्रबल होती है। किसी को अच्छे से अच्छा भोजन मिले, विटामिन के इंजेक्शन पर इंजेक्शन दिए जाएँ पर सोने को न मिले तो एक-दो दिन में उसकी हालत दयनीय हो जाएगी।
अब सुषुप्ति में क्या है, यह पता नहीं चलता, पर वहाँ पर शक्ति का कोई ज़बरदस्त भंडार अवश्य है जहाँ से हमें जीवनी शक्ति मिल रही है। हाँ, उस शक्ति का अनुभव हमें तभी होता है जब हम सुषुप्ति से जागृत अवस्था में वापस आ जाते हैं। इस रहस्यमयी शक्ति का खुलासा शास्त्रों में मिलता है। वे बताते हैं कि जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति के साथ-साथ मानव चेतना की एक और भी सूक्ष्म चतुर्थ अवस्था है – तुरीयावस्था। यह आत्मा की अवस्था है और अन्य सभी अवस्थाओं का अभिन्न अंग है। निद्रा में अपने आप पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रहता। पर यह आत्मा हमारी श्वास-प्रश्वास को बनाए रखती है। यह आत्मा ही है जो स्वप्नावस्था में देखे स्वप्न का रिकॉर्ड रखती है और सुबह उठने पर हमें यह बोध करा देती है कि हमने कोई स्वप्न देखा था। आत्मा को ही पता है कि हमें कब नींद से जगा देना है।
आत्मा की अवस्था (तुरीयावस्था) को दर्शाने के लिए एक कथा है। एक निर्धन व्यक्ति था। आँखों में ज्योति न थी। जैसे तैसे जीवन चल रहा था। उसे एक दुर्गम स्थान पर स्थित एक ऐसी गुफ़ा का पता चल गया था जिसके विषय में दूसरे नहीं जानते थे। अतः उस गुफ़ा में सिर्फ़ यही व्यक्ति जा सकता था। गुफ़ा में अकूत सम्पत्ति थी। वहाँ एक से एक ऐसे ऐसे बहुमूल्य माणिक-मोती आदि थे कि किसी को एक भी रत्न मिल जाए तो जीवन से दारिद्र्य सदा सदा के लिए लोप हो जाए। हाँ, एक तरफ़ उस गुफ़ा में ताँबे के सिक्कों का एक बड़ा ढेर भी था। वह अंधा रात्रि की निस्तब्धता में, जब दूसरे सो रहे होते, वहाँ उस गुफ़ा में चला जाता। दृष्टि तो थी नहीं, इधर उधर टटोलता फिरता। बेशक़ीमती रत्न चारो और बिखरे होते, पर उसे उन रत्नों का पता न चलता। माणिक-मोती हाथ लग कर भी छूट जाते। हाँ, हिलाने-डुलाने से ही ताँबे के सिक्कों की ढेरी खन-खन कर बज उठती। वह अंधा उन सिक्कों को ही अंजुली में भर चुप-चाप बाहर आ जाता। अब भला ताँबे के सिक्कों का क्या मूल्य? दिन भर में ही ख़र्च हो जाते। रात होते ही वह अंधा फिर उसी गुफ़ा की ओर बढ़ चलता। यही क्रम चलता रहा।
यह कथा जन-साधारण के जीवन की सटीक झाँकी है। यह अंधेरी गुफ़ा हमारे भीतर ही है – गहन निद्रा की अवस्था – सुषुप्ति। निद्रा के दौरान हम सभी इस गुफ़ा में नित्य प्रवेश करते हैं और इसमें संचित धन को लेकर बाहर आते हैं। अंधे की उपमा इसलिए दी गई है कि जब हम सुषुप्ति में होते हैं तब हमारी चेतना विलुप्त रहती है। हम यह देख नहीं सकते कि सुषुप्ति में हमारी अवस्था क्या है, हम आत्मा के कितने निकट हैं, हमारे पास शक्ति एवं ज्ञान के मोती-माणिक का कितना बृह्द् भंडार है – एक भी रत्न उठा लिया तो दरिद्रता का लोप संभव है। पर चेतना न होने से हम मनचाही संपदा नहीं उठा पाते। ताँबे के सिक्कों जैसा, शक्ति और ज्ञान का छोटा-मोटा उच्छिष्ट, जो भी हाथ में लगता है, उसे ही ले कर गुफ़ा से बाहर (जागृत अवस्था में) आ जाते हैं। इससे हमें नित्य के जीवन के लिए कामचलाऊ शक्ति, स्फूर्ति, व ज्ञान तो मिलते हैं, पर कुछ विशिष्ट नहीं मिलता। यदि हम चैतन्य हो कर सुषुप्ति में प्रवेश करें तो तुरीयावस्था, आत्मा की स्थिति, का बोध हो जाएगा और शक्ति तथा ज्ञान की अतुलनीय संपदा हाथ लग जाएगी। आत्मा का अनुभव ही अध्यात्म का आधार है।
शिव सूत्र में एक सूत्र है – चैतन्यम् आत्मा – अर्थात् आत्मा विशुद्ध चैतन्य है। यह बात जान लेने की है। मन एवं इन्द्रियों के माध्यम से बहने पर जुड़े होने पर चेतना उनके रंग में रंग जाती है। कोई हमसे पूछे तुम कौन हो तो हम कहेंगे – मैं (यह) नाम हूँ, मैं छोटा हूँ, मैं बड़ा हूँ, मैं स्वामी हूँ, मैं नौकर हूँ, मैं (अपना) शरीर हूँ, मैं (अपनी) धारणाएँ हूँ। पर यह सारे विवरण अधूरे और तात्कालिक हैं। समय व परिस्थिति के साथ बदल जाते हैं। मसलन, अपने बच्चों के सामने हम स्वयं को बड़े कहेंगे, पर अपने बुज़ुर्गों के सामने हम बच्चे हो जाएँगे। जब हम पढ़ते थे तो स्वयं को विद्यार्थी कहते थे। बाद में स्वयं को अपने व्यवसाय व गृहस्थी से जोड़ कर देखने लगे। बुढ़ापे में स्वयं को कुछ और ही बताएँगे। हाँ, हम अपने को कुछ भी बताएँ, हम कहते हैं – मैं यह (अपनी आइडेन्टिटी) हूँ। अब आइडेन्टिटी कोई भी हो हमारे प्रत्येक उत्तर का आरंभ होगा “मैं” से और अंत होगा “हूँ” पर। ये दो शब्द अवश्य रहेंगे।
“मैं हूँ” यही शुद्ध चैतन्य है – शुद्ध अहं विमर्ष। यही आत्मा का अनुभव है। जब चेतना अंतर में बहने लगे तो अंततः अपने शुद्ध स्वरूप में निर्विषयी हो यही अनुभव देती है – “मैं हूँ”।
एक जब हम सोने लगते हैं, निद्रा में बेसुध हो जाते हैं, इंद्रियाँ भी बेसुध हो जाती हैं, उनके सभी क्रिया कलाप रुक जाते हैं। जागृत अवस्था में भी उनकी यात्रा वहीं तक है, जहाँ चैतन्य रूपी आत्मा उन्हें ले जाए। यह आत्म-चैतन्य ही आँखों की आँख है, कानों का कान है, नासिका की नासिका है, जिह्वा की जिह्वा है, स्पर्श का स्पर्श है। यह चैतन्य ही आत्मा है, उससे अभिन्न है। यह चैतन्य ही हमारी इन्द्रियों और मन को परिचालित कर रहा है, पर उनकी पकड़ से परे है। यही निग्रह है।
यह निग्रह टूटे, तभी आँख की आँख, कान के कान, नासिका की नासिका, जिह्वा की जिह्वा, स्पर्श के स्पर्श का बोध हो, आत्म-दर्शन हो, ईश्वर का आस्वाद मिले। निग्रह का आवरण गिर जाए और सत्य का प्रकटीकरण हो पाए, यह ईश्वर का पंचम कृत्य है – अनुग्रह। अनुग्रह से ही भगवत् दर्शन (या आत्म-दर्शन) संभव है। ईश्वर ने अनुग्रह का कार्य गुरु के सुपुर्द कर रखा है।
‘दर्शन’ यह एक बहुत रहस्यमय शब्द है। भारतीय परंपरा में ईश्वर के ज्ञान को ‘दर्शन शास्त्र’ कहते हैं। दर्शन से तात्पर्य है – वह जिसे हम साक्षात् देख कर अनुभव कर रहे हैं। मान लें, आप किसी व्यक्ति के साथ बैठे हैं, कुछ चर्चा कर रहे हैं। यह आपका प्रत्यक्ष अनुभव है। इसकी प्रतीति स्वतः सिद्ध है। इसे जानने के लिए आप को किसी तीसरे से पूछने की या उसके साक्ष्य की आवश्यकता कदापि नहीं है। यही दर्शन है। पाश्चात्य परंपरा में दर्शन को कहते हैं – फ़िलॉसॉफ़ी। फ़िलॉसॉफ़ी का अर्थ है – ज्ञान के प्रति प्रेम। इन अर्थों में, भारतीय परंपरा में यह बताया गया है कि ईश्वर का दर्शन होना चाहिए – दर्शन यानी सीधा साक्षात्कार - जिसके बाद किसी तर्क या साक्ष्य की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। दुविधा यह है कि जो इंद्रियों और मन की पकड़ से परे है, उसका दर्शन क्यों कर संभव होगा। फिर, प्रश्न यह भी है कि गुरु की क्या आवश्यकता है।
आज विज्ञान का युग है। मानव मन बहुत विकसित हो गया है और तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी है। सभी तर्क में पारंगत हैं। अधिकतर लोग शिक्षित हैं। नाना प्रकार के विषयों की सूचनाएँ इन्टरनेट के माध्यम से सहज में उपलब्द्ध हैं। इसलिए शिक्षित लोगों में गुरु की आवश्यकता के प्रति शंका होना स्वाभाविक है। किन्तु, अनुभव की बात यह है कि सूचनाओं को संग्रहीत कर उनके ज्ञाता होने मात्र से व्यक्ति ज्ञान को उपलब्द्ध नहीं होता। शिव सूत्र कहते हैं – ज्ञानम् बंधः। वह ज्ञान जो स्वतः-स्फूर्त या अनुभव जनित न हो कर सूचना या तर्क पर आधारित हो बंधन ही है।
एक सरल उदाहरण लेते हैं। किसी को तैराकी सीखनी है। वह घर में टीवी के समक्ष बैठ कर तैराकी सिखाने के लिए बनाए गए ढेरों वीडियोज़ देखता है। पर इससे क्या? इससे तो अधकचरा ज्ञान ही मिलेगा। तैराकी का कृत्य घटे, इसकी संभावना तो तभी बनेगी जब वह वास्तव में किसी स्विमिंग पूल या तालाब में उतरेगा और डूबते-उतराते इधर-उधर हाथ पैर चलाने का अभ्यास करने लगेगा। अब यदि उसे एक निपुण प्रशिक्षक मिल जाए तो सोने में सुहागा। प्रशिक्षक की मदद से वह सहज रूप से अपनी कमियों को दूर करने और अपने कौशल को निखारने में सफल होगा। यह उदाहरण इस बात को दर्शाता है कि बाहर से संचित किया गया सूचना परक ज्ञान सहायक तो हो सकता है, किन्तु विधायक नहीं हो सकता। गुरु वह है जो किसी भी विषय के संबंध में सूचना तो दे ही, उसे अंतस् में उतार कर व्यवहार में लाने का सहज मार्ग भी दर्शाए।
अध्यात्म के क्षेत्र में श्री गुरु ऐसे महामना हैं, जो “सिद्ध” हैं। सिद्ध का अर्थ है पूर्णतया सत्य-निष्ठ। सिद्ध ऐसे पूर्ण पुरुष हैं, जो अखंड शिष्य परंपरा में साधना करते हुए अपने श्री गुरु की कृपा से सत्य के अटूट अनुभव में अडिग रूप से प्रतिष्ठित हो गए हैं। सिद्ध गुरुओं में एक अनोखा सामर्थ्य है। शक्तिपात की रहस्यमयी दीक्षा। इसके द्वारा वे मुमुक्षु को उसकी आंतरिक दिव्यता की झलक देकर, उसे अंतस में छिपे सत्य के प्रति जागरूक कर देते हैं। शक्तिपात का शाब्दिक अर्थ है – शक्ति का अवतरण। इसमें श्री गुरु अपनी पूर्णतया जागृत आध्यात्मिक शक्ति का एक पुंज शिष्य में प्रविष्ट करा देते हैं। एक विलक्षण घटना घट जाती है। शिष्य की सुप्त आध्यात्मिक शक्ति जागृत हो जाती है।
शिष्य की भौतिक काया उसके माता-पिता की देन है। किन्तु, शक्तिपात दीक्षा उसे बोध करा देती है कि भौतिक शरीर के पीछे और कितने सूक्ष्म शरीर कार्य रत हैं और उसकी साधना-यात्रा का उद्देश्य है इन सभी शरीरों के पीछे कार्यरत आत्मा को जान पाना। यह शिष्य का दूसरा जन्म है। वह द्विज कहलाने का अधिकारी बन जाता है।
दीक्षा के बाद भौतिक शरीर तो ज्यों का त्यों रहता है। किन्तु उसके भीतर चेतना के प्रवाह की दिशा बाहर से भीतर की ओर होने लगती है। पहले चेतना अहंकार, बुद्धि, मन व इंद्रियों के माध्यम से बाहर की ओर बह रही थी। अब इन्द्रियाँ बाहर झाँकने में उतनी उत्सुक नहीं रह जातीं। चेतना का प्रवाह दिशा बदलने लगता है। इन्द्रियाँ और मन दोनों ही अंतर्मुखी होने लगते हैं। यहीं से उस अविरल साधना यात्रा की शुरुआत होती है जो शिष्य को एक दिन गुरु ही बना देगी।
कठोपनिषद में एक सुन्दर प्रसंग है। शिष्य नचिकेता गुरु यमराज से पूर्णत्व का पाठ पढ़ने गया है। यमराज मानव मात्र के विषय में रथ का एक सटीक उदाहरण देते हुए नचिकेता को कहते हैं – “आत्मानम् रथिनम् विद्धिः.......।” यमराज कहते हैं, “हे नचिकेता! यह शरीर एक रथ के जैसा है। आत्मा इसका स्वामी (रथिन्) है। बुद्धि सारथी है। मन लगाम है। रथ में जुते हुए घोड़े इंद्रियाँ हैं। ये घोड़े जिस राजमार्ग पर दौड़ रहे हैं वह विषय-वासनाओं की तुष्टि का पथ है।” इस उपमा के माध्यम से यमराज नचिकेता को कहते हैं कि आत्मा ही एकमेव जानने योग्य वस्तु है। जिसने आत्मा का दर्शन कर लिया वह स्वामी हो गया।
गुरु का शिष्य को बुद्धत्व-दान, यह एक रहस्यमयी विधा है। आरंभ में गुरु के समीप आने वाले जिज्ञासु में विद्यार्थी का भाव अधिक होगा। वह गुरु से शास्त्रोक्त ज्ञान की अपेक्षा रखेगा। गुरु की सिखावनी को अपनी मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में परखने का प्रयास करेगा। ऐसे विद्यार्थी को गुरु से कुछ बहुत अधिक प्राप्त नहीं होता। किन्तु, गुरु का व्यक्तित्व सम्मोहक है, उसका आकर्षण इतना प्रबल होता है कि यदि विद्यार्थी कुछ दिन गुरु के पास टिक गया तो अनायास ही गुरु से बंधने लगता है। दोनों के बीच विश्वास का एक मधुर सूत्र बन जाता है। अब वह विद्यार्थी गुरु की सिखावनी का बौद्धिक विवेचन छोड़ उसे अभ्यास में उतारने लगता है।
यहाँ से शिष्यत्व की यात्रा का सूत्रपात हो जाता है। जैसे जैसे शिष्यत्व घनीभूत होता है, शिष्य की रुचि महज़ किताबी ज्ञान में उतनी नहीं रहती। उसके अभ्यासों में अधिकाधिक नियमितता और गहनता आने लगती है। गुरु के प्रति उसका अनुराग बढ़ता चला जाता है। वह गुरु के आस-पास बने रहने का, उनकी उपस्थिति को अपने भीतर आत्मसात करने का, पूर्ण प्रयास करता है। गुरु का एक रंग-ढंग बड़ी तन्मयता से देखता है। धीरे-धीरे उसकी जिज्ञासा के स्वरूप में एक सूक्ष्म परिवर्तन आने लगता है। अब उसकी उत्सुकता यह जानने में उतनी नहीं होती कि मेरे गुरु क्या कर रहे हैं, बल्कि यह जानने में होती है कि मेरे गुरु जो कुछ भी कर रहे हैं कैसे कर रहे हैं। शिष्य गहराई से निरखता है कि मेरे गुरुदेव कैसे उठते-बैठते हैं, कैसे चलते-फिरते हैं, कैसे भोजन ग्रहण करते हैं, कोई उन्हें पुष्प गुच्छ दे तो वे उसे कैसे सहेजते हैं, कोई प्रश्न पूछे तो उसे कैसे उत्तर देते हैं, कैसे अभ्यागतों का स्वागत करते हैं, आदि आदि। गहन आत्मीयता के इस अभ्यास से शिष्य की गुरु के साथ आंतरिक निकटता बढ़ती जाती है। उसे गुरु से बहुत कुछ प्राप्त होने लगता है।
अंतिम सीढ़ी यह है कि शिष्य भक्त में बदल जाता है। अब गुरु के साथ शारीरिक नैकट्य की आवश्यकता भी नहीं रहती। गुरु कहीं भी हों वे भक्ति भाव से भरे हुए शिष्य के आराध्य बन गए हैं। शिष्य का मन उनमें तल्लीन है, सिर्फ़ उनके ही विषय में सोचता है। शिष्य के अंतस् में गुरु का ही वास है, उनका ही सान्निध्य है। वह किसे भी मिले, उसके मन में यही धारणा रहती है कि मेरे श्री गुरु ही इस व्यक्ति के रूप में मेरे पास आए हैं। जीवन में कोई परिस्थिति पैदा हो, वह उसका स्वागत यह सोच कर करता है कि यह मेरे श्री गुरु की देन है। इस तरह शिष्य और गुरु एकरूप होने लगे हैं। अब, शिष्य शरीर से ही अलग है। उसका मन पूर्णतया रिक्त हो गया। उस रिक्त मन में गुरु पूर्णरूपेण उतरता चला जाता है। यह एक अभूतपूर्व संयोग है। शिष्य और गुरु का फ़र्क गया। शिष्य गुरु की तरह चलता है, बोलता है, सभी कर्म करता है। शीघ्र ही, वह गुरु ही हो जाता है।
देह भाव से देखने में, श्री गुरु भी एक साधारण जीव जैसे दिखते हैं। किन्तु, वह भीतर से आत्म-भाव में पूर्णतया प्रतिष्ठित हैं। उनके मुख से जो भी निर्गत है वह वेद वाक्य ही है। उनके शरीर से जो रश्मि पुंज प्रवाहित हो रहा है, वह आत्मा का स्पंदन है। अतः उन्हें देखना आत्मा का दर्शन है। उन्हें सुनना वेद श्रवण हैं। शारीरिक या मानसिक रूप से उनका सामीप्य पा लेना आत्मा के स्पंदन से स्पंदित होने जैसा है। श्री गुरु की चित्त वृत्तियाँ पूर्णतया शान्त हो गई हैं। मन निःशेष हो गया है। उनसे संबंध जुड़ गया तो हमें उनकी अंतर स्थिति की कुछ-कुछ झलक मिलने लगती है। इसी लिए पतंजलि के योग सूत्र में एक सूत्र है – वीतराग विषयं व चित्तम्।
अर्थात्, निर्विचार होने का एक सहज मार्ग यह भी है कि हम ऐसे महापुरुष के चिन्तन में चित्त को लगा दें जो पूर्ण वीतरागी हैं। यह सर्व विदित है कि हम जिस व्यक्ति के गुणों का आदर पूर्वक चिन्तन करते हैं वे गुण हमारे भीतर स्वतः पनपने लगते हैं। श्री गुरु बाहर से देखने में इस जगत के प्रतीत होते हैं। पर, भीतर से वे पूर्ण वीतरागी हैं। अतः उनका चिन्तन करने से हमारे चित्त का विक्षेप स्वयमेव क्षीण होने लगता है। मन इधर उधर भटकना छोड़ शुद्ध चैतन्य की गहन प्रशान्ति की ओर आपो-आप बढ़ निकलता है। समय आने पर योग घटेगा, आत्म-दर्शन उपलब्द्ध हो सकेगा। इसीलिए उक्ति है – गुरुकृपा हि केवलम् - गुरुकृपा ही एकमेव अवलम्ब है।
अकसर लोगों में यह भय होता है कि गुरु की शरण में जाने का अर्थ है कि अपने जीवन की बागडोर हमेशा के लिए किसी और को पकड़ा देना और अपनी वैचारिक स्वतंत्रता को खो देना। पर, असलियत कुछ और ही है। सद्गुरु की महत्ता इसमें है कि वे बाहर से रूप-गुण सम्पन्न दिखते हैं पर भीतर से रूपातीत एवं गुणातीत हैं। इसीमें गुरु की उपादेयता का रहस्य है। शिष्य को श्रीगुरु के साथ अंतरंग संबंध जोड़ना है। यह घटना घटे, इसके लिए श्रीगुरु का शरीर का सहज माध्यम है। नए-नए शिष्य को श्री गुरु बहुविध आश्रय देते हैं। उसके आस-पास बने रहते हैं। साधना के अतिरिक्त समय-समय पर वे लौकिक जगत के विषय में भी कुछ-कुछ सलाह देते हैं। शिष्य को लगता है कि मेरे श्री गुरु मुझे कितना चाहते हैं, मुझे सदा निकट रखते हैं। यह निकटता शिष्य की अंतर-यात्रा को चलाने में सहायक बनती है।
पर, वास्तविकता यह है कि श्री गुरु को शिष्य को परतंत्र बनाए रखने में कोई दिलचस्पी नहीं। प्रत्येक क्षण श्री गुरु को अपनी अंतर्दृष्टि से यह पता रहता है कि उनके शिष्य की साधना कैसी चल रही है। एक दिन जब वे जान जाते हैं कि शिष्य यथेष्ट रूप से परिपक्व हो गया है और उसमें यह योग्यता विकसित हो गई है कि वह भीतर ही भीतर आत्मा से स्वयं संपर्क साध सके, तो श्री गुरु ऐसी जुगत बिठाते हैं कि शिष्य भौतिक रूप से उनसे दूर हो जाए। बाहर का सम्पर्क न रहे तो शिष्य को अंतर में उतरना ही पड़ता है। तब उसे पता चलता है कि बाहर के श्रीगुरु वास्तव में उसकी अंतरात्मा ही हैं, जो अब भीतर से ही उसका मार्ग-निर्देशन कर रही है। इस अंतरंग संबंध के चलते, शिष्य गुरु के बाह्य शरीर के आकर्षण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। अब आत्म-साक्षात्कार की यात्रा के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा न रही। उसके लिए ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया।
ऐसे उदाहरण हमें अपने चारो ओर रोज़ाना देखने को मिलते हैं। बच्चा चलना सीख रहा हो तो उसकी माँ आरंभ में हाथ पकड़ कर चलाती है। बाद में जैसे ही वह देखती है कि बच्चा कुछ डग बिना सहारे चल रहा है, वह उसका हाथ छोड़ देती है ताकि वह स्वयं आत्मनिर्भर हो बिना सहारे चल सके। जब हम बाग़ में पौधे रोपते हैं तो शुरू शुरू में उनकी बहुत देख भाल करते हैं – मिट्टी में खाद डालते हैं, पौधों को रोज़ सींचते हैं, उन्हें जानवरों से बचाने के लिए चारो और बाड़ बनाते हैं। धीरे धीरे पौधे जड़ पकड़ कर बड़े हो जाते हैं। अपनी ख़ुराक मिट्टी से स्वयं खींचने लगते हैं। जानवरों की पहुँच से परे चले जाते हैं। तब उन्हें हमारी देख-भाल की आवश्यकता नहीं रहती। फिर हम उन्हें देखते भी नहीं। बाग़ अपने आप फलता-फूलता रहता है।
यही घटना गुरु-शिष्य संबंध में घटती है। श्री गुरु सद् शिष्य को आत्मनिर्भरता का प्रसाद देते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो श्री गुरु व्यक्ति नहीं तत्व हैं – ईश्वर की अनुग्राहिका शक्ति के तत्व। गुरु तत्व के प्रति शिष्य में जितना समर्पण होगा आत्मानुसंधान की उसकी यात्रा उतनी ही निर्बाध गति से चलेगी। “श्री गुरु गीता” में इसी गुरु तत्व के अनुशीलन के विषय में भगवान शंकर देवी पार्वती को कहते हैं -
मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरु श्री जगद्गुरुः ।
ममात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
गुरु तत्व को आदरपूर्वक नमन्।
गुरु तत्व की चर्चा हो तो शिष्यत्व की चर्चा करना आवश्यक है। शिष्य का अर्थ है – वह जो सीखने को तत्पर हो। शिष्य वह है जिसे अपनी जानकारियों का आग्रह या घमण्ड नहीं है। वह मन से खुला हुआ है और कहीं से भी कुछ भी मिले उसे व्यवहार की कसौटी पर कस कर अपने अनुभव के परिप्रेक्ष्य में परखने को तैयार है। ऐसा व्यक्ति साधना में अग्रणी होता है और एक के बाद एक पड़ाव पार करता चला जाता है। अतः सत्य की तलाश हो तो शिष्य भाव को पुष्ट करना आवश्यक है। श्रीगुरु के रूप में ईश्वर की अनुग्राहिका शक्ति स्वयमेव आकर्षित हो जीवन में उतर आएगी। शुभस्य शीघ्रम्। इति।