THE HEALER AND HIS BOWL -
THE SONG OF EMPTINESS
Role Of Wealth In Sadhana?
A Contemplation!
भारतीय राजस्व सेवा में मेरे साढ़े छत्तीस वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। सेवा निवृत्ति में अल्प समय ही शेष है। अतः स्वाभाविक है कि मन बारबार सेवाकाल से जुड़े अतीत को खंगाले। गहन समृतियाँ स्वतः मानसपटल पर उजागर हो आती हैं। यह भी स्वाभाविक है कि इन 36 वर्षों में बारबार ध्यान उन सीनियर्स पर जाए जिन्होंने उस समय अपनी अमिट छाप मेरे मन-मस्तिष्क पर छोड़ी जब मैं सेवा के आरंभिक वर्षों में कानपुर में पोस्टेड था।
उन दिनों कानपुर एक कमिश्नरेट था जिसके अधिकार क्षेत्र में कानपुर और हमीरपुर के ज़िले आते थे। हमीरपुर में कोई अधिकारी नहीं बैठता था। अर्थात्, कमिश्नरेट के सभी अधिकारी कानपुर में ही पोस्टेड थे। कुल मिला कर तकरीबन 45-50 सीनियर-जूनियर अधिकारी होंगे। मुझ जैसे नए प्रोबेशनर को यदि कोई बहुत छोटा ज़िला मिल जाता तो वहाँ पर एक ऐसा अकेलापन होता जिसमें अपने अल्प ज्ञान के भरोसे ही जैसे तैसे ऑफ़िस चलाने की मजबूरी होती। कानपुर में ऐसी छोटी जगह का अकेलापन न था। सहकर्मियों में बहुतेरे सीनियर्स थे। ऑफ़िस में और बाहर भी उन सभी के साथ काफ़ी उठना-बैठना होता था। अतः कार्यालयीन काम में उनसे सीखने को बहुत कुछ मिलता था। साथ ही, उनका अंकुश भी था। कुल मिला कर, कानपुर में महानगरों का वह महासमुद्र न था जिसकी लहरों के थपेड़ों में नए अफ़सर के विवेक की नाव आसानी से दिशा-भ्रष्ट हो बहक जाए।
ऐसे उस कानपुर में एक से एक महानुभाव मिले। कोई आयकर के विधि-विधान एवम ऑफ़िस कार्य में दिग्गज था। कोई अन्य किसी प्रतिभा का धनी। पर, 1952 बैच के श्री शारदा प्रसाद पाण्डेय का व्यक्तित्व ऐसा था कि मैं उन्हें निःसंकोच आयकर विभाग के संत की उपाधि दे सकता हूँ। इस स्मरणिका में उनसे जुड़े कुछ संस्मरण बड़ी सहजता से मुखरित हो लिपिबद्ध हो गए हैं। स्मरणिका को लिपिबद्ध के पीछे मेरा मंतव्य आज की नई पीढ़ी के लोगों (या विभागीय अफ़सरों) को यह बताना है कि कुछ समय पहले पान्डेय जी जैसे लोग, इस जगत में और अपने आयकर विभाग में, थे।
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कानपुर में मेरी पोस्टिंग के एक-डेढ़ साल बीते होंगे। तभी वहाँ एक नए सेन्ट्रल कमिश्नरेट का गठन हुआ। पूरे उत्तर प्रदेश के सेन्ट्रल सर्किल्स के केस अब एक नए कमिश्नर के अधीन होने थे, जिनका हेडक्वार्टर कानपुर था। कुछ ही दिनों में वहाँ नए कमिश्नर की तैनाती हो गई। वे थे दिल्ली से आने वाले, श्री शारदा प्रसाद पान्डेय।
बड़ा अफ़सर किसी नई जगह पर पदासीन हो, तो ऑफ़िस के शिष्टाचार की माँग होती है कि विभाग के अफ़सर उसके कमरे में एक बार अपनी शक्ल दिखाएँ और नमस्कार आदि करेँ। पर, कानपुर के अफ़सर दुविधा में थे। पान्डेय जी दिल्ली में विजिलेन्स डायरेक्टोरेट में थे और वहीं से प्रोमोशन पर कानपुर आए थे। हवा यह भी थी कि वे एक बहुत सख़्त व ईमानदार अफ़सर हैं और व्यक्तिगत जीवन में बहुत ऊँचे मानदंड रखते हैं। इस कारण, लोग पान्डेय जी को ले कर कुछ-कुछ भयभीत से थे और उनके सामने पड़ने का जोखिम न लेना चाहते थे। एक-दो दिन तो मैं भी सुनी-सुनाई में रहा। पर, मेरा कुतूहल प्रबल था। एक दिन पान्डेय जी के कमरे में पहुँच ही गया। उन्हें बहुत ग़ौर से देखा। बचपन में गाँव के खेत-खलिहान की धूप में तपा हुआ गौर वर्ण। समुद्र में विश्रान्ति को उत्सुक लहरों की तरह सिर से विलीन हो रही केश सीमाएँ। छोटा क़द, दुबला शरीर, पुराना-धुराना पैन्ट-शर्ट। कई वर्ष पुरानी उद्धत पड़ गई बेल्ट, जिसने पैन्ट को सायास कमर पर टाँग रखा था। चेहरे पर प्लास्टिक फ़्रेम का चश्मा। आयु में वह बेल्ट को भी पछाड़ने का दम रखता था।
कुल मिला कर पान्डेय जी के चेहरे मोहरे में किसी दक़्क़ाक अफ़सर जैसा कुछ न था। हाँ, चश्मे के पीछे से झाँकती आँखों में एक तेजस्विता थी। बरबस सामने वाला आकर्षित हो जाए। पान्डेय जी ने साधारण औपचारिक सवालों से बात-चात की शुरुआत की। नौकरी में आने के पूर्व मैं रसायन शास्त्र में आनुवंशिकी संबंधित विषय पर शोध कार्य करता था। यह सुनते ही वे वहुत उत्साहित हो गए। अपनी बताने लगे। वे साहित्य के विद्यार्थी रहे थे किन्तु विज्ञान में उनकी रुचि सदा रही। दिल्ली प्रवास में वे ख़ाली समय में एक मशहूर लाइब्रेरी में जा कर नई-नई वैज्ञानिक उपलब्द्धियों के बारे में पढ़ते थे। मुझे यह जान कर सुखद आश्चर्य हुआ कि पान्डेय जी आनुवंशिकी के विषय में काफ़ी कुछ जानते थे।
अचानक पान्डेय जी ने पूछ लिया,”Would you like to be my ITO (Headquarters)?” सवाल अप्रत्याशित था। एक नया ऑफ़िस सेट होना था। मुझ जैसे नौसिखिए को अभी रोज़मर्रा के काम-काज का ही पूरा अनुभव न था। मन कह रहा था कि क्यों इस बड़ी झंझट में पड़ रहे हो, ना कर दो। पर, मेरा अहं आड़े आ गया। ज़ुबान से कुछ और ही निकला। मैंने कहा, “Sir! Now that you have asked, do I have an option in the matter?” इस तरह परोक्ष में हाँ हो गई। फिर क्या था। दूसरे ही दिन मेरी नियुक्ति पान्डेय जी के साथ हो गई और मैंने नया चार्ज ले लिया। नया कमरा व ऑफ़िस स्टाफ़ आदि अभी मिलने थे। पर, पूरे प्रदेश भर से कार्यालयीन फ़ाइलें आने लगीं। दो-तीन दिन में ही मेरे नौसिखियेपन के कारण एक बड़ी गड़बड़ी होते-होते बची।
सहयोगी ऑफ़िस स्टाफ़ अभी मिला नहीं था, फिर भी काम तो करना ही था। अनेक ज्युडिशियल मैटर्स की चालीस पचास फ़ाइलें प्रदेश भर से आ गईं। ज्युडिशियल मैटर्स टाइम-बारिंग होते हैं। पर, मेरा ध्यान इस ओर गया ही नहीं। फ़ाइलों की लिस्ट देख, ऊपर से बीस-बाइस फ़ाइलें सिलसिलेवार निकालीं। उनमें बड़े मनोयोग से अपनी टिप्पणियाँ लिख कर पान्डेय जी के पास भेज दिया। लखनऊ की एक फ़ाइल जो लिस्ट में बहुत नीचे थी, अनछुई रह गई। इसमें अपील की संस्तुति थी और अपील फ़ाइल करने की सीमा दो-तीन दिन बाद ही शुक्रवार को समाप्त हो रही थी।
जब फ़ाइल देखी ही नहीं गई। तो उस पर पाण्डेय जी का कोई निर्णय भी न हुआ, और इस संबंध में कोई सूचना लखनऊ ऑफ़िस को भी न दी गई। शुक्रवार को लगभग चार बजे शाम को लखनऊ के अधिकारियों ने फ़ोन कर पान्डेय जी से यह जानना चाहा कि उनके द्वारा प्रस्तावित अपील पर उन्होंने क्या निर्णय लिया था। अब पान्डेय जी ने मुझे तलब कर इस बारे में पूछा। गड़बड़ का पता चल गया। मैं डरते-डरते फ़ाइल पान्डेय जी के पास ले गया। समस्या यह थी कि अपील जिस ट्राइब्युनल में फ़ाइल होनी थी वह कानपुर में नहीं बल्कि इलाहाबाद में था।
मामला संगीन था। अपील टाइम बार हो जाती तो करदाता के ख़िलाफ़ विभाग का केस अपने आप ख़त्म हो सकता था। कुछ क्षण पान्डेय जी तेज़ क्रोध में दिखे। कड़े स्वर में मुझसे पूछा कि यह चूक क्यों हुई। मैंने बताया कि यह केस लखनऊ से आई लिस्ट में बहुत नीचे था और मैं टाइम-बारिंग डेट के प्रति सचेत न था, इसलिए ग़लती हो गई। पान्डेय जी ने तुरंत स्टेनो को बुला कर ग्राउन्ड्स ऑफ़ अपील आदि ख़ुद लिखाए। मैंने आनन-फ़ानन में किसी को तैयार किया कि वह रात आठ बजे की ट्रेन से इलाहाबाद जा कर मध्य रात्रि तक अपील मेमो ट्राइब्युनल के रजिस्ट्रार को उसके निवास पर दे दे। सब कुछ पूरा करते-करते संध्या के साढ़े सात बज गए।
उस शुक्रवार के बाद दो दिन (सेकण्ड सैटरडे ऐण्ड सन्डे) की छुट्टी थी। पान्डेय जी को कानपुर आए अभी पाँच-छः दिन ही हुए थे, और वे सरकिट हाउस में टिके थे। उनका मन था कि छुट्टी के दो दिन गाँव चले जाएँ। पर इसके लिए उन्हें पहले ऑफ़िस से सरकिट हाउस जाना था। फिर, वापस लौट कर बस स्टैन्ड से रात आठ बजे की बस पकड़नी थी। सरकिट हाउस ऑफ़िस से बहुत दूर था। इस लिए समय से ऑफ़िस छोड़ना आवश्यक था।
कानपुर का हमारा ऑफ़िस सिविल लाइन्स में था। वहाँ उन अमीरों की रहाइश थी जिनके पास अपने वाहन होते थे। अतः शाम होते ही उस इलाक़े में ज़बरदस्त सन्नाटा छा जाता। दूर तक रिक्शा मिलने का प्रश्न भी न था (तब ऑफ़िस आने-जाने के लिए कारें नहीं मिलती थीं)। अब, ऑफ़िस में ही इतनी देर हो गई थी कि वापस सरकिट हाउस जा कर सामान आदि ले कर बस स्टैन्ड आना और बस पकड़ना संभव न था। मेरी चूक ने पान्डेय जी की गृह यात्रा पर भी ग्रहण लगा दिया था। नतीजे में छुट्टी के दो दिन पाण्डेय जी को सूने सरकिट हाउस में अकेले बिताने थे।
काम से निवृत्त हो कर, मैं और पान्डेय जी ऑफ़िस से साथ-साथ ही बाहर निकले। मेरे पास तो अपनी मोटर साइकल थी। पर रिक्शा पकड़ने के लिए पान्डेय जी को दूर तक चल कर जाना था। मैं एक गंभीर अपराध बोध से भरा हुआ था। अंदर कुछ ज़ोर-ज़ोर से उमड़-घुमड़ रहा था। बिल्डिंग के बाहर ऑफ़िस कम्पाउण्ड में अंधेरा था। वहाँ रो भी पड़ता तो पकड़े जाने की संभावना न थी। अतः मुझसे रहा न गया। भर्राई आवाज़ में मैंने कहा, “Sir! I am very sorry for what happened today!” मुझे लगता था कि पान्डेय जी कुछ चेतावनी अवश्य देंगे। पर, उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे मेरे निकट आए और अपनी बाँह मेरे कंधे के इर्द-गिर्द रख मुझे पास खींच लिया। अंधेरे में, उनके चेहरे का भाव तो मैं नहीं देख पाया। पर, उनके शब्दों में कुछ विलक्षण अवश्य था। उन्होंने कहा, “बेटा! ग़लती नहीं करेगा तो सीखेगा कैसे!!” इन शब्दों के साथ मेरे कंधों पर उनकी बाँह की पकड़ सहज रूप से ढीली हो गई। उस क्षण मैं अपने अपराध बोध से तो मुक्त हो ही गया, बाद में ऐसी ग़लती मुझसे न हुई।
“बेटा, ग़लती नहीं करेगा तो सीखेगा कैसे!!” ये शब्द भावी जीवन में भी मेरे लिए किसी सहज मंत्र से कम न सिद्ध हुए। पान्डेय जी के व्यवहार ने मुझे यह सिखावनी दी कि कोई भी ग़लती अक्षम्य नहीं है। जब हम किसी की ग़लती सहज भाव से स्वीकार करते हैं तो हम उसे बहुत स्वाभाविक ढंग से अपनी ग़लतियों से सबक़ ले आगे बढ़ने का मार्ग पाने में सहायक बन सकते हैं।
मैंने विनीत शब्दों में अपनी मोटरसाइकल पर पान्डेय जी को सरकिट हाउस या फिर रिक्शे तक छोड़ने की पेशकश की। उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि देर तो मुझे भी हो गई थी। उन्होंने कहा, “मुझे क्या परेशानी है, मैं तो अकेला हूँ। तुम जल्दी करो। और देरी हुई तो तुम्हारी श्रीमती जी नाहक परेशान होंगी।” मैं जब तक ऑफिस के स्टैन्ड पर खड़ी अपनी मोटरसाइकल बाहर निकालूँ, पान्डेय जी कम्पाउन्ड के बाहर सड़क पर अदृश्य हो गए थे। मैं वापस घर आ गया।
इस वाक़ये ने मुझ पर अमिट छाप छोड़ी। पान्डेय जी के प्रति मेरे मन में सम्मान के साथ श्रद्धा का ऐसा भाव जगा जो कभी धूमिल न हुआ।
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पान्डेय जी के हेडक्वार्टर में मेरी पोस्टिंग का सिलसिला अधिक दिन नहीं चला। ऊपर से निर्देश आए कि यह काम किसी क्लास-टू ऑफ़िसर का था। अतः मेरा तबादला वापस पुरानी जगह ही हो गया। अब पान्डेय जी के हेडक्वार्टर में एक त्रिपाठी जी की पोस्टिंग हो गई। वे पद में जूनियर रहे होंगे किन्तु काम में बहुत अनुभवी थे। मेरी उनसे अच्छी मित्रता थी। दस-पंद्रह दिन बाद ही त्रिपाठी जी ने पान्डेय जी का एक क़िस्सा सुनाया।
पान्डेय जी ने अपने चार्ज में कुछ महत्वपूर्ण स्टेशन्स का दौरा करने की सोची। पहले बनारस की बारी थी। कानपुर से चली ट्रेन सुबह सवेरे बनारस पहुँची। पाण्डेय जी सहज भाव में अपना ब्रीफ़केस ले फ़र्स्ट क्लास से उतर पड़े और प्लेटफ़ार्म पर चहलक़दमी करने लगे। स्टेशन पर रिसीव करने गए लोग उन्हें पहले से न जानते थे। पान्डेय जी सामने ही थे। पर, वे अत्यंत साधारण दिखने वाले व्यक्ति ही दौरे पर आए नए कमिश्नर हैं, यह समझना न हुआ। जब प्लेटफ़ार्म ख़ाली हो चला और पान्डेय जी उधर ही रहे तब उन लोगों पर पान्डेय जी की असलियत उजागर हुई। उनकी इस चूक पर पान्डेय जी ने तो कुछ न कहा। पर, अधिकारियों को बहुत क्षोभ हुआ।
बनारस का बाक़ी दौरा और किसी गड़बड़ के बिना पूरा हो गया। बाद में, कानपुर लौटने पर, एक दिन मौक़ा देख त्रिपाठी जी ने डरते डरते पान्डेय जी से उनके अतिसाधारण रख-रखाव का ज़िक्र करते हुए कहा कि कमिश्नर का पहनावा आदि उसके पद की गरिमा के अनुरूप होना चाहिए। त्रिपाठी जी को विश्वास था कि पान्डेय जी उनकी बात टाल देंगे। हुआ इसके उलट। पान्डेय जी ने त्रिपाठी जी की बात को गंभीरता से लिया और हामी भरते हुए कहा कि आगे से वे अपने पहरावे का ध्यान रखेंगे। कहना न होगा कि पान्डेय जी का पहरावे में जल्द ही उपयुक्त परिवर्तन आ गया।
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कालान्तर में, मैं ए डी आई (इनवेस्टिगेशन) हो कमिश्नर कानपुर के हेडक्वार्टर में आ गया। यहाँ कमिश्नर (सेन्ट्रल) से भी काम पड़ता था। पान्डेय जी इन्कम टैक्स कॉलोनी में रहने लगे थे। कुछ समय बाद मैं भी वहीं शिफ़्ट हो गया। कॉलोनी में मेल-जोल बहुत था। अब जान-पहचान अधिकारिक एवं पारिवारिक दोनों स्तर पर हो गई।
उन दिनों कमिश्नर को भी घर से ऑफ़िस आने-जाने के लिए सरकार की ओर से वाहन की सुविधा न थी। सभी अपने-अपने वाहन का प्रयोग करते थे। पान्डेय जी के पास अपनी कार तो थी, पर वे उसका प्रयोग ऑफिस आने-जाने के लिए न करते थे। वे ब्रीफ़केस लिए कॉलोनी से पैदल निकलते, पास में आर्य-नगर चौराहे पर जा कर साझा रिक्शा पकड़ ऑफ़िस के निकट बड़ा चौराहा तक जाते। वहाँ से पैदल ऑफ़िस। संध्या समय इसी तरह फिर उनकी वापसी होती। कॉलोनी से कई सीनियर अधिकारी अपनी-अपनी कारों में ऑफ़िस आते-जाते थे। उन्हों ने पान्डेय जी को साथ ले जाने की पेशकश भी की। पर पान्डेय जी ने बात टाल दी। एक ही कॉलोनी में रहने के कारण, अक्सर ही जब लोग अपनी कारों में घर से निकल रहे होते तो पान्डेय जी का सामने पड़ जाना स्वाभाविक था। ऐसे में लोग पान्डेय जी को लिफ्ट ऑफ़र कर देते। पर पान्डेय जी बहुत चतुराई से यह कह कर कन्नी कटा लेते कि उन्हें ऑफ़िस से पहले कहीं और जाना है।
कमिश्नर होने के बावजूद पान्डेय जी पैदल ऑफ़िस में आते – जाते हैं, और किसी से लिफ्ट नहीं लेते हैं। इसको ले कर अक्सर लोगों में स्वीकृति का भाव कम और आलोचना का अधिक था। साधारणतया धारणा यह थी कि उनके व्यक्तित्व में व्यावहारिकता का लचीलापन नहीं है और न ही उन्हें समाज में अपने पद की गरिमा का ध्यान है। पर, जैसे जैसे समय बीतता गया लोगों पर यह उजागर होने लगा कि पान्डेय जी के व्यवहार में कोई विसंगति नहीं है, वे जैसे भी हैं बाहर-भीतर एक हैं और अपने व्यवहार में पूरी तरह सहज हैं।
सेन्ट्रल चार्ज के एक करदाता के विरुद्ध एक शिकायत मिली थी। वह यह कि कुली बाज़ार में स्थित उसकी दूकान के पीछे के कमरे में उसके बाप-दादा ने ढेरों चाँदी की सिलें ज़मीन मे दबा कर रखी हुई हैं। लेकिन मामले में कुछ पेंच था। शिकायतकर्ता की करदाता से पुश्तैनी लाग-डाँट थी। फिर, वह हमारे रिकॉर्ड के लिए लिख कर कुछ भी देने के लिए तैयार न था। इस कारण, उसकी हमें उसी सूचना की विश्वसनीयता पर संदेह था। पर, वह इन्फ़ॉरमेन्ट हमारे ऐडमिनिस्ट्रेटिव कमिश्नर, गुप्ता साहब, का क़रीबी था। गुप्ता साहब की उत्कट इच्छा थी कि इस मामले में कुछ एक्शन लिया जाए। छापा डालने का वारंट भी उन्हें ही देना था। फिर हमारी कहाँ चलती।
उस दूकान पर छापा डाल दिया गया। पीछे के कमरे पर हमारा फ़ोकस था। छोटी सी जगह थी, जहाँ अंधेरे और सीलन का साम्राज्य था। खड़े होना दूभर था। जब काम शुरू हुआ तो करदाता को भी यह आभास हो गया कि आयकर विभाग उसके बाप-दादा द्वारा फ़र्श में दबाई गई चाँदी की सिलें ढूँढ रहा है। अब गड़ा धन मिलने की आशा में उसने स्वयं इस अभियान में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। खुदाई के लिए मज़दूर आदि उसने ख़ुद ही बुलवा लिए। पूरा फ़र्श खोद डाला गया। हम कई फुट नीचे चले गए। पर, सीलन से गंधाती मिट्टी के अलावा कुछ न निकला। दीवाल और छत आदि सब ठोक-ठोक कर देखे गए, कहीं भी गड़ा या छिपाया धन न पता चलता। शाम होने को आई। छापे की कारवाई समाप्त करने के अतिरिक्त कोई चारा न था। पर, इन्फ़ॉर्मेन्ट के हमारे कमिश्नर, गुप्ता साहब, के क़रीब होने को ले कर हमें कुछ आशंकाएँ थी। वह उन्हें हमारे बारे में कुछ भी उल्टा-सीधा बोल सकता था। गुप्ता साहब कान के कच्चे थे। हमें भय था कि हमारे विरुद्ध किसी भी शिकायत पर सहज विश्वास कर लेंगे। इस कारण, मेरे बॉस, बटब्याल साहब, कोई रिस्क न लेना चाहते थे।
उन्होंने मुझे गुप्ता साहब के पास भेजा ताकि मैं उन्हें दिन भर के घटनाक्रम और छापे की असफलता के बारे में ब्रीफ़ कर दूँ। गुप्ता साहब को मैंने सब कुछ बताया। उन्हें यह भी कहा कि यदि वे चाहें तो स्वयं लोहा बाज़ार चल कर वस्तु-स्थिति का जायज़ा ले सकते हैं। इस पर गुप्ता साहब ने यह कहा कि मैं जा कर पाण्डेय जी को यह सब बताऊँ क्यों कि करदाता पर ज्यूरिस्डिक्शन सेन्ट्रल चार्ज का ही है। अब गेंद पाण्डेय जी के पाले में आ गई। इस मामले से कुछ भी लेना देना न था। पर उन्होंने छापे के बारे में मेरा विवरण बहुत ध्यान से सुना। मैंने उन्हें यह भी संकेत कर दिया कि बटब्याल साहब को यह आशंका थी कि बाद में इन्फॉर्मेन्ट सर्च की विश्वसनीयता के विषय में प्रश्न खड़ा करने की कोशिश कर सकता है। पाण्डेय जी तुरंत मेरे साथ मौक़ा-मुआयना करने को तैयार हो गए। वे मेरे साथ, सर्च के लिए किराए पर ली गई टैक्सी में सर्च प्रेमिज़ेज़ में आए, सब कुछ अच्छी तरह देखा। यही नहीं, उन्होंने यह भी पता करने का प्रयत्न किया कि कहीं पर दीवाल आदि में कोई गुप्त स्थान तो नहीं। कुछ न मिला। फिर, उन्हें विश्वास हो गया कि खुदाई ठीक से हुई थी और वहाँ पर कोई कोई गड़ा धन न था। अब छापे का कारवाई बंद करने में हमें कोई आशंका न रही। आगे चल कर ऊपर के अधिकारियों से कोई उलाहना सुनना पड़ेगा, यह भय भी जाता रहा।
मौक़ा-मुआयना समाप्त कर, पाण्डेय जी जब वापस निकले तो ऑफ़िस छूटने का समय हो गया था। अतः उन्हें घर वापस जाना था। जिस टैक्सी में पाँडेय जी वहाँ आए थे, हमने उसी टैक्सी वाले को बोला कि वह उन्हें घर छोड़ दे। पाण्डेय जी इसके लिए तैयार न थे। उन्होंने कहा, “Taxi is for use of the Investigation Wing officers during search. It is not for me. I did use it for coming to these search premises. This was office work. Going back home is not. So, I will find a rickshaw and go back.” हम लोग, जो इन्वेस्टिगेशन विंग में काम करते थे, छापे के लिए टैक्सियाँ किराये पर लेते थे। अब, छापा चल रहा हो तो घर लौटने में बहुत देर हो जाती थी। कानपुर में पब्लिक ट्रान्सपोर्ट ना के बराबर था। इसलिए, हम सुबह-सुबह घर पर ही टैक्सियाँ बुला लेते थे। छापे की कार्रवाई से जब भी छुट्टी मिलती, लोग उन्हीं टैक्सियों में घर छोड़े जाते थे। इस कारण, बटब्याल साहब ने तुरंत पाण्डेय जी का प्रतिवाद करते हुए कहा, “Sir! We are authorized to use taxi for going home. If you still feel otherwise, I am going to use this taxi to go to my residence in the colony and I request you to please come with me.” यह कहते हुए बटब्याल साहब ने टैक्सी का दरवाज़ा खोल दिया। वहाँ पर, बहुत से लोग थे। पाण्डेय जी ने कोई बखेड़ा नहीं खड़ा किया और चुपचाप टैक्सी में बैठ गए। बटब्याल साहब ने सर्च को समाप्त कर पंचनामा आदि बनाने का काम मुझे सौंप दिया। वे और पान्डेय जी साथ-साथ टैक्सी में चले गए।
बीस मिनट - आधे घंटे बीते होंगे। सर्च की लिखा पढ़ी लगभग अंतिम स्टेज में थी। तभी बटब्याल साहब वापस आ गए। मैने पूछा तो वह चुप रह गए। बाद में जब हम ऑफ़िस वापस चले, तब उन्हों ने उनके और पाण्डेय जी के बीच जो घटा था वह कह सुनाया। कुली-बाज़ार से निकलने वाली सड़क थोडा आगे जा कर ऑफ़िस के क़रीब उसी चौराहे से गुज़रती थी जहाँ से पाण्डेय जी रोज़ाना घर के लिए साझा रिक्शा पकड़ते थे। जैसे ही वह चौराहा पास आया, पाण्डेय जी ने तुरंत बटब्याल साहब को टैक्सी रुकवाने का हुक्म दिया। उन्हों ने कहा, “Batabyal! I have no issues with your going home in this taxi, which is meant for use by you and your officers. But, I should not do that. At best, I could have used the taxi for going back to office. Now, you have already brought me to the place from where I catch rickshaw every day for going back home. So, I must get down here. Please ask the driver to stop. I will go back home on my own.” मजबूरन, बटब्याल साहब ने टैक्सी रुकवाई। पान्डेय जी टैक्सी से उतर कर रिक्शा पकड़ने के लिए आगे बढ़ गए। बटब्याल साहब को भी इतनी जल्दी कहाँ घर जाना था। वे वापस मेरे पास सर्च प्रेमिज़ेज़ में आ गए थे।
उन दिनों इन्वेस्टिगेशन विंग कमिश्नर्स ऑफ़िस का ही अंग होता था। इससे, हमारे हिसाब से इसमें कोई हर्ज़ न होता यदि पान्डेय जी सर्च के लिए ऑफ़िस द्वारा किराए पर ली गई टैक्सी में बैठ कर घर चले जाते। हमें लगा कि उनका ऐसा न करना उनकी ईमानदारी नहीं कोरी हठधर्मिता थी। इस घटना को याद कर बटब्याल साहब ने कई बार कहा, “It looks as if Pandeyji does not treat us as part of his office. Otherwise, why should he refuse to sit in a taxi hired by us for office work?” बाद में जब हम पाण्डेय जी को और क़रीब से जानने लगे तब हमें यह समझ में आया कि पाँडेय जी हठधर्मी क़तई न थे। वे अपनी मान्यताओं में दृढ़ थे। हाँ, साधारण जगत की अपेक्षाओं और उनकी मान्यताओं में ज़मीन आसमान का फर्क़ था।
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उन दिनों कानपुर में स्टाफ़ यूनियन के एक नेता थे – श्रीवास्तव जी। उन्हें नेतागिरी के अलावा कुछ-कुछ अपने दबंग होने का भी गुमान था। नेतागिरी और दबंगई की कॉकटेल का नशा उन पर अहर्निश चढ़ा रहता। पैन्ट की जेब में एक कट्टा भी रहता था जिसे वे गाहे-ब-गाहे बड़े गर्व से अपने अनुयाई सहकर्मियों को दिखा उन्हें अपना क़ायल बनाते रहते। नयी नयी शौर्य गाथाओं से दिनों दिन उनकी कीर्ति बढ़ रही थी। वे कमज़ोर अफ़सरों को भली भाँति पहचानते थे। ऐसे किसी भी अफ़सर के कमरे में घुस कर उसे कुछ भी करने को कह देते। बात स्टाफ़ के संबंध में हो या फिर किसी करदाता के किसी मसले की उनका हुक्म किसी शाही फ़रमान से कम न था। जो अफ़सर आना-कानी करता, उसकी शामत आ जाती। किसी न किसी बहाने यूनियन की किसी मीटिंग आदि में माईक लगा कर श्रीवास्तव जी उसकी ऐसी की तैसी कर देते।
ऊपर से, किन्हीं अज्ञात कारणों से, श्रीवास्तव जी को हमारे ऐडमिनिस्ट्रेटिव कमिश्नर, गुप्ता साहेब, का परोक्ष संरक्षण प्राप्त था। अतः ऊपर जा कर शिकायत करने पर भी श्रीवास्तव जी के विरुद्ध कुछ न होने वाला था। मिट्टी तो बेचारे अफ़सर की ही पलीद होनी थी। इसलिए अधिकतर अफ़सर अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए चुपचाप श्रीवास्तव जी का कहा कर देते थे। श्रीवास्तव जी की बेलगाम स्वच्छन्दता की देखा-देखी अच्छे भले स्टाफ़ मेम्बर्स भी बिगड़ रहे थे। सीनियर ऑफ़िसर्स में इसकी जब-जब चर्चा होती, पान्डेय जी अपने कोलीग कमिश्नर गुप्ता साहेब पर कोई आक्षेप न करते। हाँ, हमें अवश्य कहते, “शस्त्र संधान करो।” पीठ पीछे हम सब पान्डेय जी की हँसी उड़ाते। कहते, “वाह, वाह, पन्डितजी खुद तो दो हड्डी के हैं, पर सबको शस्त्र संधान करने का उपदेश दे रहे हैं।” कुछ समय बाद पान्डेय जी ही ऐडमिनिस्ट्रेटिव कमिश्नर बन गए। अपने फ़ेयरवेल फ़न्कशन में आउटगोइंग कमिश्नर, गुप्ता साहेब, ने यूनियन लीडर्स, विशेषकर श्रीवास्तव जी, से प्रार्थना की कि उनके जाने के बाद वे पान्डेय जी का ध्यान रखेंगे। यह पान्डेय जी के ऊपर किसी कटाक्ष से कम न था। पर पाण्डेय जी ने कोई प्रतिक्रिया न दी।
कुछ ही दिनों में यूनियन के साथ कुछ न कुछ टकराव रहने लगा। यूनियन ने किसी किसी बात पर एक-दो बार उनका घेराव भी किया। पान्डेय जी शान्त रहे। अब लीडरों की हिम्मत बढ रही थी। एक बार उन्हों ने फिर पान्डेय जी का घेराव किया। इस बार योजना यह थी कि उन्हें कमरे में ही घेर कर रखेंगे और टॉयलेट आदि भी न जाने देंगे। एक-डेढ घंटा बीत गया। पान्डेय जी के कमरे की तो बात ही न पूछो, बाहर का कॉरिडॉर भी नारेबाज़ी कर रहे लोगों से खचाखच भरा था। किसी अन्य अफ़सर को भी पान्डेय जी के कमरे में जाने को न मिल रहा था। एक सीनियर अधिकारी की पुलिस में अच्छी जान-पहचान थी। उन्होंने शहर के एस पी से फ़ोन पर बात की। इत्तफ़ाक़न उस समय एक ट्रक पीएसी पुलिस लाइन्स में मौजूद थी। एस पी ने आनन-फानन में वह पीएसी लोकल सर्किल ऑफ़िसर के साथ हमारे ऑफ़िस भेज दी। पुलिस के लोग डंडा भाँजते ऑफ़िस में जैसे ही घुसे, यूनियन के रण-बाँकुरे अपने-अपने पिछलग्गुओं समेत यूँ ग़ायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। एक भी पट्ठा कमिश्नर ऑफ़िस के पूरे फ्लोर में न टिका।
उस दिन शुक्रवार था। पुलिस फ़ोर्स के साथ आए सर्किल ऑफ़िसर ने पान्डेय जी को एक सलाह दी। यदि पाण्डेय जी इल्लीगल कॅनफ़ॉइनमेन्ट की एक एफ़ आई आर भर लिखवा दें, तो बहुत अच्छा रहेगा। पुलिस शाम तक सब रिंग लीडर्स को पकड़ कर अंदर कर देगी और सोमवार तक उनकी ज़मानत न होने देगी। नतीजतन, सब लीडरान डीम्ड सस्पेन्शन का शिकार हो जाएँगे। ऐडमिनिस्ट्रेशन को आँख दिखाना दूर, वे उससे दया की भीख माँगते फिरेंगे। यूनियन, विशेषकर श्रीवास्तव जी, से त्रस्त अफ़सरों ने इस प्रस्ताव का मुक्त कंठ से समर्थन किया। बहुत सारी तत्कालीन व भावी इन्डिसिप्लिन का एकमुश्त सफ़ाया होने की संभावना थी। पर पान्डेय जी की विचारधारा कुछ और ही थी।
पान्डेय जी ने घेराव हटाने के लिए सर्किल ऑफ़िसर का धन्यवाद अवश्य किया, पर एफ़ आई आर का उनका सुझाव सिरे से खारिज कर दिया। बोले, “मैंने तो आपको यहाँ अपने ऑफ़िस में नहीं बुलाया। जहाँ तक इल्लीगल कॅनफ़ॉइनमेन्ट की बात है मुझे उसकी कोई भी एफ़ आई आर नहीँ दर्ज करानी है। यह हमारा और हमारे स्टाफ़ का आपसी मामला है। हम आपस में अपने घर में ही निपट लेंगे।”
कुछ क्षण बाद पाण्डेय जी ने अपना तर्क भी दिया। कहा, “देखिए, अक्सर घरों में बच्चों की माँ-बाप से गर्मा-गर्मी हो जाती है। वे उन्हें कुछ अपशब्द भी कह-सुन देते हैं। पर माँ-बाप उनकी शिकायत पुलिस स्टेशन में कहाँ करने जाते हैं?” यह दलील इतनी पुख़्ता थी कि बहस-मुबाहसे की कोई गुंजाइश न रही। बात यहीं ख़त्म हो गई।
मुझ जैसों को लगा कि बात-बात में शस्त्र संधान करने की सलाह देने वाले पाण्डेय जी ख़ुद मौक़ा आने पर हिचक कर पीछे हट गए। पर, इस पूरे प्रकरण में निहित पाण्डेय जी की संवेदनशीलता और अहिंसक सोच ने उन्हें सहज ही स्टाफ़ के समक्ष एक मॉरल हाई ग्राउण्ड प्रदान कर दिया। स्टाफ़ में घेराव जैसी ज़बरी और आक्रामक कार्रवाई का समर्थन करने वाले लोग थोड़े ही थे। जो करते थे, वे भी भीतर-भीतर शर्मसार हुए। बाद में इस तरह की घटना पान्डेय जी के साथ ऑफ़िस में फिर न दोहराई गई।
जहाँ तक शस्त्र संधान करने की बात थी, समय आने पर पाण्डेय जी ने वह भी कर दिखाया। श्रीवास्तव जी अपनी मन मरज़ी के मालिक थे। ऑफ़िस अपनी टाइमिंग से आते-जाते। अटेन्डेन्स रजिस्टर में दस्तख़त करना उनकी शान के ख़िलाफ़ था। वे ऑफ़िस का कोई काम कभी न करते थे। उनकी सेवायें सिर्फ़ यूनियन के काम को समर्पित थीं। उनकी पोस्टिंग एक वर्ष ऑडिट विभाग में रही थी। विभाग के प्रमुख ने पूरे साल श्रीवास्तव जी को कुछ न बोला। हाँ, जब ऐनुअल कैरेक्टर रोल लिखने का समय आया, तो उन्होंने ऑफ़िस का अटेन्डेन्स रजिस्टर, जिसमें श्रीवास्तव जी ने कभी हाज़िरी न लगाई थी, अपनी कस्टडी में ले लिया। साथ ही, उन्होंने श्रीवास्तव जी को ऐसी कोई फ़ाइल दिखाने को कहा जिस पर उन्होंने ऑफ़िस कार्य के चलते किसी भी तरह की नोटिंग-ड्राफ्टिंग की हो। अब श्रीवास्तव जी ऐसी फ़ाइल कहाँ से पेश करते। वे तो अपनी ही ऐँठ में थे। विभाग प्रमुख ने ऑफिस में न आने और काम न करने के लिए श्रीवास्तव जी को ऐडवर्स एन्ट्री दे दी। यह एन्ट्री कन्फ़र्म भी हो गई।
इसी बिना पर, पाण्डेय जी की सहमति से श्रीवास्तव जी के ख़िलाफ़ डिसिप्लिनरी प्रोसीडिंग्स भी शुरू कर दी गईं। कुछ समय बाद पाण्डेय जी का तबादला कानपुर चार्ज से मुम्बई हो गया। पर, प्रोसीडिंग्स चलती रहीं। इन प्रोसीडिंग्स में कानपुर के पुराने कमिश्नर, गुप्ता साहब, श्रीवास्तव जी के पक्ष में गवाह बन कर उपस्थित हुए। उन्होंने ज़बानी तौर पर यह कहा कि उन्होंने श्रीवास्तव जी को अनौपचारिक ढंग से अटेन्डेन्स रजिस्टर में दस्तख़त करने से छूट दे रखी थी। पर कोई औपचारिक सुबूत न था। इसलिए यह गवाही भी काम न आई। बड़ी बात यह भी थी कि यह साफ़ था कि पूरे साल में श्रीवास्तव जी ने ऑफ़िस का कोई भी काम न किया था। अंततः श्रीवास्तव जी को डिसमिसल का दंड मिला। श्रीवास्तव जी ने कई साल बहुत हाथ-पैर मारे पर कोई फ़ायदा न हुआ। डिसमिसल का दंड बरक़रार रहा। राष्ट्रपति के पास लगाया गया उनका मर्सी पेटिशन भी ख़ारिज हो गया।
श्रीवास्तव जी एक उदाहरण बन गए। दबंगई से अपंगई का उनका सफ़र बाक़ी लोगों के लिए के सिखावनी बना। स्टाफ़ यूनियन रही। पर, उसकी गतिविधियों में पहले की आक्रामकता न रही। समय अवश्य लगा, पर ऑफ़िस में अनुशासन बहुत सुधर गया। नैतिकता के धनी पाण्डेय जी का कानपुर के आयकर विभाग को यह एक दीर्घकालीन उपहार था। इस प्रक्रिया की नींव उन्होंने ही रखी थी।
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उन दिनों पाण्डेय जी कमिश्नर सेन्ट्रल होते थे। मैं ए डी आई (इन्वेस्टिगेशन) था और किसी कार्य वश उनके ऑफ़िस गया था। उनके पास एक सज्जन बैठे थे। मेरा काम समाप्त हो गया तब पाण्डेय जी ने उनकी ओर इंगित कर पूछा कि क्या मैं उन्हें पहचानता हूँ। मैंने ना में सिर हिलाया तो उन्हों ने उनका नाम बताया – श्री शारदा। शारदा जी अपने समय के जाने माने इन्वेस्टिगेटर रहे थे और उन दिनों इन्कम-टैक्स अपीलेट ट्राइब्यूनल के मेम्बर थे। शारदा जी के साथ मेरे एक बैचमेट ने कुछ दिन काम किया था। उससे उनके इन्वेस्टिगेटिव स्किल्स के क़िस्से मैंने भी बहुत सुने थे। उन्हें किसी व्यवसाई के बही खाते मिल जाएँ बस इतना ही काफ़ी होता। कुछ घंटों में ही शारदा जी उसका पूरा कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देते। उन्हें मिल कर मैं गद् गद् हो गया एवं श्रद्धा से नतमस्तक भी। अब मेरी ओर इशारा करते हुए पाण्डेय जी ने शारदा जी से कहा, ”He is Gaur. Good officers are hard to find these days. But, Gaur is one of them.” मैं बहुत जूनियर था। पाण्डेय जी प्रदत्त इस परिचय को सुन कर धन्य हो गया। पाण्डेय जी मुझे अच्छे अधिकारियों में गिनते हैं यह जान कर मैं नौकरी में अपनी यात्रा के प्रति आश्वस्त हो गया।
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बाद में जब पाण्डेय जी ऐडमिनिसट्रेटिव कमिश्नर हो गए तब ए डी आई (इन्वेस्टिगेशन) की हैसियत से मैं उनके हेडक्वार्टर का अंग हो गया। इस कारण उनसे मिलना जुलना भी अधिक होता था। ऐसे में उन्हें और क़रीब से देखने और पहचानने का मौक़ा मिला।
एक दिन मैं ऑफ़िस में पाण्डेय जी के पास बैठा था। मेरे सामने ही कोई दूर का परिचित या रिश्तेदार उन्हें मिलने आया। कपड़े-लत्ते और रखरखाव से उसकी आर्थिक स्थिति बहुत साधारण लग रही थी। बातों से पता चला कि यह व्यक्ति कानपुर में ही स्वदेशी कॉटन मिल में काम करता था और वहीं पास में रहता था। पाण्डेय जी ने उसके लिए चाय मंगाई और उससे बातें करने लगे। बड़े आग्रह से उसने पाण्डेय जी को अपने निवास पर आमंत्रित किया। उस ने कहा कि जब भी पाण्डेय जी का कार्यक्रम बने तो वह स्वयं इन्कम टैक्स ऑफ़िस आ कर उनके साथ ही चलेगा ताकि उसका घर ढूँढने की ज़हमत पाण्डेय जी को न हो। बड़ी सहजता से पाण्डेय जी ने हाँ भी कर दिया। थोड़ी देर में, वह विदा मांग चलने लगा। तभी पाण्डेय जी ने उससे पूछा, “तुम्हारे पास साइकल है?” उसने स्वीकृति में सिर हिलाया। अब पाण्डेय जी ने कहा, ”देखो, मुझे लेने तुम यहाँ साइकल पर ही आना, दोनों उसी पर बारी-बारी चलाते यहीं से डबल सवारी निकल चलेंगे।”
वह व्यक्ति चला गया। स्वदेशी कॉटन मिल ऑफ़िस से काफ़ी दूर था। रास्ता भी भीड़-भाड़ वाला और बेढब था। उस समय कानपुर शहर में केन्द्र व राज्य दोनों के अफ़सरों में कमिश्नर ऑफ़ इन्कम-टैक्स पद में सबसे वरिष्ठ था। वह ऐसे रास्ते पर साइकल पर जाएगा, वह भी डबल सवारी! यह बात मुझे न पच रही थी। मुझसे रहा न गया और मैंने पूछ ही लिया। पाण्डेय जी ने बड़ी सहजता से साइकल से जाने का औचित्य बताया। बोले, “देखो, यह सज्जन स्वदेशी कॉटन मिल में दिहाड़ी पर काम करते हैं। यहाँ कानपुर में सिटी बस सर्विस नाम-मात्र को ही है। अब यदि उन्हें मुझे ले जाने के लिए अपने घर से आयकर दफ़्तर तक आना है तो रिक्शा ही एक मात्र उपाय है। रिक्शे से आने में तो उनके तीन से चार रूपए खर्च हो जाएँगे। फिर, स्वाभिमान वश वह यह राशि मुझसे तो वापस न लेंगे। यह अतिरिक्त बोझ उन पर नाहक डालना ठीक नहीं। हाँ, वे साइकल से आएँगे तो कुछ भी खर्च न होगा, जो उचित रहेगा।” मैने कहा, “उनका साइकिल पर यहाँ आना तो समझ में आता है। पर आप भी उनके साथ उसी साइकिल पर डबल सवारी चलें इसका क्या औचित्य है।” पाण्डेय जी ने उत्तर दिया, “अब वे साइकिल पर होंगे तो मेरे लिए अलग से रिक्शे पर बैठ कर जाना ठीक नहीं रहेगा, इसीलिए मैंने कहा कि दोनों एक साथ साइकल में डबल सवारी निकल लेंगे।” पाण्डेय जी की बात सुन कर मैं हतप्रभ रह गया। मेरी नज़रों में पाण्डेय जी का क़द उस दिन बहुत ऊँचा हो गया। दूसरे व्यक्तियों को प्रति ऐसी संवेदना रखने वाली शख़्सियत मैंने आयकर विभाग में दूसरी न देखी।
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पाण्डेय जी की सुपुत्री का विवाह लखनऊ के एक संभ्रान्त परिवार में हो रहा था। अफ़सरों के बहुतेरे काम सरकारी अमले की मदद से आपोआप निकल जाते हैं। किन्तु पाण्डेय जी ने ऑफ़िस के किसी मातहत या कर्मचारी को पास फटकने न दिया। बड़े साधारण ढंग से सब इतज़ाम किए गए। कॉलोनी के लोग आश्चर्य करते न थकते थे। कहते, हमारे कमिश्नर का यह हाल है, इससे बेहतर शादियाँ तो हमारे आई टी ओ लोगों के बच्चों की होती हैं। लोगों को पाण्डेय जी के साथ एक और दिक़्कत थी। शादी का कार्ड कम ही लोगों को मिला था। पर, जिन्हें मिला था उन्हें भी यह संदेह था कि ऐन मौक़े पर पाण्डेय जी उनसे वर-वधू के लिए रस्मी तौर पर दिए जाने वाले ग्यारह रूपए का उपहार भी लेंगे।
सात सीनियर लोग, जिन्हें उस समय आइ ए सी बोलते थे, सीधे सीधे पाण्डेय जी के मातहत थे। उन दिनों शादी ब्याह में अस्सी या सौ रूपए तक का उपहार मिलने पर सरकारी नौकर को कॉन्डक्ट रूल में उसकी सूचना न देनी होती था। इन सात लोगों ने मिल कर लगभग साढ़े पाँच सौ रूपए में डाइनिंग टेबुल व चेयर्स का एक सेट ख़रीदा (उन दिनों यह रक़म इस ख़रीद के लिए पर्याप्त थी)। शादी की पूर्व संध्या पर सारे पाण्डेय जी के निवास पर आए। फ़र्नीचर वाले का एक आदमी डाइनिंग टेबुल व चेयर्स ले कर पीछे पीछे आ रहा था।
पाण्डेय जी ने सदा की तरह खुले दिल से घर आने वाले सब आइ ए सीज़ का स्वागत किया। माहौल बहुत अच्छा था। थोड़ी देर में सामान लिए फ़रनीचर वाला आदमी भी उधर आ गया। अब सबने पाण्डेय जी को कहा कि वे लोग मिल कर बेटी के लिए कुछ फ़र्नीचर लाए हैं। पाण्डेय जी बहुत दुविधा में आ गए। बोले, “आप लोगों ने मेरे लिए बड़ी परेशानी खड़ी कर दी। इतना बड़ा गिफ़्ट ले आए! मैं कॉन्डक्ट रूल में क्या इन्टिमेशन दूँगा?” सबने तर्क दे कर कहा कि एक एक व्यक्ति का अंश तो मामूली है, फिर इसमें क्या अनुचित है। लेकिन पाण्डेय जी कहाँ मानने वाले थे। थोड़ी देर की बहस के बाद बोले, “कृपया आप लोग यह सब वापस ले जाएँ तो अच्छा रहेगा।”
अचानक माहौल संगीन हो गया। सबकी गति असमंजस की थी। लोग बड़े चाव से उपहार ले कर गए थे। अब न उगलते बनता था न निगलते। सब चुपचाप ज़मीन में निगाहें गाड़े बैठे थे। बात की सुगबुग घर में भी पहुँच गई थी। मिसेज़ पाण्डेय परदे की ओट ले कर देख रहीं थीं कि शायद कोई समाधान निकल जाए। जब कुछ न हुआ तो वे ड्राइँग रूम में आगईं। उन्हों ने पाण्डेय जी को कहा, “हमारी बेटी की शादी है। यह भले लोग इतने प्रेम से उसके लिए कुछ सामान ले कर आए हैं। किसी रूल का हवाला दे उसे लौटाने को कह कर आप क्यों सबका अपमान कर रहे हैं।”
पाण्डेय जी अब भी चुप थे। श्रीमती पाण्डेय सबसे मुख़ातिब हुईं और कहा, “पाण्डेय जी की तरफ़ से मैँ आपका गिफ़्ट स्वीकार करती हूँ, आप सब निश्चिन्त हो कर घर वापस जाएँ।” सबकी साँस में साँस आई। नमस्कार करते हुए उन्होंने विदा ली। पाण्डेय जी चुप ही रहे। शायद उस चुप्पी में ही पत्नी के आग्रह की मौन स्वीकृति थी।
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कानपुर में ए डी आई का काम करते समय पाण्डेय जी के साथ कुछ अति विशिष्ट अनुभव हुए जिनकी चर्चा करना आवश्यक है। कानपुर में एक सरदार जी थे। उनकी उमर होगी पछत्तर-अस्सी के बीच। सरदार जी का भरा-पूरा परिवार था। उनकी एक स्टील रोलिंग मिल थी। वे कानपुर के रईसों में थे। कानपुर के धनी मानी इलाक़ों में उनके कई बंगले थे। उस समय ज्ञानी ज़ैल सिंह गृह मंत्री थे। उनसे सरदार जी के घनिष्ट संबंध थे। ज्ञानी जी जब भी कानपुर आते थे तब अक्सर सरदार जी के निवास पर टिकते।
सरदार जी के बारे में लोग ढेरों बातें करते। ख़बर यह थी कि सरदार जी ताउम्र स्टील बेचने में बिल की रक़म से ऊपर कुछ कैश प्रीमियम लेते रहे थे और इस तरह उनके पास अकूत अघोषित सम्पत्ति जमा हो गई थी। सरदार जी कानपुर के मेयर तथा राज्य सभा के सांसद भी रहे थे। राज्य सभा का टर्म पूरा हो रहा था। अब हवा यह थी कि सरदार जी को कहीं के राज्यपाल का ओहदा भी मिल सकता है। लोगों का क़यास था कि सारे राजनीतिक ओहदे सरदार जी को पैसों के बल पर ही मिले थे।
ऐसे में किसी ने सूचना दी कि सरदार जी के अपने घर में एक करोड़ रूपया नक़द रखा हुआ है। इस सूचना की तसदीक मुश्किल थी और बिना किसी तसदीक के ऐसे रसूख़ वाले आदमी पर हाथ डालना ठीक नहीं लगता था। अतः हम लोग कुछ दिन शांत रहे और कोई कार्रवाई न की। देखना यह था कि सूचना देने वाला सीरियस है या नहीं। लेकिन वह बहुत सीरियस था और हमारे पीछे लगा रहा। एक दिन उसने हमें बाहर मिलने को बुलाया। वह बहुत ग़ुस्से में था। बड़ी अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए उसने यह आरोप लगाया कि हम सब सरदार जी से मिल गए हैं। पूछने पर उसने कहा कि जो पैसा पहले सिर्फ़ सरदार जी के बंगले में रखा था वह कुछ दिन हुए दो घरों में बाँट दिया गया था। उसका क्रोध असली था। उसमें कुछ भी ओढ़ा हुआ न था। इसीसे हम सब आश्वस्त होगए कि उसके द्वारा दी गई सूचना में दम है और सरदारजी के यहाँ छापे की कार्रवाई होनी चाहिए।
छापे के लिए वारंट ऑफ़ ऑथराइज़ेशन पाण्डेय जी को इश्यू करना था। साधारणतया हम यह मान कर चलते थे कि हमारे द्वारा पुट अप किए किसी भी केस में पाण्डेय जी ना नहीं करेंगे। अतः हम अपने नोट के साथ वारंट भी उनके हस्ताक्षर के लिए बना लेते थे। पर, इस केस की बानगी अलग थी। एक बड़े रसूख़दार आदमी का मामला था। फिर हमें यह भरोसा नहीं था कि हमारे पास जो सूचना थी वह पाण्डेय जी को ऐक्शनेबल लगेगी या नहीँ। इसलिए हमने सिर्फ़ अपना नोट पुट अप किया। नोट में सिर्फ़ ख़बरी द्वारा दी गई सूचना तथा मार्केट रिपोर्ट्स का ही ज़िक्र था। पाण्डेय जी ने नोट पढ़ा। फिर पूछा कि सूचना की सत्यता जाँचने के लिए हम लोगों ने क्या किया था। जवाब में हमारे डी डी आई, श्री बट्ब्याल, ने कहा कि घर में घुस कर सत्यापन करना संभव न था। उन्हों ने पाण्डेय जी को इन्फ़ॉर्मेन्ट के ग़ुस्से और उसके द्वारा लगाये जा रहे आरोप की घटना बता दी। पाण्डेय जी ने सब कुछ ध्यान से सुना और फ़ाइल पर छापे के लिए अपनी संतुष्टि तुरंत रिकॉर्ड कर दी।
अब वारंट पर दस्तख़त करने की बारी थी। मैंने जल्दी जल्दी वारंट बनाए। पाण्डेय जी ने उन पर दस्तख़त कर दिए। हम सभी को यह अहसास था कि हम कुछ ऐसा करने जा रहे हैं जिसका परिणाम भी बड़ा होगा। पाण्डेय जी के कमरे का वातावरण कुछ कुछ बोझिल हो चला था। पाण्डेय जी ने दस्तख़त की हुई फ़ाइल हमें लौटाई। साथ ही उन्हों ने हम सबको इंगित करते हुए कहा,,”If your hunch is correct and a huge amount of cash is found, no one will question our action. However, if the search action fails, all hell will break loose and everyone present here in this room will land in Timbucktoo.” बात तो सच थी, हमारी विश्वसनीयता दाँव पर थी। हम सब चुप थे। अचानक पाण्डेय जी ने मुस्कुरा कर कहा, “So what! We will still make a fine team there.” पाण्डेय जी के इन शब्दों ने हमारे दिलों पर जमा हो रहे बोझ को एक झटके में हल्का कर दिया।
हममें से किसी की भी टिम्बकटू जाने की नौबत न आई। सरदार जी की सर्च में अभूतपूर्व सफलता मिली। दो घरों से लगभग एक करोड़ कैश मिला। कुछ नोट तो इतने पुराने थे कि जहाँ हाथ लगाएँ वहीं से टूट जाते। 1947 मिन्ट की तीन-तीन सेर तौल की वहुत सी सोने की ईंटें मिलीं। कुल मिला कर एक करोड़ छः लाख नक़द व लगभग बीस सोने की ईंटें ज़ब्त किए गए। यह एक ऑल इन्डिया रिकॉर्ड था, जो बहुत वर्षों तक न टूटा।
रिज़र्व बैंक ने ज़ब्त की गई नक़दी गिन कर जमा करने में दो दिन लगाए। अख़बारों में कई दिनों तक इस सर्च के चर्चे रहे। कानपुर में तो पूरी सनसनी फैल गई। बड़ी प्रसिद्धि मिली। कानपुर में लोग मुझ जैसे इन्वेस्टिगेशन विंग के अधिकारियों को नाम से जानने लगे। उन दिनों विभाग में रिवार्ड मिलने का चलन न था। किन्तु सी बी डी टी के चेयरमैन के हस्ताक्षर से हम सभी को प्रशस्ति पत्र मिले जो हमारी ए सी आर फ़ाइल में रखे गए।
पाण्डेय जी ने जितनी शान्ति व तत्परता से इस तलाशी की स्वीकृति दी थी वही सरदार जी जैसे दमदार व्यक्ति की सर्च में हम सभी का संबल थी। मेरे भावी जीवन के लिए यह एक प्रेरणा दायी प्रसंग बन गया। कालान्तर में भी अनेक बार बहुत प्रभावशाली लोगों के विरुद्ध आयकर की जाँच करने का दायित्व मिला। ऐसे हर मौक़े पर पाण्डेय जी का वरद हस्त मुझे अपनी पीठ पर महसूस होता था।
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कानपुर के पड़ोस में, अस्सी किलोमीटर पर मूसानगर नामका एक क़स्बा था। वहाँ के कुछ लोग काफ़ी समृद्ध थे। किसी ने हमें वहाँ के दो व्यवसाइयों के बारे में ख़बर दी। वे गहने गिरवी रख कर ब्याज पर पैसा देते थे। मेरे बॉस, बटब्याल साहब, ने रेक्की करने मूसानगर जाने का तय किया। मुझे उनके साथ जाना था। हमने सोचा कि दिन में किसी समय उस छोटे क़स्बे में जाना ठीक न होगा। किसी को भी हम पर शक हो सकता था। अतः यह निश्चित हुआ कि हम बहुत सुबह ऑफिस की जीप में कानपुर से निकल लेंगे और छः बजते-बजते वहाँ पहुँच कर हम चुपचाप दोनों करदाताओं के घर देख लेंगे। चूँकि शहर की हद छोड़ना था, बटब्याल साहब ने पाण्डेय जी को यह बात बता दी।
पाण्डेय जी ने कहा कि इस रेक्की अभियान में वे भी हमारे साथ चलेंगे। तीनों एक ही कॉलोनी में थे इसलिए इसमें तो कुछ भी झंझट न थी। एक दिन पहले, जीप कॉलोनी में ही खड़ी कर ली गई। मैंने उस पर लगे सरकारी पहचान के बोर्ड आदि निकलवा दिये। साढ़े चार बजे सुबह हम तीनों बाहर मिले। मैंने और बटब्याल साहब, दोनों ने अपनी-अपनी सबसे साधारण पैन्ट – शर्ट पहन रखे थे। पर हमारे कपडे धुले-धुलाए थे। हमारे पैरों में ढंग के चप्पल – सैण्डल थे। हाँ, पाण्डे जी की देह धजा अलग थी। उन्हों ने एक पुरानी गंदी धोती पर एक मिर्जई पहन रखा था। कंधों पर एक चारख़ाने की सूती तौलिया थी। उनके पैरों में गाँव में चलने वाली एक सस्ती चप्पल थी, टायर जैसे मैटीरियल से बनी।
हमें देखते ही पाण्डे जी ने बुरा सा मुँह बनाया। बोले, ऐसे साफ़-साफ़ कपड़े पहन कर क़स्बे में चल रहे हो, तुम लोग तो दूर से ही शहरी बाबू दिखोगे। हम सकपका गए। बात बिल्कुल सच थी। हमें लगा कि अब आगे का कार्यक्रम कैन्सिल हो जाएगा। पर, हमारे पास तो ऐसा कोई छद्मवेशी पहरावा नहीं था जो पाण्डेय जी के डिसगाइज़ को मैच कर पाता। अंततः हमने जैसे थे वैसे ही मूसानगर जाने का निर्णय किया।
बटब्याल साहब जीप चलाने वाले थे। पाण्डेय जी पहले उनके साथ ड्राइवर्स सीट के बाजू में बैठे। मैं पीछे की सीट पर था। पर, कुछ सोच कर पाण्डेय जी ने रास्ते में अपनी जगह मेरे साथ बदल ली। छः सवा छः बजे होंगे जब हम मूसानगर पहुँचे। मूसानगर का क़स्बा कानपुर से आने वाली सड़क के एक ओर एक लंबी गली के दोनों ओर बसा हुआ था। सड़क पर खुलने वाले गली के मुहाने के पास सड़क की दूसरी तरफ़ चाय आदि की दुकानें थीं। इतने सबेरे-सबेरे कोई ग्राहक न था। और, अभी एक ही दूकान खुली थी। दूकान में भी एक ही लड़का था जो पत्थर के कोयले वाली अंगीठी सुलगा रहा था। सब तरफ़ सुबह का सन्नाटा पसरा था।
हमने जीप चाय की दूकान से थोड़ा पहले ही रोक ली थी। जीप में सबसे पीछे एक झाड़न रखा रहता था। पाण्डेय जी को यह बात पता थी। जीप रुकते ही, पाण्डेय जी लपक कर उतरे। पिछला दरवाज़ा खोल कर अंदर रखे झाड़न को निकाल लिया। अब वे हमें बोले, “देखो तुम लोग तो साहब हो, मैं अभी तुम्हारा ड्राइवर बन जाता हूँ। मैं यहाँ जीप की सफ़ाई करता हूँ, तुम लोग क़स्बे में जाओ और इतमीनान से घर देख कर वापस आओ।”
बटब्याल साहब और मैं गली से क़स्बे में अंदर प्रवेश कर गए। अभी क़स्बे में कोई चहल-पहल या आमद-रफ़्त न थी। इसलिए हमें यह खटका न था कि हमारे घूमने-फिरने से किसी को कोई संदेह होगा। हमारे ख़बरी ने पहले ही हमें दोनों व्यापारियों के घरों तक पहुँचने का नक़्शा आदि दिया था। अतः उन घरों को पहचानने में कोई दिक़्क़त न हुई। घरों का कॉन्सट्रक्शन व रख रखाव क़स्बे के अन्य घरों से बहुत अच्छा था। इससे साफ़ पता चलता था कि उनमें रहने वाले दूसरों के मुक़ाबले अत्यधिक संपन्न हैं। सतर्कता वश हमने इधर उधर पूरे क़स्बे का भी चक्कर लगाया। फिर हम वापस लौट आए।
अपनी जीप के पास पहुँच कर हम दंग रह गए। पाण्डेय जी ने चाय की दूकान वाले लड़के से दोस्ती गाँठ उससे एक बाल्टी नुमा बर्तन और पानी माँग लिया था। झाड़न को पानी में गीला कर के उसकी मदद से वे जीप को बाहर व भीतर से अच्छी तरह चमका रहे थे। अब तक चाय की दुकान में अंगीठी गरम हो गई थी। पाण्डेय जी ने आँख के इशारे से हमें जीप में बैठने को कहा। हम जीप में बैठ गए। उन्होंने उस दुकान वाले लड़के को ‘साहब लोगों’ के लिए चाय बनाने को कहा। अब एक फ़रमाबरदार ड्राइवर की तरह उन्होंने चाय वाले की बाल्टी लौटाई और हाथ के झाड़न को अच्छे से साफ़ पानी से खंगाल और निचोड़ कर जीप में पीछे अच्छे से पसार दिया। फिर, अपने हाथ धो कर वे बड़ी मुस्तैदी से जीप के सामने हाथ बाँध कर खड़े हो गए।
देखते-देखते चाय बन गई। चाय भरे काँच के दो ग्लास ले कर पाण्डेय जी जीप की ओर आए और उन्हें हमारी ओर बढ़ा दिया। और कहीं कुछ भी खर्च होता हो, तो पाण्डेय जी किसी जूनियर को जेब में हाथ भी न डालने देते थे। पर आज बात उलट थी। हमें चाय के ग्लास देते हुए उन्होंने फुसफुसा कर बटब्याल साहब को कहा, “तीन चाय के छः आने तुम ही दे दो क्यों कि अभी तो मैं तुम्हारा ड्राइवर हूँ।” बटब्याल साहब ने उन्हें पैसे दे दिए।
पाण्डेय जी ने अब चाय का अपना ग्लास लिया। फिर जल्दी जल्दी चाय पी कर उन्होंने चाय के पैसे चुकाए। इसके बाद वे हमारी तरफ़ आए और हमसे हमारे ग्लास ले कर दुकान में वापस किए। फिर वे पहले की तरह जीप में पीछे बैठे। अब हम वहाँ से निकल गए। रास्ते में पाण्डेय जी ने बताया कि एक विजिलेन्स इन्क्वायरी में वे किस तरह छद्मवेष में कहीं अंदर जा कर कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएँ ले आए थे।
बाद में भी, पाण्डेय जी ने इस रेक्की में वेष-भूषा में हमारी कमतरी पर हमें और कुछ न कहा। पर, उस दिन का पान्डेय जी का ड्राइवर का स्वाँग इतना सटीक था कि मैं और बटब्याल साहब वहुत दिनों तक उसकी चर्चा करते रहे। हमें लगा कि शहरी और गँवई दोनों तरह के परिवेश में घुल मिल जाने की उनकी योग्यता नैसर्गिक थी। मेरे जैसे शहरी लोग चोला बदलने का कोई प्रयत्न भी करें तो वह ओढ़ा हुआ ही लगेगा। और, उसकी पोल भी तुरंत ही खुल जाएगी।